क्या टैक्स छूटों से मंदी दूर हो सकेगी ?

आर्थिक प्रश्नों पर लिखने वाले एक योग्य समीक्षक ने हाल ही में हमें बचपन में सुनी गई एक कहानी दुबारा सुनाई है। कहानी इस प्रकार है- एक भेड़िया था जिसके गले में एक हड्डी अटक गई थी। क़ाफी खखारने, उछल-कूद मचाने और खांसने के बावजूद हड्डी थी कि निकलने का नाम ही नहीं ले रही थी। आखिर में हार कर भेड़िये ने मदद की गुहार लगाई। उसकी मदद करने एक सारस आया। उसने भेड़िये से कहा कि अपना मुंह खोलो। फिर सारस ने अपनी लम्बी चोंच उसके गले के भीतर तक डाल कर फंसी हुई हड्डी निकाल दी। निकलते ही भेड़िया सारस की तऱफ देखे बिना ही अपने रास्ते चल दिया। सारस को उसकी यह एहसाऩफरामोशी बहुत बुरी लगी। उसने भेड़िये से कहा कि इनाम देना तो दूर की बात है, तुमने तो शुक्रिया भी अदा नहीं किया। इस पर भेड़िये ने जवाब दिया कि तुमने अपनी चोंच समेत अपना पूरा सिर मेरे मुंह में डाल दिया था। शुक्रिया तो तुम्हें मेरा अदा करना चाहिए कि मैंने तुम्हारे सिर को नहीं खाया। इस कहानी में दरअसल एक सीख है जिसके आईने में सरकार, कॉरपोटेरट सैक्टर और कॉरपोरेट टैक्स में हाल ही में हुई कटौती के आपसी संबंधों को देखा जाना चाहिए। 
यहां पूछने लायक प्रश्न यह है कि क्या बड़े पैमाने पर कॉरपोरेट टैक्स में हुई ऐतिहासिक कटौती से भारत के उद्योगपति सरकार के प्रति कृतज्ञता महसूस करेंगे? अगर करेंगे तो सरकार के इस एहसान के बदले वे उसे क्या देंगे? इन उद्योगपतियों की तिजोरी में डेढ़ लाख करोड़ का कैश रिज़र्व (आरक्षित नकदी) पिछले सात-आठ साल से रखी हुई है। लेकिन उसकी एक पाई भी उन्होंने निवेश में नहीं लगाई। इसी तरह सरकारी क्षेत्र की कम्पनियों के पास भी त़करीबन एक लाख करोड़ की आरक्षित नकदी है। उसने भी निवेश में एक पैसे का योगदान नहीं किया। नतीजा यह निकला कि अर्थव्यवस्था में निवेश की प्रक्रिया सुस्त होते-होते लगभग मृतप्राय: हो गई। धीरे-धीरे यह निवेशहीनता अन्य महत्वपूर्ण कारकों के साथ मिल कर गहरी मंदी में बदल गई। आज हालत यह है कि न तो लाखों रुपए में आने वाली कार बिक रही है (खास बात यह है कि जिस कैश रिज़र्व का ज़िक्र ऊपर किया गया है, उसका सबसे बड़ा हिस्सा कार बनाने वाली कम्पनियों के पास ही है), और न ही पांच रुपए में बिकने वाला ग्लूकोज़ बिस्कुटों का पैकेट। जब आर्थिक विशेषज्ञ उपभोग में आई इस गिरावट पर आश्चर्य व्यक्त करते हैं (रिज़र्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने भी ऐसा आश्चर्य व्यक्त किया है) तो हैरत होती है। क्या ये लोग अभी तक सो रहे थे? आज अरविंद पनगढ़िया अमरीका में बैठे हुए हैं, और वहां से अ़खबारों में भारतीय अर्थव्यवस्था की मंदी पर उपदेशात्मक लेख लिख रहे हैं। क्या एनआईटीआई आयोग (इस संस्था को ़गलती से नीति आयोग कहा जाता है) के कर्ताधर्ता के रूप में इस मंदी को आते हुए देखने और सरकार को चेतावनी देने की ज़िम्मेदारी उनकी नहीं थी? अगर वे ऐसे नहीं कर पाए तो उनकी आर्थिक विशेषज्ञता किस काम की है? 
