देश की भाषाई विभिन्नता और हमारी शिक्षा नीति 

1947 से पहले अविभाजित भारत एक बहुराष्ट्रीय देश था। हज़ारों वर्षों से इसके विभिन्न क्षेत्रों में बसते लोगों ने अपने इतिहास, संस्कृति और स्थानीय प्राकृतिक स्त्रोतों के अनुसार जीवन जीने के ढंग-तरीके विकसित किये। नि:सन्देह केन्द्रीय एशिया से आने वाले हमलावरों तथा यहां समय-समय पर स्थापित हुए साम्राज्यों ने न सिर्फ लोगों पर राजनीतिक प्रभाव डाले, बल्कि उनकी संस्कृतियों और भाषाओं पर भी अनेक तरह के प्रभाव डाले। उनके जीने के ढंग-तरीकों में भी बड़े परिवर्तन आए। परन्तु इस सब कुछ के बावजूद भिन्न-भिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में लोग अपनी संस्कृतियों और अपनी भाषाओं के साथ न सिर्फ जुड़े रहे बल्कि उन्होंने इन भाषाओं के माध्यम से अपनी इच्छाओं और उमंगों का लोक गीतों तथा अन्य कला रूपों में प्रकटावा करने के साथ-साथ इनमें महान साहित्यक सृजनाएं भी कीं। इन भाषाओं के द्वारा अपना राजनीतिक, आर्थिक और बौधिक विकास भी किया। प्राकृतिक और अप्राकृतिक संकटों के समय और देशी-विदेशी हमलों के समय उनकी भाषाएं सदा उनके अंग-संग रही हैं। इन भाषाओं ने उनको एकजुट होने तथा अपने  रोष का प्रकटावा करने के प्रभावशाली माध्यम के रूप में उनका साथ दिया। चाहे देश का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ। भारत और पाकिस्तान दो देश बन गए और बाद में पाकिस्तान में से निकल कर एक और देश बंगलादेश बन गया। इसके बावजूद भारत और पाकिस्तान का बहुराष्ट्रीय खासा नहीं बदला। आज भी पाकिस्तान में पंजाबी, बलोची, सिंधी और पशतून आदि कौमें बसती हैं, जिनके अपने-अपने भूगोलिक क्षेत्र हैं। इसी तरह हिन्दुस्तान में भी पंजाबी, बंगाली, कन्नड़, तेलगू, गुजराती, मराठी, मलियालम, हिन्दी और असम सहित अन्य भिन्न-भिन्न भाषाओं के आधार पर गठित हुए राज्य भिन्न-भिन्न भाषाई कौमों के घर हैं। इन कौमों के भी अपने-अपने भौगोलिक क्षेत्र हैं, जिनमें उनकी अपनी-अपनी संस्कृति और अपने-अपने इतिहास थे। इन कौमों के अपने क्षेत्रीय नायक भी हैं और अपनी-अपने साहित्यिक और धार्मिक ग्रंथ भी हैं। धार्मिक तौर पर भी इस महान देश में बहुत सी विभिन्नताएं हैं। इस तरह के देश को चलाने के लिए सही अर्थों में जनतांत्रिक, धर्म-निरपेक्ष और संधीय (फैडरल) राजनीतिक व्यवस्ता की ज़रूरत थी। देश के संविधान निर्माता संविधान तैयार करने के समय देश की इस विभिन्नता से बाखूबी अवगत थे। इसलिए उन्होंने भारत को ‘यूनियन ऑफ स्टेटस’ का दर्जा दिया था और केन्द्र तथा राज्यों के बीच अधिकारों की बांट करते हुए तीन सूचियां बनाईं थीं, जिनको संविधान में केन्द्रीय सूची, राज्यों की सूची और समवर्ती सूची का दर्जा दिया गया है। इन सूचियों के अनुसार राज्यों तथा केन्द्र के अधिकार स्पष्ट रूप में बांटे गए हैं। केन्द्र सरकार केन्द्रीय सूची के अनुसार कानून बना सकती है। राज्य सरकारें राज्यों की सूची के अनुसार कानून बना सकती हैं और समवर्ती सूची में दिए गए विषयों पर केन्द्र और राज्य दोनों कानून बनी सकती हैं। परन्तु यदि केन्द्र और राज्यों के बीच बनाए गए कानूनों संबंधी मतभेद पैदा होते हैं तो संवैधानिक तौर पर केन्द्र द्वारा बनाए गए कानून को सही माना जाएगा। इस व्यवस्था के बावजूद बहुत से बुद्धिजीवियों का विचार यह रहा है कि क्योंकि भारतीय संविधान देश के विभाजन के तुरंत बाद बनाया गया था, इसमें केन्द्र को अधिक शक्तिशाली रखा गया था। फिर भी यदि इन सूचियों के अनुसार केन्द्र तथा राज्य अपने-अपने अधिकार क्षेत्र में रहते हुए विचरण करते तो भारत में केन्द्र और राज्यों के रिश्ते भी बेहतर बने रहते और भारत का संधीय ढांचा भी ओर मज़बूत हो सकता था। जहां तक संविधान की संघीय भावना पर अमल करने की बात है, आज़ादी के बाद कई दशकों तक केन्द्र और राज्यों में कांगे्रस का एक छत्र राज रहा है। कांग्रेस ऐसी पार्टी थी जिसने आज़ादी के संघर्ष के समय देश के लोगों से यह वादा किया था कि आज़ादी के बाद राज्यों का भाषाई आधार पर पुनर्गठन किया जाएगा। परन्तु आज़ादी के बाद जब यह पार्टी सत्ताधारी बन गई तो इसका सदा यह यत्न रहा कि राज्यों के   अधिक से अधिक अधिकार हथिया लिए जाएं और केन्द्र को और मज़बूत बनाया जाए। इसी कारण कांग्रेस के लम्बे शासन में बार-बार धारा 356 