अंतरात्मा का द्वार है ध्यान

ध्यान एक विशुद्ध मानसिक क्रिया है जिसके अंतर्गत किसी पदार्थ की स्थापना अपने मानसिक क्षेत्र में की जाती है। हमारा मन इसी अवस्था के आसपास घूमता रहता है और हमारे मस्तिष्क की ज्यादातर चेतनाएं इसकी ओर स्वत: आकर्षित होने लगती हैं। इसके फलस्वरूप एक बिन्दु पर इनका केन्द्रीयकरण होने लगता है। इस प्रकार ध्यान हमारी बिखरी हुई मानसिक शक्तियों को अपने में समाहित कर लेता है। ध्यान स्वयं को जानने, समझने एवं परखने की महान विधि है। इस क्रिया द्वारा ही हम जीवन का विकास कर सकते हैं तथा आंतरिक दिव्य विभूतियों को भी प्राप्त कर सकते हैं। ध्यान क्रिया प्रारम्भ करने से पहले अपने इष्ट का चयन करना आवश्यक है। इष्ट का चयन कर उसकी उपासना एवं आराधना कर हम अपनी मानसिक चेतना को जागृत करते हैं। जब मानसिक शक्ति जागृत हो जाती है तो एकाग्रता बढ़ती है और सभी मानसिक शक्तियां केन्द्रित हो जाती हैं। इससे साधक के गुण, कार्य, विचार, उपाय अद्भुत रूप से बढ़ते हैं जो उसे उसके अभीष्ट लक्ष्य तक सरलतापूर्वक शीघ्र ही पहुंचा देते हैं। इसे ही इष्ट की सिद्धि कहते हैं। ध्यान क्रिया एक गंभीर अवस्था है। इसमें ध्याता, ध्येय तथा ध्यान, तीनों एक हो जाते हैं। यह क्रिया ध्यान का आध्यात्मिक स्वरूप है। विज्ञान की पहुंच इस अवस्था को स्पष्ट नहीं कर सकी है। ध्यान द्वारा प्राप्त सूक्ष्म चेतना साधक में गहरा परिवर्तन लाती है। इस परिवर्तन का प्रभाव साधक के मन और शरीर में निश्चित रूप से होता है। अक्सर देखा गया है कि तनाव के दौरान चयापचय क्रियाओं के बढ़ने से हृदय की धड़कनें तेज हो जाती हैं, अत: रक्तचाप में भी वृद्धि हो जाती है। ध्यान क्रिया से चयापचय की दर घट जाती है व मानसिक अवस्था शांत एवं स्थिर हो जाती है। इस क्रिया से हारमोन का स्तर बढ़ जाता है और साधक चिर युवा बनने में सक्षम होता है, क्योंकि इसके प्रभाव से आयु की समस्या समाप्त होती दिखती है। ध्यान करने वाले साधक के विचार मौलिक एवं व्यावहारिक होते हैं। यह क्रिया सरल एवं प्रतिबंध रहित है। सामान्य रूप से ध्यान  करने के लिए किन्हीं नियम विधान की आवश्यकता नहीं है।