प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह ने असंभव को संभव कर दिखाया 

संसद का वर्तमान सत्र उपलब्धियों की दृष्टि से अत्यंत सफल रहा है। दरअसल, इस दौरान कई ऐतिहासिक विधेयक पारित किए गए हैं। तीन तलाक कानून, आतंक पर कठोर प्रहार करने वाले कानून और अनुच्छेद 370 पर निर्णय ये सभी निश्चित तौर पर अप्रत्याशित हैं। आम धारणा कि अनुच्छेद 370 पर भाजपा द्वारा किया गया वायदा सिर्फ  एक नारा है, जिसे पूरा नहीं किया जा सकता है, पूरी तरह से गलत साबित हुई है। सरकार की नई कश्मीर नीति पर आम जनता की ओर से जो जबरदस्त  समर्थन मिल रहा है, उसे देखते हुए कई विपक्षी दलों ने आम जनता के सुर में सुर मिलाना ही उचित समझा है। यही नहीं, राज्यसभा में इस निर्णय का दो तिहाई बहुमत से पारित होना निश्चित तौर पर कल्पना से परे है। मैंने इस निर्णय के असर के साथ-साथ जम्मू-कश्मीर के मुद्दे को सुलझाने के अनगिनत विफ ल प्रयासों के इतिहास का विश्लेषण किया। 
विलय के प्रस्ताव (इंस्ट्रूमेंट ऑफ  एक्सेशन) पर अक्तूबर 1947 में हस्ताक्षर किए गए थे। पश्चिमी पाकिस्तासन से लाखों की संख्या में शरणार्थी पलायन कर भारत आ गए थे। पंडित नेहरू की सरकार ने उन्हें  जम्मू और कश्मीर में बसने की अनुमति नहीं दी थी। पिछले 72 वर्षों से कश्मीर पाकिस्तान का अपूर्ण एजेंडा रहा है। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने हालात का आकलन करने में भारी भूल की थी। वह जनमत संग्रह के पक्ष में थे और उन्होंने संयुक्त राष्ट्र को इस मुद्दे पर विचार-विमर्श करने की अनुमति दे दी। उन्होंने शेख मोहम्मद अब्दुल्ला पर भरोसा करके उन्हें इस राज्य की बागडोर सौंपने का निर्णय लिया। फिर इसके बाद वर्ष 1953 में उनका विश्वास शेख साहब पर से उठ गया और उन्हें जेल में बंद कर दिया। दरअसल, शेख ने इस राज्य को अपने व्यक्तिगत साम्राज्य में तब्दील कर दिया था। उस समय जम्मू-कश्मीर राज्य में कोई कांग्रेस पार्टी नहीं थी। कांग्रेसी दरअसल नेशनल कांफ्रेंस के सदस्य थे। कांग्रेस की एक सरकार नेशनल कांफ्रेंस के नाम से बना दी गई थी। इसके प्रमुख बख्शीं गुलाम मोहम्मद थे। नेशनल कांफ्रेंस के नेतृत्व ने ‘जनमत संग्रह मोर्चा’ के नाम से एक अलग समूह बना दिया था। लेकिन नेशनल कांफ्रेंस का रूप धारण कर कांग्रेस आखिरकार चुनाव कैसे जीत पाती? वर्ष 1957, 1962 और 1967 के चुनावों में नि:संदेह धांधली हुई थी। अब्दुल खालिक नामक अधिकारी जो श्रीनगर और डोडा दोनों के ही कलेक्टर थे, को रिटर्निंग ऑफिसर बनाया गया था। इस अधिकारी ने घाटी में किसी भी विपक्षी उम्मीदवार का नामांकन नहीं होने दिया था। इन तीनों चुनावों में ज्यादातर कांग्रेसी निर्विवादित ही निर्वाचित हो गए थे। कश्मीर घाटी की जनता का केन्द्र सरकार में कोई विश्वास नहीं रह गया था। विशेष दर्जा देने और राज्य की बागडोर शेख साहब को सौंपने तथा बाद में कांग्रेस सरकारों के सत्तारूढ़ होने का यह प्रयोग एक ऐतिहासिक भूल साबित हुआ। पिछले सात दशकों के इतिहास से यह पता चलता है कि इस अलग दर्जे की यात्रा अलगाववाद की ओर रही है, न कि एकीकरण की ओर। इससे अलगाववादी भावना विकसित हो गई। पाकिस्तान ने इस हालात से लाभ उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 
