नफरत भरे भाषणों के खिलाफ विफल रहा चुनाव आयोग


दिल्ली भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष मनोज तिवारी ने एक अंग्रेज़ी के अ़खबार से बात करते हुए बड़ी मासूमियत से कहा है कि जो भी ‘हेट स्पीच’ देता है, उसकी संवैधानिकता ़खारिज कर देनी चाहिए। सवाल यह है कि जिस समय चुनावी मुहिम के दौरान केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर और गिरिराज सिंह के साथ-साथ भाजपा के सांसद प्रवेश वर्मा ‘हेट स्पीच’ देने के रिकॉर्ड तोड़े दे रहे थे, उस समय तिवारी जी महाराज कहां थे? क्या उस समय उनके मन में यह गुदगुदी नहीं हो रही थी कि इस तरह की ‘हेट स्पीच’ से उनकी पार्टी के वोट बढ़ रहे हैं। मुश्किल यह है कि भाजपा के नेता इस तरह पाखंड करते हैं, और मीडिया उन्हें यह करने की गुंजाइश प्रदान करता है। उनसे नहीं पूछा जाता कि अपराध हो चुकने के बाद उसके खिलाफ बोलने से क्या फायदा है, जब अपराध होते समय उसे रोकने की क्षमता का इस्तेमाल ही नहीं किया गया। इन केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों के खिल़ाफ पुलिस में रिपोर्ट क्यों नहीं दर्ज की जानी चाहिए थी? 
भाजपा के प्रवक्तागण खुल कर हिंदू होने के नाम पर वोट मांग रहे थे। उन्हें रोकने के लिए चुनाव आयोग ने क्या किया? चुनाव मुहिम के आखिरी दौर में भाजपा के प्रचारक तो गंगाजल की थैलियां लिए हुए घूम रहे थे ताकि वोटरों से उन पर हाथ रख कर हिंदू होने के नाते भाजपा को वोट देने की कसम खिलवाई जा सके। चुनाव आयोग ने ‘हेट स्पीच’ देने वालों पर चौबीस या अड़तालीस घंटे की प्रचार-पाबंदी लगा कर सिर्फ ज़ुबानी जमा-़खर्च किया। क्या ऐसे ‘जनप्रतिनिधियों’ के खिल़ाफ आयोग को अदालत में नहीं जाना चाहिए था? या, लोकसभा अध्यक्ष से इनकी शिकायत नहीं की जानी चाहिए थी, ताकि इनकी अलोकतांत्रिक हरकतें बाकायदा रिकॉर्ड पर दर्ज हो सकतीं, और चुनाव के बाद लोकसभा उनकी खबर ले सकती? बहरहाल, जो काम आयोग नहीं कर पाया, उसे दिल्ली की जनता ने कर दिखाया। उसने साम्प्रदायिक राजनीति को करारा जवाब दिया। साथ ही, विधानसभा के चुनाव नतीजों ने यह भी दिखाया कि राजनीति में जो नैतिक रूप से अनुचित होता है, वह रणनीतिक रूप से भी अलाभकारी साबित हो सकता है। मसलन, अगर भाजपा ने नये नागरिकता कानून के खिल़ाफ खड़े शाहीन बाग के आंदोलन को केंद्र बना कर ‘हिंदुस्तान बनाम पाकिस्तान’, ‘गोली मारो ...’ और ‘घर में घुस कर दुष्कर्म होगा’ के तर्ज पर घिनौना चुनाव प्रचार न किया होता कम से कम दो बातें उसके ़िखल़ाफ न जातीं। 
पहली, मुसलमान वोटों का इतना प्रबल ध्रुवीकरण आम आदमी पार्टी के पक्ष में न हुआ होता। कुछ न कुछ मुसलमान वोट कांग्रेस को ज़रूर मिलते, और नज़दीकी लड़ाई वाली कुछ सीटें भाजपा और जीत गई होती। इस प्रकार पार्टी द्वारा अपनायी गई असाधारण रूप से अनुचित साम्प्रदायिक भाषा ने चुनाव को तितरफा करने की उसी की रणनीति को नुकसान पहुँचा दिया। दूसरी, इसी घिनौने साम्प्रदायिक प्रचार का परिणाम यह हुआ कि सामान्य तबकों के वोटरों का एक बड़ा हिस्सा (जो 2015 के बाद भाजपा की तऱफ झुकने लगा था) एक बार फिर आम आदमी पार्टी की तऱफ चला गया। दरअसल, इस प्रचार के भीतर हिंसा का लावा खदबदा रहा था और कोई भी धर्म मानने वाले समझदार नागरिक की हमदर्दी आसानी से इस तरह के प्रचार के ज़रिये नहीं हासिल की जा सकती। 
