सत्संग और कीर्तन, भजन, प्रार्थना, अरदास

पाठ्यक्र म की सीमा है लेकिन प्रश्न अनन्त हैं। अनेक बार ऐसे प्रश्न भी सामने आते हैं जो हमें कुछ सिखाते हैं। पिछले दिनों से जारी अध्यात्म की चर्चा के दौरान एक छात्र ने पूछा, ‘यूं तो सत्संग और कीर्तन स्वयं को परमात्मा से जोड़ने के माध्यम हैं। आखिर इन दोनों में अंतर क्या है?’ प्रश्न महत्त्वपूर्ण है।  प्रश्नकर्ता दोनों के महत्त्व को समझता है। हम जानते हैं कि अपने आध्यात्मिक विकास के लिए ज्ञान, कर्म और भक्ति में से अपनी सुविधा, अपने बौद्धिक स्तर और उपलब्धता के आधार पर अपना मार्ग चुनते हैं। सत्संग सत्य का संग है। हो सकता है ज्ञान का यह मार्ग बहुत आकर्षक न हो। यह भी संभव है कि इसमें बहुत रुचिकर शब्द न हों। इन्कार तो इस बात से भी नहीं किया जा सकता कि सत्संग में शब्द ही न हों। ऐसे में अनेक लोगों के लिए सत्य का संग अर्थात् सत्संग आसमान की चिड़िया हो तो कोई आश्चर्य न होगा।  
भक्ति और एकाग्रता के लिए भजन, कीर्तन, प्रार्थना, अरदास और स्मरण का आश्रय लिया जाता है।  जैसाकि आरंभ में ही कहा जा चुका है सत्संग के शब्द खुरदुरे और क्लिष्ट भी हो सकते है परंतु कीर्तन, भजन  परमात्मा के गुणों का लयबद्ध गायन है। शास्त्रीय रागों में रची श्री गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी हो या वैदिक मंत्रों का उच्चारण, ‘हरे कृष्णा हरे रामा’ हो या ‘ओम जय जगदीश हरे’, ‘रामधुन हो या इसी प्रकार का कुछ’ हृदय को तरंगित करता है। हमें मंत्रमुग्ध कर कम से कम उस क्षण सांसारिक दुखों, तनावों, बंधनों से मुक्त करते हैं। अवसाद से मुक्त कर हमारे हृदय में जोश का संचार करते हैं। मन को आत्मिक बल और सुकून प्रदान करते हैं। यदि हम सच्चे मन से कीर्तन से जुड़ते हैं तो उस क्षण हमें देहाभिमान तो दूर, देह का अहसास तक नहीं रहता। एक अलग प्रकार के आनंद को महसूस करते हैं।  कीर्तन, भजन, प्रार्थना, अरदास मंदिर से गुरुद्वारे तक, घर आंगन से धरती के किसी कोने तक, कहीं भी किया जा सकता है। आजकल विशाल पण्डाल लगाकर जागरण, संकीर्तन, भजन संध्या की परम्परा आरंभ हो गई है। हाई वोल्टेज संगीत वाद्यों और ध्वनि विस्तारकों के सहयोग से न केवल उस पण्डाल में उपस्थित श्रद्धालुओं बल्कि पूरे नगर-गांव को उसे सुनने के लिए बाध्य किया जाता है लेकिन कीर्तन का अर्थ है सामान्य संगीत। वह केवल ताली भी हो सकती है, संग हमारे हृदय की तरंगों की जुगलबंदी। हाई वोल्टेज संगीत में ऐसा कितना संभव है, सभी जानते हैं।  उस पर अपनी प्रार्थना, अपनी अरदास, अपने भजन को फिल्मी गीतों की धुन में ढालने का अर्थ है अपने ध्यान को परमात्मा से हटाकर उस गीत के दृश्य की ओर ले जाना। इससे हमारा मन ईश्वर की बजाय अन्यत्र भटकने लगता है। शायद इसी कारण सिख परम्परा में गुरुवाणी को केवल निश्चित रागों में ही गाने की परम्परा है। गुरुवाणी को इकतीस रागों में सारंगी, सितार, रबाब, हारमोनियम, तबला जैसे परंपरागत और प्राचीन वाद्ययंत्रों के माध्यम से ही गाया जाता है। खास बात यह कि गुरु नानकदेव जी से  दशमेश पिता गुरु गोविंदसिंह जी तक सभी ने आध्यात्मिक विचारों के प्रचार एवं प्रसार के लिए कीर्तन को माध्यम बनाया। इसके प्रति अटूट श्रद्धा तथा लगाव का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि गुरु गोविन्द सिंह जी महाराज ने साधारण काल में ही नहीं, युद्धकाल में भी कीर्तन की परम्परा को भंग नहीं होने दिया। आनंदपुर का किला छोड़ कर जाने से पूर्व जब उन्होंने पाया कि आसा दी वार (पौ फटने से पूर्व होने वाला कीर्तन) का समय हो चुका है तो कीर्तन श्रवण की परम्परा का सम्मान करने के बाद ही उन्होंने कूच किया। मीरा, नानक, कबीर, सूर, रैदास, तुलसी सभी प्रभुनाम प्रेम संकीर्तन के पक्षधर हैं। इसीलिए तो  भारतीय संस्कृति में जन्म से अंतिम श्वास तक प्रभु प्रार्थना का महत्त्व है। कहा जाता है कि अंतिम समय पूरे जीवन में जाने अनजाने किये हमारे पापकर्म हमारे सामने चलचित्र की तरह उपस्थित होकर हमें यातना देते है। शरीर छोड़ने से पूर्व  अपने इष्ट का स्मरण, गीता का अठारहवां अध्याय सुनना, वेद मंत्रों की लयबद्ध ध्वनि सुनने से हमारा मन-मस्तिष्क उस कष्ट से बच जाता है जो अंतिम समय हो सकता है। केवल अंतिम समय ही नहीं, हम जब भी कीर्तन से जुड़ते हैं,  मन-मस्तिष्क पाप से दूर हो जाता है। 

—डा. विनोद बब्बर

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