चीन के इशारे पर खड़ा किया नेपाल ने सीमा विवाद

नेपाल ने अपनी कैबिनेट द्वारा मंजूर-शुदा नए राजनीतिक मानचित्र को संसद में पेश करके भारत से विवाद गहरा देने का नया रास्ता खोल दिया है। ऐसा माना जा रहा है कि नेपाल ने सीमा विवाद चीन के इशारे पर गरमाया  है। दरअसल लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधुरा इस विवाद का केन्द्र हैं। इन विवादित स्थलों की सीमा भारत और नेपाल के साथ चीन से भी जुड़ती है।   दरअसल मानसरोवर यात्रा को सुगम बनाने के लिए उत्तराखण्ड के पिथैरागढ़ जिले में आठ मई को भारत सरकार ने लिपुलेख मार्ग का उद्घाटन किया था। इसी का जवाब देने के लिए नेपाल ने अपने नए मानचित्र में कालापानी,  लिंपियाधुरा और लिपुलेख क्षेत्र को अपने देश के नए मानचित्र में दिखा दिया। इस सिलसिले में भारतीय विदेश मंत्रालय का कहना है कि बीते साल 2 नवम्बर को नेपाल ने जब नया नक्शा जारी किया था, उसमें इस तरह का कोई परिवर्तन नहीं था।  18 मई को विवादित मानचित्र में नेपाल ने  दावा किया कि 1816 में नेपाल और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच हुई सुगौली संधि के अनुसार काला पानी क्षेत्र उसका है। 1860 में इस क्षेत्र की भूमि का पहली बार सर्वे किया गया था। इसके बाद 1929 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने ही काला पानी को भारत का हिस्सा घोषित किया था। नेपाल ने भी इसकी पुष्टि कर दी थी। भारत की आजादी के बाद भी यही स्थिति बनी रही किंतु नेपाल में चीन द्वारा किए जा रहे बड़े पूंजी निवेश के चलते वह ऐसा करने को मजबूर हुआ होगा। हमारे पड़ोसी देशों में नेपाल और भूटान ऐसे देश हैं जिनके साथ हमारे संबंध विश्वास और स्थिरता के रहे हैं। यही वजह है कि भारत और नेपाल के बीच 1950 में हुई सुलह, शांति और दोस्ती की संधि आज भी कायम है। नेपाल और भूटान से जुड़ी 1850 किमी लंबी सीमा रेखा बिना किसी पुख्ता पहरेदारी के खुली है। बावजूद इसके चीन, पाकिस्तान और बांग्लादेश की तरह यहां कोई विवाद नहीं रहा। बिना पारपत्र के आवाजाही निरंतर जारी है। करीब 60 लाख नेपाली भारत में काम करके रोजी-रोटी कमा रहे हैं। 3000 नेपाली छात्रों को भारत हर साल छात्रवृत्ति देता है। नेपाल के विदेशी निवेश में भी अब तक का सबसे बड़ा 47 प्रतिशत हिस्सा भारत का है। इसके बावजूद यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि नेपाल का झुकाव चीन की ओर बढ़ा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अगस्त-2014 में नेपाल की यात्रा करके बिगड़ते संबंधों को आत्मीय बनाने की सार्थक पहल की थी, किंतु भारतीय मूल के मधेशियों के आंदोलन ने इस पर पानी फेर दिया। अब नेपाल और चीन के बीच द्विपक्षीय संबंधों को जो नए आयाम मिले हैं, उनके तहत ऐतिहासिक पारगमन व्यापार समझौते समेत 10 समझौतों की शुरुआत करके नेपाल ने चीन से रिश्ते मज़बूत कर लिए हैं। इस समझौते में सबसे खास एवं विचित्र बात यह हुई है कि नेपाल अब भारत के कोलकाता स्थित हल्दिया बंदरगाह के बजाय 3000 किमी दूर स्थित चीनी तियानजिन बंदरगाह से अपने जरूरी सामानों की आपूर्ति कर रहा है जबकि भारत की बंदरगाह नेपाल की सीमा से करीब 1000 किमी की दूरी पर है।  