ऐतिहासिक फैसला

अयोध्या में बाबरी मस्जिद और राम मंदिर के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुनाये गये फैसले के बारे में जहां एक वर्ग विशेष में संतुष्टि का एहसास हुआ है, वहीं दूसरा वर्ग चाहे इस फैसले पर किन्तु-परन्तु कर रहा हो, परन्तु इसके साथ देश भर में एक सांझी भावना यह बनी है कि लगभग डेढ़ सौ वर्ष पुराने इस न्यायिक विवाद का निपटारा होना ही चाहिए। जब म़ुगल बादशाह बाबर के आदेश से लगभग 400 वर्ष पहले अयोध्या में यह मस्जिद बनाई गई थी, उसके बाद इस संबंध में यह चर्चा अवश्य चलती रही थी कि यहां भगवान राम का जन्म हुआ था। चाहे इसका कोई ऐतिहासिक दस्तावेज़ तो नहीं है, परन्तु ऐसा सदियों से श्रद्धालुओं का विश्वास ही बना रहा था। इसलिए वे सैकड़ों वर्षों तक मस्जिद के बाहरी हिस्से में ही अराधना करते चले आ रहे थे, परन्तु 1885 में ब्रिटिश शासन के समय यह मामला अदालतों में चला गया और उसके बाद 1949 में मस्जिद में भगवान राम की मूर्तियां रख दी गईं और 6 दिसम्बर, 1992 को राम भक्तों द्वारा मस्जिद के ढांचे को गिरा दिया गया, जिससे देश भर में साम्प्रदायिक दंगे हुए, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गये थे। बाबरी मस्जिद को गिराने के कारण ही मुम्बई में वर्ष 1993 में हुए बम विस्फोटों को इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप ही देखा जाता रहा है। ब्रिटिश शासन के बाद भारत को एक धर्म-निरपेक्ष देश घोषित किया गया। इसके संविधान का निर्माण भी इन भावनाओं के अधीन हुआ, जहां कानून का शासन ही प्रमुख माना गया है। इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय ने मस्जिद को गिराना कानून के अनुसार एक अपराध माना है, परन्तु इसके साथ ही विवाद का निपटारा करने के लिए सैकड़ों वर्षों से भावुकता और विश्वास से जुड़े इस मामले के हल के लिए विवादास्पद 2.77 एकड़ भूमि पर मंदिर का निर्माण करने की अनुमति दे दी गई है और सरकार को यह निर्देश दिया गया है कि वह सुन्नी वक्फ बोर्ड को 5 एकड़ भूमि दे, जहां मस्जिद का निर्माण किया जा सके। यह स्वाभाविक है कि इस फैसले से सभी पक्षों की संतुष्टि नहीं हो सकती, इसलिए वर्ष 2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिये गये एक फैसले के संबंध में दर्जन से अधिक अपीलें सर्वोच्च न्यायालय में की गई थीं, परन्तु गत दशकों के दौरान इस तरह का माहौल बनाया गया है कि संतुष्टि न होने के बावजूद इस फैसले की कड़ी प्रतिक्रिया नहीं हुई है, क्योंकि इस संबंध में पहले ही मानसिक तौर पर देश- वासियों को तैयार करने का प्रयास किया गया था कि जो भी फैसला सर्वोच्च न्यायालय देगा, उसको माना जाना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस फैसले के एक दिन पूर्व यह कहा था कि समाज के सभी वर्गों ने, सामाजिक और सांस्कृतिक संगठनों ने गत समय के दौरान जिस तरह सौहार्दपूर्ण और सकारात्मक माहौल पैदा करने के प्रयास किये हैं, वे स्वागत योग्य हैं और अदालत के फैसले के बाद भी ऐसा माहौल बनाया जाना आवश्यक है। उन्होंने यह भी कहा था कि जो भी फैसला आएगा, वह किसी की हार-जीत नहीं होगी। उन्होंने देशवासियों से अपील की थी कि यह फैसला देश की शांति, एकता और सद्भावना की परम्पराओं को मज़बूत करने में ही सहायक होना चाहिए। चाहे इस फैसले को एकपक्षीय ही समझा जा रहा हो, परन्तु इस फैसले से यह भावना अवश्य मज़बूत हुई है कि भविष्य में किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाने और कानून अपने हाथों में लेने की शीघ्र कहीं कोई हिम्मत नहीं कर सकेगा। देश की खुशहाली और इसकी एकता बनाये रखने के लिए इस फैसले को मानना ही समय की बड़ी ज़रूरत होगी, क्योंकि ऐसे विवादों के अलावा देश के समक्ष अन्य भी कई ऐसी अहम समस्याएं हैं, जो सरकार और समाज का ध्यान मांगती हैं। इनमें गरीबी और बेरोज़गारी पर काबू पाना और देश को खुशहाल पथ पर चलाना ही सभी की प्राथमिकता होनी चाहिए।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द