क्या भारतीय उद्योगपति अर्थव्यवस्था में अब निवेश करने की शुरुआत करेंगे? इसमें कोई शक नहीं कि सरकार ने कॉरपोरेट टैक्स में कटौती करके गेंद उनके पाले में फेंक दी है। अब निजी क्षेत्र शिकायती स्वर में बात नहीं कर सकता। उसे मंदी के िखल़ाफ कुछ न कुछ करना ही होगा। देखना यह है कि वे क्या करेंगे? जहां तक सरकार के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन की बात है, आंकड़ों को देख कर ऐसा नहीं लगता कि देश के बड़े कॉरपोरेट घराने सरकार के इस कदम से ख़ुशी के मारे दीवाने हो गए होंगे। ध्यान रहे कि निर्मला सीतारमन ने कॉरपोटरेट टैक्स की दर घटा कर 25.17 प्रतिशत कर दी है। लेकिन, सेंसेक्स में अधिसूचित कम्पनियों द्वारा दिये जाने वाले कॉरपोरेट टैक्स पर निगाह डालने से जो तथ्य पता लगते हैं, वे कुछ और कहानी कहते हैं। देश की सबसे बड़ी कम्पनी रिलाइंस केवल बीस फीसदी टैक्स ही देती है। टाटा मोटर्स से तो सोलह फीसदी से कम टैक्स मिलता है। एचसीएल टेक्नालॉजी ने 17.6 प्रतिशत टैक्स दिया है। खास बात यह है कि सूचना प्रौद्योगिकी से जुड़ी सभी फर्में पच्चीस फीसदी से कम टैक्स देती हैं, क्योंकि उन्हें पहले से ही कर संबंधी रियायतें मिली हुई हैं। दरअसल, कॉरपोरेट टैक्स की गणना जिस प्रकार की जाती है, उसके तहत कई बड़ी कम्पनियां ऐसी हैं जो इस रियायत से विशेष प्रभावित नहीं होने वाली हैं। ज़ाहिर है कि वे निवेश बढ़ा कर सरकार की इस ‘कृपा’ का प्रतिदान नहीं देंगी। फिर ऐसा कौन-सा काम है जिसके कारण ये कम्पनियां निवेश बढ़ा सकती हैं? इसके लिए हमें मंदी के बुनियादी कारणों पर गौर करना होगा। सरकार के एक समर्थक आर्थिक विशेषज्ञ ने स्वीकार किया है कि मंदी की जड़ गैर-बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों (जिन्हें शैडो बैंक भी कहा जाता है) के संकट में निहित है। ये कम्पनियां पूंजी की कमी की शिकार हैं। चूंकि पहले से निवेश न के बराबर ही था, इसलिए इन कम्पनियों के संकट ने उपभोक्ताओं को दिये जाने वाले कर्ज़ों को सुखा दिया। दूसरी तऱफ नॉन पऱफॉर्मिंग एसेट्स (एनपीए) को कम करने के सरकार-प्रेरित आग्रह के कारण बैंकों ने अधिसंरचना और भारी उद्योगों को कज़र् देना बंद कर दिया। इससे एनपीए का प्रतिशत तो कम होता हुआ दिखाई दिया, लेकिन इससे बाज़ार में कज़र् की उपलब्धता पर नकारात्मक असर पड़ा।  कॉरपोरेट टैक्स घटाने की इस परिस्थिति को सुधारने में शायद ही कोई भूमिका हो। टैक्स कटौती से कम्पनियों का मुऩाफा बढ़ेगा। उनके शेयर-मूल्यों में बढ़ोतरी होगी। इससे निवेशक स्टॉक एक्सचेंज में आएंगे। पर क्या उससे उत्पादन बढ़ेगा? क्या इससे मांग बढ़ेगी? अल्पकालीन अवधि में तो ऐसा होता नहीं दिखाई देता। मांग की समस्या उस समय भी थी जब सरकार पांच ट्रिलियन की इकॉनॉमी बनाने का सपना दिखा रही थी। निजी क्षेत्र का सवाल था कि जब उसकी मौजूदा फैक्टरियां ही पूरी क्षमता से उत्पादन नहीं कर पा रही हैं, और किये हुए उत्पादन से उसके भंडार भरे पड़े हैं (यानी वह बिक नहीं रहा है) तो वे नयी निर्माण-क्षमता क्यों और कैसे स्थापित करें? ध्यान रहे कि मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों में रियल एस्टेट सेक्टर (भवन-निर्माण उद्योग) का कई साल से भट्ठा बैठा हुआ है। सरकार ने इसे उठाने के लिए अब जा कर एक ‘बूस्टर’ घोषित किया है। सरकार को यह सब करने के लिए मंदी की दस्तक सुनने की क्या ज़रूरत थी? 
पांच खरब की अर्थव्यवस्था बनाने के लिए प्रति वर्ष तेरह-चौदह फीसदी की वृद्धि दर चाहिए। इस समय तो सरकारी आंकड़े केवल पांच फीसदी की वृद्धि दर ही बता रहे हैं, जो वास्तविक अर्थों में साढ़े तीन फीसदी की ही है। सीतारमन की रियायतों के कारण कई लोग यह सपना दिखा रहे हैं कि अब भारत में विदेश कम्पनियां चीन को छोड़ कर आ जाएंगी (क्योंकि नयी कम्पनियों का टैक्स रेट 15 फीसदी कर दिया गया है)। इन लोगों को पता होना चाहिए कि विदेशी पूंजी किसी भी अर्थव्यवस्था की चालक शक्ति नहीं बन सकती। असली पहकदमी तो देशी पूंजी को ही लेनी होगी।