नेपाल चीनइस बंदरगाह का तुरंत इस्तेमाल नहीं कर सकता है, क्योंकि चीनी बंदरगाह ऊंचाई पर है और नेपाल में आधारभूत ढांचा उन्नत नहीं है। बावजूद इसके यह समझौता शायद इसलिए हुआ है, क्योंकि इसी समझौते के ठीक पहले नेपाल में मधेशी आंदोलन के चलते भारत से आने वाले नेपाल के व्यापारिक मार्गों को करीब छह माह तक बंद कर दिया गया था, जिससे नेपाल का जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया था। इस नाकेबंदी की भविष्य में पुनरावृत्ति न हो, इस आशंका से मुक्ति के लिए नेपाल ने इस समझौते को अंजाम दिया होगा। इस समझौते के बाद नेपाल का व्यवहार उस रस्सी की तरह हो गया है, जिसका बल जलने के बाद भी नष्ट नहीं होता है।   इस अहम् समझौते के अतिरक्ति चीन और नेपाल के बीच तिब्बत के रास्ते रेलमार्ग बनाने पर भी संधि हुई है। चीन ने काठमांडू से करीब 200 किमी दूर पोखरा में क्षेत्रीय हवाई अड्डा के निर्माण के लिए नेपाल को सस्ते ब्याज दर पर ऋण दिया है। अर्से से इन्हीं कुटिल कूटनीतिक चालों के चलते कम्युनिस्ट विचारधारा के पोषक चीन ने माओवादी नेपालियों को अपनी गिरफ्त में लिया और नेपाल के हिंदू राष्ट्र होने के संवैधानिक प्रावधान को खत्म करके प्रचंड को प्रधानमंत्री बनवा दिया था। चीन नेपाल की पाठशालाओं में चीनी अध्यापकों से चीनी भाषा मंदारिन भी मुफ्त में सिखाने का काम कर रहा है। माओवादी प्रभाव ने ही भारत और नेपाल के प्राचीन रिश्ते में हिंदुत्व और हिंदी की जो भावनात्मक तासीर थी, उसका गाढ़ापन ढीला किया। गोया, चीन का हस्तक्षेप और प्रभुत्व नेपाल में लगातार बढ़ता रहा है। हैरानी की बात है कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता और वामपंथी लेखक इन मुद्दों पर पर्दा डाले रखकर देशहित से दूरी बनाए हुए हैं। भारत के लिए यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारतीय राजनीतिक नेतृत्व ने कभी भी चीन के लोकतांत्रिक मुखौटे में छिपी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा को नहीं समझा।  हमारे तीन-तीन प्रधानमंत्रियों जवाहर लाल नेहरू, राजीव गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी ने तिब्बत को चीन का अविभाजित हिस्सा मानने की उदारता ही जताई। इसी खूली छूट के चलते बड़ी संख्या में तिब्बत में चीनी सैनिकों की धुसपैठ शुरू हुर्ह। इन सैनिकों ने वहां की सांस्कृतिक पहचान, भाषाई तेवर और धार्मिक संस्कारों में पर्याप्त दखलंदाजी कर दुनिया की इस छत पर कब्जा कर लिया। अब तो चीन तिब्बती मानव नस्ल को ही बदलने में लगा है। दुनिया के मानवाधिकारी वैश्विक मंचों से कह भी रहे हैं कि तिब्बत विश्व का ऐसा अंतिम उपनिवेश है, जिसे हड़पने के बाद वहां की सांस्कृतिक अस्मिता को एक दिन चीनी अजगर पूरी तरह निगल जाएगा। ताइवान का यही हश्र चीन पहले ही कर चुका है। चीन ने दखल देकर पहले उसकी सांस्कृतिक अस्मिता को नष्ट-भ्रष्ट किया और फिर ताइवान का बाकायदा अधिपति बन बैठा। हांगकांग और नेपाल में भी चीन यही कर रहा है। 

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