श्रीमती इंदिरा गांधी ने इसके बाद शेख साहब को रिहा करने और बाहर से कांग्रेस का समर्थन सुनिश्चित कर एक बार फिर उनकी सरकार बनाने का एक प्रयोग किया। यह प्रयोग वर्ष 1975 में किया गया था। हालांकि, कुछ ही महीनों के भीतर शेख साहब के सुर बदल गए और श्रीमती गांधी को यह स्पष्ट रूप से एहसास हो गया कि उन्हें नीचा दिखाया गया है। शेख साहब के निधन के बाद इसकी बागडोर नेशनल कांफ्रेंस के वरिष्ठ नेताओं जैसे कि मिर्जा अफजल बेग को सौंपी जानी चाहिए थी, लेकिन शेख साहब कश्मीर को अपनी पारिवारिक जागीर में तब्दील करना चाहते थे। फारूक अब्दुल्ला इस तरह से शेख साहब के उत्तराधिकारी के रूप में मुख्यनमंत्री बन गए। 
मुख्य धारा की पार्टी को मजबूती प्रदान करने की जगह 1984 के आरंभ में कांग्रेस ने सरकार को अस्थिर कर दिया। शेख साहब के दामाद गुल मोहम्मद की अगुवाई में नेशनल कांफ्रेंस के बागी गुट के साथ मिलकर और जोड़-तोड़ करके रातों-रात मुख्यमंत्री बदल दिया गया। शाह को मुख्यमंत्री बनाया गया। जाहिर तौर पर नया मुख्यमंत्री हालात पर काबू नहीं पा सका। उसके बाद के वक्तव्यों से सीधे तौर पर साबित होता था कि उनकी हमदर्दी अलगाववादियों के साथ है। 1987 में श्री राजीव गांधी ने एक बार फि र से नीतियों को बदल दिया और फारूख अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा। चुनाव में भी धांधली हुई। कुछ उम्मीदवार जिन्हें जोड़-तोड़ करके हराया गया था, वे बाद में अलगाववादी और तो और आतंकवादी तक बन गये। 
वर्ष 1989-90 तक, हालात काबू से बाहर हो गये तथा अलगाववाद के साथ-साथ आतंकवाद की भावना जोर पकड़ने लगी। कश्मीरी पंडित जो कि कश्मीरियत का अनिवार्य भाग थे, उन्हें इस तरह के अत्याचार बर्दाश्त करने पड़े, जिस तरह के अत्याचार अतीत में केवल नाजियों ने ही किये थे। जातीय संहार किया गया और कश्मीरी पंडितों को घाटी से बाहर खदेड़ दिया गया। 
जब अलगाववाद और उग्रवाद जोर पकड़ रहे थे, विभिन्न राजनीतिक दलों की अगुवाई वाली केन्द्र सरकार ने तीन नये प्रकार के प्रयास किये। उन्होंने अलगाववादियों के साथ बातचीत करने की कोशिश की, जो व्यर्थ साबित हुई। सरकारों द्वारा कश्मीर समस्या को द्विपक्षीय मामले के रूप में पाकिस्तान के साथ बातचीत करके हल करने की कोशिश की गई। सरकारें समस्या का समाधान तलाशने के लिए समस्या के जन्मदाता के साथ बातचीत कर रही थीं। बातचीत का प्रयोग विफ ल होने के बाद केन्द्र की बहुत-सी सरकारों ने व्यापक राष्ट्रीय हित में जम्मू-कश्मीर की तथाकथित मुख्यधारा वाली पार्टियों के साथ समायोजन करने का फैसला किया। दो राष्ट्रीय