कुछ भाजपा समर्थकों की दलील है कि उसने अपने वोट 32 से बढ़ा कर 39 ़फीसदी कर लिए, और अगर वह इस तरह का प्रचार न करती तो यह प्रतिशत बढ़ने की बजाय घट जाता। यह एक खोखला तर्क है। भारत में जिस चुनाव प्रणाली से निर्वाचन होता है, वह वोटों के प्रतिशत के आधार पर काम नहीं करती। इसके तहत 49 वोट मिलने वाले को कुछ नहीं मिलता, और उससे दो ज़्यादा यानी 50 वोट पाने वाला जीता घोषित कर दिया जाता है। 
इस प्रतियोगिता में सांत्वना पुरस्कार का कोई प्रावधान नहीं है। कुछ टीवी एंकर यह योजना बना रहे थे कि आम आदमी पार्टी के चुनाव जीतने (जो लगभग तय था) के साथ ही वे गृह मंत्री अमित शाह को ‘मैन ऑ़फ द मैच’ घोषित कर देंगे, क्योंकि भाजपा को कम से कम पच्चीस सीटें तो मिलेंगी ही (स्वयं अमित शाह का अनुमान था कि उन्हें चालीस से ज़्यादा सीटें मिल सकती हैं, और यह अनुमान पार्टी द्वारा रोज़ कराये जाने वाले सर्वेक्षणों पर आधारित था जिनके अनुसार उन्हें प्रति दिन अपना वोट प्रतिशत बढ़ता दिख रहा था)। लेकिन, 39 ़फीसदी वोट भी उन्हें केवल आठ सीटें जिता पाया, जिसमें एक सीट तो वह गिनती के वोटों से ही जीत पाई और एक सीट इसलिए जीती कि उस पर कांग्रेस का उम्मीदवार बीस हज़ार वोट प्राप्त करने में सफल हुआ। 
ज़ाहिर है कि इन सीटों की जीत भी बढ़े हुए वोट प्रतिशत का परिणाम नहीं मानी जा सकती। दूसरे, सीधी टक्कर में वोटों के सीटों में बदलने के लिए जितना बड़ा प्रतिशत आवश्यक होता है, वह ज़रूरत 39 ़फीसदी से पूरी नहीं हो सकती थी। उसके लिए भाजपा को कम से कम 45 ़फीसदी वोट चाहिए थे, जिन्हें हासिल करने में वह नाकाम रही। ऐसा लगता है कि भाजपा के बढ़े हुए लगभग सात ़फीसदी वोट उन ़गैर-मुसलमान वोटरों से आए होंगे जिनसे पिछली बार कांग्रेस का 9.7 प्रतिशत वोट तैयार हुआ था।  मैं पहले भी कह चुका हूं कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत की बुनियाद उसी समय रख दी गई थी जब अपने पहले बजट में इस शहर-राज्य की सरकार ने सामाजिक क्षेत्र (स्वास्थ्य, शिक्षा वगैरह) के लिए ज़बरदस्त आबंटन किए थे। एक ऐसे वक्त में जब सामाजिक क्षेत्र पर पैसा खर्च करने का नव-उदारतावादी अर्थव्यवस्था के पैरोकारों द्वारा विरोध किया जा रहा हो, इस तरह के बजट के लिए खासी हिम्मत की ज़रूरत थी। इस बजट-आबंटन के गर्भ से ही आम आदमी पार्टी का लोकोपकारी मॉडल निकला जो मोदी के लोकोपकारी मॉडल से अलग था। 
मोदी की लोकोपकारी योजनाएं जनता के जिस हिस्से को स्पर्श करती हैं, उस तरह की जनता दिल्ली में न के बराबर ही है। लगता है कि केजरीवाल ने इस अंतर को शुरू में ही समझ लिया था। उन्होंने देख लिया था कि कांग्रेस के शासनकाल में बिजली के निजीकरण के परिणामों से दिल्ली के लोग ़खासे दुखी हैं। बीस हज़ार की आमदनी वाले लोगों को दो से तीन हज़ार का बिजली बिल देना पड़ रहा था। इस मुकाम पर मिली राहत ने दिल्ली वालों को आम आदमी पार्टी के पक्ष में निर्णायक रूप से झुका दिया। दिल्ली में अगर भाजपा को अपनी किस्मत में तब्दीली लानी है तो उसे मोदी के लोकोपकारी मॉडल से अलग हट कर दिल्ली की जनता के आर्थिक किरदार को समझना होगा। यही कारण है कि जिस समय दिल्ली में भाजपा के ‘स्टार प्रचारक’ योगी आदित्यनाथ सभाओं में भाषण कर रहे थे, उस समय वोटरों के बीच उनकी आलोचना इसलिए हो रही थी कि वे उत्तर प्रदेश में अत्यंत महंगी बिजली बेच रहे हैं। 
सीएए के खिल़ाफ जब प्रदर्शन शुरू हुए थे, तो एक पोस्टर बहुत लोकप्रिय हुआ था। इसमें लिखा था- ‘हिंदू हूं, बेवक़ूफ नहीं।’ इसी बात को इस तरह भी कहा जा सकता है- ‘वोटर हूं, बेवक़ूफ नहीं।’ यह दिल्ली के मतदाताओं का भाजपा के लिए संदेश है।