भारतीय धर्म-निरपेक्षता की धार्मिक ज़िम्मेदारियां

अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आज़ादी के बाद हुई उस बहस की याद दिला देता है जिसके केंद्र में सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार था। इस बहस में एक ओर जवाहरलाल नेहरू थे, और दूसरी ओर सरदार वल्लभभाई पटेल, राजेंद्र प्रसाद और के.एम. मुंशी जैसी हस्तियां थीं। प्रश्न यह था कि क्या स्वयं को सेकुलर कहने वाली सरकार को मंदिर बनवाने का काम हाथ में लेना चाहिए। ध्यान रहे कि इस सवाल पर महात्मा गांधी की राय नेहरू जैसी ही थी। वे मंदिर के जीर्णोद्धार के पक्ष में तो थे, लेकिन चाहते थे कि यह काम सरकारी पैसे और बंदोबस्त के ज़रिये न हो कर निजी कोष और निजी हाथों द्वारा हो। कुल मिलाकर नेहरू की आपत्तियों के बावजूद इस बहस में पटेल, प्रसाद और मुंशी की जीत हुई। भारत सरकार ने ही सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। इस घटना के बाद सातवें दशक में एक बार फिर एक मंदिर बनवाने का काम भारत सरकार को दिया गया है। इस बार यह आदेश सुप्रीम कोर्ट का है। सोमनाथ मंदिर की ही भांति सरकार ट्रस्ट बनाएगी, और फिर उसी के प्रबंधन में मंदिर का निर्माण होगा। आज हम कह सकते हैं कि सोमनाथ वाली बहस का जो फैसला हुआ था, उसके कारण भारतीय सेकुलरवाद के बुनियादी किरदार को एक ़खास रुझान मिल गया था। यहां नेहरू के रवैये में मौजूद एक अंतर्विरोध भी हमें नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए। उन्हीं के नेतृत्व में भारतीय राज्य ने अंग्रेज़ों की उस विरासत को अपने कंधों पर ढोना शुरू कर दिया था जिसके मुताबिक देश के हिंदू मंदिरों का प्रबंधन करने की ज़िम्मेदारी भी उसी की है। बजाय इसके कि सेकुलर उसूल के मुताब़िक धर्म को राज्य से दूर रखा जाए, भारतीय राज्य और हिंदुओं की धार्मिक गतिविधियों के बीच एक संस्थागत मिला-भेंटी है। यहां मानना होगा कि भारतीय राज्य दूसरे धर्मों की गतिविधियों को भी प्रोत्साहन देता है। इसका एक उदाहरण हज को दी जाने वाली सब्सिडी के रूप में देखा जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गए इस दायित्व को निभाने के बाद भारतीय राज्य का सेकुलरवाद पक्के तौर पर एक ‘धार्मिक सेकुलरवाद’ बन जाएगा। यह है सेकुलरवाद का विशिष्ट भारतीय संस्करण।  इस फैसले पर सरकारी पक्ष, मीडिया और विपक्षी दलों की एक ही टेक सुनाई दे रही है- सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सम्मानपूर्वक स्वीकार करके आगे बढ़ा जाना चाहिए, क्योंकि इसमें न किसी की हार हुई है और न ही किसी की जीत। कांग्रेस के कानूनी दिम़ाग कहे जाने वाले अभिषेक मनु सिंघवी ने तो यह तक लिख दिया है कि इससे अच्छा फैसला तो दिया ही नहीं जा सकता था। संभवत: सार्वजनिक जीवन से उठने वाली पचानवे फीसदी से भी ज़्यादा आवाज़ें अपने-अपने तरीके से यही बात कह रही हैं। यहां तक कि पराजित होने वाले वादी भी मोटे तौर पर यही कहते नज़र आ रहे हैं। एक समीक्षक के तौर पर मेरे लिए यह दिखाना रोचक होगा कि कोर्ट के फैसले के प्रति ऐसी प्रतिक्रियाओं की पृष्ठभूमि क्या है, और अगर फैसला कुछ और आता तो क्या ऐसी ही प्रतिक्रियाएं होतीं। अयोध्या का मसला निश्चित रूप से एक राजनीतिक मसला था जिसके कारण बने सामाजिक माहौल के कारण 1984 में महज दो सीटों वाली भाजपा पहले एक गठजोड़ का नेतृत्व करते हुए छह साल के लिए सत्ता में रही, और फिर सीधे-सीधे उसकी वज़ह से तो नहीं लेकिन उसके सहयोग से बने बहुसंख्यकवादी हिंदू मानस के कारण यह पार्टी पिछले छह साल से अपने अकेले बहुमत की सरकार चला रही है। ज़ाहिर है कि मसले