लोकसभा चुनाव में क्यों नहीं बन पा रहा चुनावी माहौल ?  

लोकसभा चुनाव के प्रथम चरण का मतदान सम्पन्न हो चुका है। मतदान कम हुआ, इसने सबकी चिंता बढ़ा दी है। बूथ प्रबंधन का कौशल जिन राष्ट्रीय और क्षेत्र विशेष की पार्टियों के पास है, उन्हें ज्यादा से ज्यादा लोगों को बूथ तक खींच कर लाना था। इसी प्रकार जो जहां से जीते थे, उन्हें वहां से अपनी जीत के आंकड़े को बढ़ाना ही था, फिर क्या हुआ जो ऐसा नहीं हो सका? यह एक ऐसी पहेली बनकर उभरी है जिसको सब अपने-अपने निहित दृष्टिकोण से देख रहे हैं। सोशल मीडिया ऐसी पोस्टों से भरा पड़ा है जहां यह राज बताया जा रहा है कि कम मतदान का मतलब सत्ता के हित में नहीं है। जो सत्ता में हैं, वे कह रहे हैं कि विपक्ष का मनोबल इतना टूटा हुआ है कि वह अपने वोटरों को बूथ तक नहीं ला पाया। भाजपा तो एक तर्क यह भी दे रही है कि जातियों में बंटी भारतीय राजनीति में बूथ पर मात्र वे लोग आ रहे हैं जो सरकार की फिर वापसी चाहते हैं। उधर विपक्ष यह कह रहा है कि यह बिल्कुल गलत है, ऐसा नहीं है। 
पिछले एक दशक में मतदाता की तीन पहचान बनी हैं। पहली यह कि वह किस जाति समूह या वर्ग से है। दूसरी पहचान उसकी सामाजिक और आर्थिक पहचान है। उसकी तीसरी पहचान लाभार्थी की भी है। किसी भी मतदान के पहले किस पहचान ने बड़ा रोल अदा किया है और किस पहचान का संकट मतदाता के सामने हो सकता है, उसके हिसाब से ही वह वोट डालता है। तीन पहचान में से कौन सी पहचान को राजनीतिक दल वोटर पर हावी करवा पाए हैं, वोट उसके हिसाब से ही डाले गये हैं, यह तो निश्चित है। 
कम मतदान की पहेली का एक मतलब यह भी निकाला जा सकता है कि मतदाता में मतदान के प्रति कोई उत्साह नहीं है क्योंकि उसको ये लगता है कि उसके वोट से कोई फर्क नहीं पढ़ने वाला है। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि वह एक निश्चित परिणाम को लेकर पहले से ही आश्वस्त हो। विपक्ष इस बात को हवा दे रहा है कि जब सत्ताधारी दल का कार्यकर्ता जनता को बूथ पर लाने में फेल होता है तो इसका मतलब है कि कुछ गड़बड़ है। कुछ निर्वाचन विशेषज्ञ कह रहे हैं कि मामला उतना सरल नहीं है। एक तो मौसम की मार और ऊपर से यह एक ऐसा राजनीतिक युद्ध है जिसका परिणाम सबको पहले से पता है। इसलिए ऐसे इकतरफा मैच में कोई उत्साह नहीं होना सामान्य बात है। 
अगर पिछले दो चुनाव पर चर्चा करें जिनमें मतदान औसत लगभग 66.67 प्रतिशत रहा है, इस सरलता में भाजपा कार्यकर्ताओं की बड़ी भूमिका थी। मतदाताओं को मतदान पर्ची भेजने का काम वक्त पर पूरा किया गया था। रैलियों की सफलता के लिए भी जी जान से जुटा। इस बार के चुनाव में अधिकांश जगहों पर पर्ची तक सही ढंग से नहीं पहुंची, तो क्या कार्यकर्ताओं की वजह से वोटिंग कम हुयी? कम वोटिंग ने आने वाले चरणों के लिए चुनौती पेश की है। बंगाल, बिहार और महाराष्ट्र को छोड़कर कहीं भी विपक्ष चुनौती की स्थिति में ही नहीं है। उत्तर प्रदेश में तो सपा ने तय कर लिया है कि वह केवल 16 सीटों पर ही गंभीरता से चुनाव लड़ेगी। शेष 64 सीटों पर पहले से सपा और कांग्रेस के पीडीए गठबंधन ने वॉक ओवर दे रखा है। वाकओवर की सीटों पर तो चुनाव गरम हो ही नहीं सकता। चुनाव में गर्मी तब आती है जब जनता सत्ता में परिवर्तन चाहती है, किसी की सत्ता को उखाड़ फैंकना हो या किसी दल विशेष को लाना हो।
चुनाव में गर्मी मुद्दों पर भी आती है मगर इस चुनाव में विपक्ष के पास किसी बड़े मुद्दे का अभाव है। विपक्ष चार पिटे हुए मुद्दों को ही दोहरा कर रस्म पूरी कर रहा है। पहला-मणिपुर, जिसका बाकी देश के चुनाव से कोई लेना देना ही नहीं है। दूसरा जाति जनगणना, जो कर्नाटक और बिहार में हो चुका है और बुरी तरह फ्लाप हो चुका है। तीसरा महंगाई, जोकि है नहीं। महंगाई मुद्दा बनने लायक इस देश में केवल दो बार स्थिति आई है। पहली बार अटल सरकार में परमाणु परीक्षण के तुरंत बाद जब अमरीका ने भारत के खिलाफ अचानक आर्थिक प्रतिबंध लागू कर दिए थे और दूसरा सब्ज़ियों और पेट्रोलियम उत्पादों पर मनमोहन सरकार के 2012-2013 सत्र में। जितना आय बढ़े, उसी अनुपात में अगर उत्पादों के दाम बढ़ते हैं तो लोग उसे महंगाई नहीं मानते, वह सामान्य रूप से समय के साथ मुद्रा का अवमूल्यन है जो एक निर्धारित प्रक्रिया मात्र है। चौथी बेरोज़गारी जोकि मानव चरित्र के कारण सदैव बनी रहती ही है। कारण यह कि रोज़गार मनुष्य को स्वयं करना पड़ता है, सरकार रोज़गार नहीं देती, मनुष्य स्वयं से करता है। सरकार का काम केवल रोज़गार के लायक अवसर प्रदान करना होता है जोकि फिलहाल पिछली सरकारों के कार्यकालों से अच्छा है।
सबको मकान, सबको इलाज, सबको शौचालय, सबको गैस सिलैंडर, सबको नल का जल, सबको बैंक खाता, सबको खाद्यान्न सुरक्षा, सबको बिजली, सबको सड़क, सबको इंटरनेट, सबको रोज़गार के लिए लोन ऐसे मुद्दे हैं जो व्यक्ति के जीवन में परिवर्तन लाने में आयाम बने हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा, आतंकवाद से मुक्ति, दुनिया में भारत की स्थिति में क्रांतिकारी उछाल, राम मंदिर निर्माण, धारा 370 की समाप्ति, तीन तलाक से मुक्ति, माफियाराज से मुक्ति, दंगाराज से मुक्ति आदि ऐसे विषय हैं। जो भाजपा सरकार को और सरकारों से श्रेष्ठ बनाते हैं।   फिलहाल तो विपक्ष के पास कोई विशेष मुद्दा नहीं है, उसके पास फिलहाल एक हथियार है और वह है जातिगत समन्वय। यह राष्ट्रीय चुनाव है, वोट भी राष्ट्रीय मुद्दों पर ही जाएगा।