‘खोल दो!’

एक दिन जिस तरह एक चेहरा विहीन वायरस के भय से सब कुछ बंद करके इस भीड़ भरे देश को एक मौन सन्नाटे में धकेल दिया गया, उसी तरह अब इस सन्नाटे को तोड़ने की आवाज़ हो रही है। अंधेरा तब भी था, अभी तो शायद कुछ और गहरा हो गया। इस अंधेरे में पत्थर फेंक अंधेरा तोड़ने का आह्वान हो रहा है। ‘खोल दो, खोल दो’ माहौल एक नई चिल्लाहट से भर गया। स’आदत हसन मण्टो की अप्रतिम कहानी ‘खोल दो’ की याद आने लगी। विभाजन के इन आसुरी दिनों में एक मासूम लड़की नरपशु दंगाइयों के क्रमबद्ध दुष्कर्म की वेदना झेलती हुई अस्पताल तक चली आई। उसे अंधेरे कमरे में डाल दिया गया। डाक्टर उपचार के लिए आया। अंधेरे में कुछ न देख सकने के कारण उसने परिचारकों से कहा, ‘खिड़कियां खोल दो रोशनी आने दो।’ उत्पीड़ित लड़की के कानों में आवाज़  पड़ी। निष्प्राण बदन में जान आई। कांपते हाथों से उसने अपना इजारबंद फिर खोल दिया। डाक्टर का सिर लज्जा से झुक गया। परिचर्या स्टाफ  शर्म से गढ़ गया। 
मण्टों की कहानी की बात छोड़िये। आसुरी शक्तियों के हमले तो ऐसे ही होते हैं। कहां से आया यह संहारक और संक्रामक वायरस। देखते ही देखते इसने सारी दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले लिया। सम्पन्नता सन्न रह गई। बहुमंज़िली इमारतों के शीर्ष भय से झुक गये। संक्रमण का एक बवाल मृत्यु का पैगाम ले पूरी दुनिया में लहराने लगा। दफ्तरों से लेकर प्रयोगशालाओं तक, मिलों से लेकर खेत-खलिहानों तक मनहूस मुर्दनी एक डरावनी चुप्पी बन कर पसर गयी। धनी मानी इलाकों में भी भूखों के झुण्ड ज़िन्दगी जीने की तलाश में जुटने लगे। विज्ञान शर्मिंदा हो गया। उसके पास औषधि की तलाश की विज्ञप्तियां थीं, औषधि नहीं थी। मौत से जूझने के इश्तिहार थे लेकिन उसके बाद संग्राम के नाम पर लाशों के ढेर थे, कि जिनके कफन-दफन की भी कोई व्यवस्था न थी। 
भारत इन्द्रधनुषी सपनों के माया जाल में जीता है। रोशनी की तलाश में उसे पिछली पौन सदी से अंधेरे को रोशनी मानने की आदत हो गई है। विकास और प्रगति के नाम पर उसे उसके आंकड़े जीने की आदत हो गई है। पूर्ण बंदी के हथियार से अपनी खिड़कियां और दरवाज़े बंद करके खुश होने का आग्रह किया गया कि आपने आसुरी शक्तियों के पांव रोक लिए। आओ इन्हें भगाने के लिए थालियां बजाएं और इस ध्वनि से इसके भगौड़ा हो जाने की घोषणा करके विजय यात्रा निकालें। मौत का अंधेरा घना होता जा रहा था। मारक संक्रमण के सिपहसालार  विकास के साथ दुष्कर्म करने लगे, देश के हर राज्य में। इस अंधेरे को भगाने के लिए आओ दीये जलाएं, कहा गया। लेकिन दीयों की रोशनी में धूमधड़क्का तो नहीं होता न। इसलिए यारों ने उसके साथ पटाखों की विजयदशमी मना ली। 
लेकिन सब कुछ बेअसर। मौन निश्चल होती किसी अंधेरे बिस्तर पर पड़ी देश की अर्थ-व्यवस्था की तरह। पूरे माहौल में बीमारी से अधिक भुखमरी का क्रन्दन फैल गया। लुटे-पिटे बेसहारा लोग हर अगले दिन को और भी आदमखोर हो जाता देखते रहे, छुट गये हाथ के हंसिये हथौड़े। छिन गईं सिर की छतें। मंज़िल की तलाश में निकले थे, अब प्राप्त मंज़िलें भी जैसे अजनबी हो गईं। लाखों की भीड़ अपनी जड़ों से उखड़ गई। उसे कहां जाना है, किसी को खबर नहीं। बस, नंगे पांव, कंधों पर परिवार लादे, पैदल पथ की पहचान न करते हुए राह के छालों को गले लगाते नज़र आने लगे। यह मेहनत की पराकाष्ठा नहीं, एक बार फिर से रोज़ी-रोटी के लिए हाथ फैलाने की नौबत थी। अंधेरे में भटकते हुए यह कारवां दिशाहीन हो गये। बाहुबली हो जाने वाली अर्थ-व्यवस्था इस अभागी लड़की की तरह दीन-हीन बनी कि जिसकी ज़िन्दगी की अंधेरी बंद खिड़कियों और कमरों को देख कर किसी स्वनाम-घन्य डाक्टर ने कभी इसके लिए कहा था, ‘खोल दो।’ लेकिन एक बदहाल अर्थ-व्यवस्था एक नुची पिटी लड़की तो नहीं होती, जो कुछ और सुने और कुछ और कर दे।  खिड़कियां को खुलनी ही थीं, खुल जायेंगी, रास्ते अवरुद्ध थे, इन्हें एक दिन तो खुलना ही था, खुल जायेंगी। लेकिन इन लस्त-पस्त कारवांओं को कैसे तलाश कर फिर वापस लाओगे, जो इस गहरे होते अंधेरे से बनवास लेकर रोशनी की आस की ओर बढ़ गये थे। उस ओर जहां एक और अंधेरा उनका इंतज़ार कर रहा था। 
‘खोल दो’ का हुक्म तो हो गया लेकिन चिहुंक उठे, हर रोशनी के जागीरदार, जिन्होंने हर किस्म की रोशनी को अपनी तिजोरियों में बंद कर लिया था। मृत्यु भय के इन अंधेरों ने उन्हें एक नया अस्तित्व, एक नई पहचान दे दी थी। देश में पसर गए इन बन्दी गृहों ने उनकी फेस बुकों और सोशल मीडिया को एक नई नुहार दे दी है। वे अचानक दार्शनिक, कवि और पथ-प्रदर्शक बन कर लाचार भटकते जनसमूहों में जीवन की निस्सारता का दर्शन बांट रहे थे। उनके भूख से थरथराते जिस्मों के लिए लंगर बांट कर दानवीर हो रहे थे। अपने नैपकिनों को झण्डे बना दानवीरता का अभिनन्दन झेल रहे थे। लेकिन यह क्या हुआ? अब तो सब कुछ खुल रहा है। भगौड़े होते कदम अगर अपनी कर्मस्थली की ओर लौटने लगे तो इन स्वनामधन्य दानवीरों की अप्रकाशित तस्वीरों का क्या होगा, बन्धु?