की राजनीतिक संरचना के कारण स्वयं को सेकुलर कहने वाले राजनीतिक दलों को कम से कम कानूनी दृष्टि से तो इस फैसले पर सवालिया निशान लगाना ही चाहिए था। यहां खास बात यह नहीं है कि उन्होंने ऐसा नहीं किया। ़खास बात यह है कि सभी को पता था कि वे ऐसा कुछ नहीं करेंगे। इसका मुख्य कारण यह है कि अयोध्या के प्रश्न पर होने वाली राजनीति में भाजपा के साथ प्रतियोगिता करने वाली दो प्रमुख पार्टियां कांग्रेस और समाजवादी पार्टी पहले ही मैदान छोड़ चुकी थीं। समाजवादी पार्टी ने तो लम्बे अरसे से इस सवाल पर कोई वक्तव्य तक नहीं दिया था, और हाल-फिलहाल कांग्रेस की मुख्य दिलचस्पी गांधी परिवार के लोगों को मिलने वाली सुरक्षा के सवाल पर सरकार से संघर्ष करने की थी। दूसरे, मुसलमान वोटरों को अपनी राजनीति का अहम घटक मानने वाले दलों को पिछले छह साल में दिख गया है कि भाजपा ने 45 से 50  फीसदी हिंदू वोटरों की बार-बार गोलबंदी करके मुसलमान वोटों की प्रभावकारिता को समाप्त कर दिया है। ज़ाहिर है कि अयोध्या के मुद्दे पर संघर्ष करने का उन्हें कोई राजनीतिक लाभ नहीं दिख रहा था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक राजनीतिक दूरंदेशी के कारण भी विपक्ष कुछ करने में असमर्थ रहा। पिछले साल चुनाव से ठीक पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने मोदी की बढ़ती हुई राजनीतिक स्वायत्तता के पर कतरने के लिए मंदिर बनवाने हेतु संसद से कानून पारित करने का दबाव बनाना शुरू किया था। अब यह भेद खुल चुका है कि सरसंघचालक मोहन भागवत ने और फिर भैयाजी जोशी ने अपने भाषणों में यह मांग भाजपा के नेतृत्व से बातचीत किये बिना ही उठा दी थी। उन्हें यकीन था कि भाजपा की सरकार संघ के इस आग्रह से इन्कार नहीं कर पाएगी, और इस प्रकार वह अपने ही द्वारा जन्म दी गई पार्टी को और ज़्यादा अपने नियंत्रण में ले पाएगा। लेकिन, मोदी ने इस प्रश्न पर झुकने से इन्कार कर दिया। पहले तो वे कुछ दिन तक चुप बैठे रहे, और संघ की पहलकदमी पर रामलीला मैदान को भर दिया गया। नब्बे के दशक की भांति भगवा वस्त्र धारियों को सड़कों पर उतारने की तैयारियां की जाने लगीं। लेकिन, एक जनवरी को अपने एक टीवी इंटरव्यू में मोदी ने स़ाफ इन्कार कर दिया। उन्होंने जो कहा उसका मतलब यह था कि जो मामला अदालत में विचारधीन है, उसे वे कानून बना कर या अध्यादेश ला कर अपने पाले में गेंद खेलने के लिए तैयार नहीं हैं। मोदी का यह रणनीतिक इनकार आज रंग लाया है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने तमाम तर्कों के साथ वही फैसला दिया जो हिंदुत्ववादी शक्तियों को चाहिए था। अगर यही काम संसद द्वारा किया जाता, तो विपक्ष को इस मसले पर अपनी गोलबंदी करने का ज़बरदस्त मौका मिलता। अब अदालती फैसले के कारण भी विपक्ष ठंडा रहने के लिए मजबूर है। अगर कोर्ट ने बिना किसी हिचक के विवादित स्थल हिंदू पक्ष को न दे दिया होता, और कुछ किंतु-परंतु जैसा रवैया अपनाया होता, तो क्या होता? क्या उस समय भी ‘यह न किसी की जीत है, न किसी की हार है’ वाला फिकरा हवाओं में गूंज रहा होता? हम सब जानते हैं कि तब क्या हो रहा होता। धर्म संसद बैठ रही होती, अदालत में फैसले की समीक्षा करने की याचिकाएं डाली जा रही होतीं, राजनीति गरमाई जा रही होती, जनांदोलन की तैयारी हो रही होती और मोदी सरकार पर दबाव डाला जा रहा होता कि वह अब अपने बहुमत का इस्तेमाल मंदिर के लिए कानून बनाने में करे। इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि फैसला कानून की दृष्टि से कैसा भी हो, उसने देश की राजनीति को नब्बे के दशक में जाने से ज़रूर बचा लिया है।