राज्य के  स्रोतों का प्रयोग करके लोगों को बचाया जाए

ह म पर आई इस संकट की घड़ी के सबक के बारे में जब मैं अपने विचार कलमबद्ध करने लगा, तो सबसे पहले मेरे मन में प्रकृति द्वारा मनुष्य का अभिमान तोड़ने का विचार आया। जब मनुष्य इस ग्रह पर अपनी सर्वोच्चता का ऐलान कर चुका है, तो प्रकृति हमें हमारी औकात दिखाने के लिए सामने आ गई है। कोरोना वायरस के खिलाफ हमारी सामूहिक बेबसी मानवीय क्षमता की अनंतता के संबंध में हमारी शेखी भरी धारणा पर सवाल उठाती है। कोरोना महामारी के बारे में सबसे पहला सबक मनुष्य के प्रकृति के प्रति बुरे रवैये और हस्तक्षेप के बारे में है। यह सबक समूची मानव जाति के लिए है। 
सुरक्षा और विकास की आवश्यक शर्त होने के कारण भविष्य के बारे में अनुमान न लगा सकना और एक स्थिर समाज के प्रति अनिश्चितता होना कोविड-19 का एक और बहुत डावांडोल कर देने वाला सबक है। कोरोना वायरस के कारण विशाल स्तर पर और तेजी से पैदा हुई विश्व स्तर की गड़बड़ी वैश्विक क्रम की भूमिका पर सवाल उठाती है। वायरस हमें यह याद दिलाता है कि मानवीय परेशानी बांटी नहीं जा सकती और यह भी कि ऐसी परेशानी सभी को नष्ट करने की सीमा तक फैल सकती है, यह भी कि हम अकेले इससे बच नहीं सकते। यह भी कि ़गरीबी और शान-ओ-शौकत एक साथ नहीं रह सकते, यह भी कि न्याय और सहानुभूति किसी समाज की गुणवत्ता को परिभाषित करते हैं। अब हम यह पुन: सीख रहे हैं कि गहरी मित्रता, मानवीय स्नेह और दोस्ती अभी जीवित है, और मानवता की कड़ियों को संकट के समय मजबूती मिलती है। इससे भी अहम बात यह है कि इस सबसे बड़े ़खतरे के कारण अरदास और एकजुटता में हमारा विश्वास पुन: बहाल हो रहा है। क्योंकि एक ऐसे ़खतरे के सामने कोई भी अलग होकर नहीं खड़ा हो सकता, जो ़खतरा किसी अलगाव को न पहचानता हो। स्पष्ट तौर पर मानव जाति पर हावी होने वाली बीमारी के विरुद्ध जंग में कोई भी तमाशबीन नहीं बना सकता। 
ऐसी त्रासदी हमें स्वयं से यह सवाल पूछने के लिए मजबूर करती है कि क्या हम जी.डी.पी. के आंकड़ों के लिए लगातार अपने मन पर दबाव डाल कर छोड़ेंगे और इसके स्थान पर राष्ट्र की भरपूर खुशी की तरफ ध्यान नहीं देंगे? नि:सन्देह आर्थिक तरक्की और पदार्थवादी उन्नति का भी समृद्धि बढ़ाने में योगदान होता है, परन्तु यह मनुष्य की खुशहाली मापने वाले यंत्र नहीं हैं। अब तक के दर्ज मानवीय इतिहास में मौजूदा समय में हम अब तक की सबसे बड़ी पदार्थवादी तरक्की और युग पलटाने वाली तकनीकी तरक्की कर चुके हैं। परन्तु यह इस समय हमारे किसी काम की नहीं है। यह संकट हमें प्रेरित करता है कि  हर मज़र् की दवा वैश्विककरण को समझने के अपने तर्क सहित अपने भविष्य के रास्ते को पुन: तय करें। आर्थिक, राजनीतिक और तकनीकी क्षेत्र में असमान राज्य एक अन्तर्राष्ट्रीय संतुलन की स्थापना की ओर उठाये जाने वाले बहुद्देश्यीय कदमों को प्रभावशाली ढंग से निर्देशित नहीं कर सकता। हमें यह भी स्वीकार कर लेना चाहिए कि वैश्विककरण के भाग्य का फैसला इस बात पर होगा कि इसने विश्व के हाशिये पर खड़े लोगों के लिए क्या उपलब्धि की है? तो भी सवाल यह है कि क्या वैश्विककरण की एक जायज़ पड़ताल राज्य शक्ति की प्रक्रिया में नैतिक बंदिशों संबंधी बेरोक होकर एक