दलों ने एक अवस्था पर दो क्षेत्रीय पार्टियों -पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस पर भरोसा करने का प्रयोग किया। उन्हें सत्ता पर आसीन कराया ताकि क्षेत्रीय पार्टियों की मदद से वे जनता के साथ संवाद कर सकें। हर मौके पर यह प्रयोग विफल रहा। क्षेत्रीय पार्टियों ने नई दिल्ली में एक जुबान बोली तो श्रीनगर में दूसरी जुबान में बात की। अलगाववादियों के तुष्टिकरण का सबसे खराब प्रयास गुपचुप रूप से संविधान में अनुच्छेद 35-ए को सरकाने का 1954 का फैसला था। इसमें भारतीय नागरिकों की दो श्रेणियों के बीच भेदभाव किया गया और इसकी परिणति कश्मीर को देश के शेष भाग से दूर करने में हुई। वर्तमान निर्णय यह स्पष्ट  करता है कि जिस तरह देश के अन्य भागों में कानून का शासन है, उसी तरह कश्मीर में कानून का शासन लागू होगा। सुरक्षा के कदम कड़े किये गये हैं। बड़ी संख्या में आतंकवादियों का सफाया किया गया है। अलगाववादियों को दी गई सुरक्षा वापस ली गई। आयकर विभाग तथा एनआईए ने ऐसे गैर-कानूनी संसाधनों का पता लगाया जो इन अलगाववादियों और आतंकवादियों को मिल रहे थे। इन दोनों श्रेणियों के बीच पिछले 10 महीनों में सैकड़ों लोग पीड़ित हुए हैं, लेकिन कश्मीर घाटी की बाकी आबादी ने दशकों बाद शांति का युग देखा है। अब घाटी में कश्मीरी मुस्लिम के अलावा किसी अन्य के नहीं रहने से लोग आतंकवाद का शिकार हो रहे हैं। बहुत लोग भय के कारण अन्य राज्यों में चले गये हैं। 
कानून और व्यवस्था कठोरता से लागू की गई और कानून तोड़ने वाले किसी व्यक्ति को छोड़ा नहीं गया। लाखों कश्मीरी लोगों की जिंदगी सुरक्षित की गई और इन कदमों से मुट्ठी भर अलगाववादियों पर दबाव बनाया गया। पिछले 10 महीनों में किसी तरह का विरोध नहीं हुआ है। अगला तार्किक कदम स्पष्ट रूप से उन कानून की फिर से समीक्षा करना है जो अलगाववादी मानसिकता को जन्म देते हैं। 
इस पहल के व्यापक समर्थन ने कई विपक्षी दलों को भी पहल का  समर्थन करने के लिए बाध्य कर दिया है। उन्होंने वास्तविकता का अनुभव किया है और वे लोगों की नाराजगी का सामना नहीं करना चाहते। यह एक पछतावा है कि कांग्रेस पार्टी की विरासत ने पहले तो समस्या का सृजन किया और फि र उसे बढ़ाया,अब वह कारण ढूंढने में विफ ल है। उदाहरण स्वरूप जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में राहुल गांधी ने जब टुकड़े-टुकड़े गैंग को समर्थन दिया था, तब कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की भी अलग राय थी। यह सरकार के इस फैसले के लिए लागू होता है। कांग्रेस के लोग व्यापक तौर पर इस विधेयक का समर्थन करते हैं। उनकी निजी और सार्वजनिक टिप्पणियां इस दिशा मे हैं, किंतु एक दिग्भ्रमित के रूप में राष्ट्रीय पार्टी भारत की जनता से अपनी विरक्ति बढ़ा रही है। नया भारत एक बदला हुआ भारत है। केवल कांग्रेस ही इसे महसूस नहीं करती है। कांग्रेस नेतृत्व  पतन की ओर अग्रसर है।