बड़े आकार के राज्य के समर्थन का संकेत है? बहस के लिए शेष पड़ा एक कठिन विषय यह है कि क्या इसका परिणाम एक उदारवादी लोकतांत्रिक राज्य के मूल तत्व की सुरक्षा के लिए स्थापित कई वर्षों से उसका पालन-पोषण करती हमारी संवैधानिक संस्थाओं के खोखलेपन के तौर पर निकलेगा? जिस मुसीबत का हम सामना कर रहे हैं वह मानवीय कल्पना की एक सीमित सीमा की हमें याद दिलाती है और इस उम्मीद को रद्द करती है कि हमारी योजना के अनुसार ही आगे बढ़ेगी। 
इस मायूसी और सन्देह भरे दौर में देश के नेता के तौर पर प्रधानमंत्री की तरफ से यह उम्मीद की जाती है कि वह ‘राष्ट्रीय मिजाज़ को आह्वान करें’ इसको सही दिशा की तरफ ले जाएं, गम्भीर नीतिगत फैसलों को स्वीकार करें तथा उन पर अमल करने में अपना योगदान डालने के लिए देश के नागरिकों को प्रेरित करें। यह सब कुछ करने के लिए आवश्यक है कि छूत के प्रसार को रोकने के लिए कदम उठाये जाएं। सरकार की नीतियों को विश्वसनीय और पर्याप्त माना जा रहा है कि वह तत्काल उन लोगों तक सहायता पहुंचाएं, जो देश के विभिन्न हिस्सों में बिना वेतन, बिना भोजन और अपने घरों की भावनात्मक सुरक्षा के बिना फंसे हुए हैं। इस बात को सुनिश्चित बनाना बेहद आवश्यक है कि नीतिगत फैसलों को लागू करने की प्रक्रिया में नागरिकों के स्वाभिमान के साथ कोई खिलवाड़ न किया जाए। 
अकेले, निराश और बिना आश्रय के लोग भूख के सामने बेबस हैं और उनको पीटा जा रहा है, उनका मज़ाक बनाया जा रहा है तथा राज्य की सशस्त्र पुलिस द्वारा उनसे ज़बरदस्ती व्यर्थ कार्य करवाए जा रहे हैं। यह सब कुछ राष्ट्र की आत्मा पर एक घाव की तरह है। हां, एक राष्ट्र जो आज़ादी और शान से रहने का इच्छुक है, अपने नागरिकों को मरने के लिए नहीं छोड़ सकता और हर रोज़ ज़िन्दगी की जंग के दौरान अपने स्वाभिमान पर लगने वाली चोट को भी याद रखता है। यह एक डरावनी चुनौती है, जिससे एक संवैधानिक राज्य को निपटना पड़ रहा है। सचमुच ही ऐसा कोई भी कार्य जो हमारी सामूहिक शान को कम करता हो, वह समूचे तौर पर देश की निंदा का कारण बनता है और इसकी आत्मिक विरासत को चुरा लेता है।
यह समय नैतिक बहादुरी में लिप्त और मानवीय शान की पैरवी करने वाले नेतृत्व का समय है। भारत के प्रधानमंत्री के सामने इस समय उद्देश्य यह है कि भारतीय राज्य के स्रोतों का प्रयोग करके अपने देश के लोगों को बचाया जाए और हमारे समाज के इस बुनियादी तर्क को मान्यता दी जाए कि राज्य का अस्तित्व इसके नागरिकों के कारण है न कि नागरिकों का अस्तित्व राज्य के कारण। इस अवसर पर इस उद्देश्य को हासिल करने के लिए राष्ट्र प्रधानमंत्री के साथ है। स्पष्ट तौर पर कायाकल्प कर सकने वाली राजनीति ही इस घड़ी के प्रति उपयुक्त प्रतिक्रिया दे सकती है। हम जानते हैं कि कोई भी ऐतिहासिक विधि बीते समय की व्याख्या करने, मौजूदा समय को सम्बोधित होने और भविष्य के बारे में पहले ही बता देने जितनी क्षमता नहीं है, परन्तु हम उम्मीद कर सकते हैं कि कोविड-19 दुनिया को बेहतर बना देने में सहायक होगा और दुनिया को एक बहुत दयालु अन्तर्राष्ट्रीय क्रम की तरफ ले जाएगा, जिसमें मानव जाति की सुख-शांति और खुशी एक यूटोपियन सपने (अर्थात् आदर्श लोकतंत्र/काल्पनिक स्वर्ग) से अधिक होगी।