का प्रयोग करके विपक्षी पार्टियों की राज्य सरकारों को तोड़ा जाता रहा और देश के संविधान में जिन 21-22 भाषाओं को 8वीं अनुसूची में शामिल किया गया था, उन के प्रसार तथा विकास के लिए और न्याय सहित भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में उनके लागू करने हेतु केन्द्र द्वारा जितना सहयोग दिया जाना चाहिए था, वह नहीं दिया गया। इस कारण देश में अंग्रेज़ों के शासन के बाद भी अंग्रेज़ी हावी रही। फिर भी विभिन्न राज्य अपने राजनीतिक अधिकारों, संस्कृति तथा अपनी भाषाओं को जीवित रखने के लिए जूझते रहे। अब जबकि लम्बे समय के बाद केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बन गई है और उसे अपने तौर पर बहुमत हासिल हो गया है तो इस देश के लोकतांत्रिक, धर्म-निरपेक्ष और संधीय ढांचे में बड़े परिवर्तन करके पाकिस्तान की तरह भारत को एक धर्म-आधारित राज्य बनाने हेतु यत्नशील है। इस संबंधी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत और कई अन्य हिन्तुत्वी संगठनों के बयान भी अकसर आते रहते हैं। इसी मकसद के लिए भाजपा सरकार राज्यों के अधिक से अधिक अधिकार छीन कर अपने हाथों में लेने के लिए तत्पर हुई नज़र आ रही है। जब देश में संविधान निर्माण का अमल चल रहा था, उस समय भी भारतीय जनता पार्टी को पीछे से चला रहे बड़े संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विचारकों ने संविधान तैयार करने वाली सभा को यह सुझाव दिया था कि नये संविधान के अनुसार देश में केन्द सरकार होनी चाहिए और निचले स्तर पर जिले होने चाहिएं  जबकि भिन्न-भिन्न राज्यों का कोई अस्तित्व नहीं होना चाहिए। इन विचारकों का यह मत था कि राज्यों के गठन के समय-समय पर केन्द्र और राज्यों के बीच मतभेद उभरेंगे और इससे कौमवाद संबंधी टकराव पैदा होंगे। राष्ट्रीय झंडे संबंधी भी इन विचारकों की यही राय थी कि देश के झंडे का सिर्फ एक ही केसरी रंग होना चाहिए। इसमें सफेद और हरे रंग को कोई महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के इन विचारों से यह स्पष्ट हो जाता है कि उस समय भी आज और आज भी यह देश की राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक  और भाषाई, विभिन्नता में विश्वास नहीं रखती और यह देश पर एक  धर्म, एक भाषा और एक राजनीतिक व्यवस्था लागू करने हेतु यत्नशील है। श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में वाली मौजूदा भाजपा की सरकार के प्रत्येक कार्य में से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के इस एजेंडे की झलक मिलती है। इस संदर्भ में ही भाजपा सरकार की ओर से पास किए जा रहे विभिन्न कानूनों के और जारी किए जा रहे अध्यादेशों को देखा और समझा जा सकता है। भाजवा सरकार की ओर से अपने इन उद्देशों को पूरा करने के लिए नई शिक्षा नीति लाई जा रही है। कृषि संबंधी अध्यादेश जारी करके न सिर्फ राज्यों की स्वायत्तता में दखल दिया जा रहा है, बल्कि उनके आर्थिक स्त्रोत भी कम किए जा रहे हैं। बिजली उत्पादन और उसके वितरण संबंधी अधिकार भी एक नया कानून ला कर भाजपा सरकार अपने हाथों में लेना चाहती है। अभी-अभी यह समाचार आया है कि राजीव गांधी सरकार के समय देश में जो भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक केन्द्र बनाए गए थे, उनमें भी विभिन्न राज्यों के बुद्धिजीवियों तथा मंत्रियों का  प्रतिनिधित्व समाप्त करके केन्द्र तथा राज्यों की अफसरशाही को अधिक प्रतिनिधित्व दिया जा रहा है ताकि केन्द्र सरकार इन सांस्कृतिक केन्द्रों को अफसरशाही के द्वारा अपनी इच्छा के अनुसार इस्तेमाल कर सकें। यहां वर्णनीय  है कि इन सांस्कृतिक केन्द्रों को प्रत्येक सदस्य राज्य वार्षिक दो-दो करोड़ रुपए देता है। केन्द्र यह चाहती है कि यह सांस्कृतिक केन्द्र चलें चाहें राज्यों के पैसे से परन्तु एजेंडा यह केन्द्र सरकार का ही लागू करें। नैशनल बुक ट्रस्ट फिल्म तथा टैलीविज़न इंस्टीच्यूट पूना और कई अन्य ऐतिहासिक और अकादमिक संस्थाओं में भाजपा सरकार पहले ही अपनी सोच वाले लोगों को बिठा कर उनको अपने प्रभाव में ले चुकी है। इसी तरह की स्थितियों में देश की अलग-अलग भाषाओं पर आधारित राज्यों के लिए यह बेहद ज़रूरी हो जाता है कि वह अपने राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों के साथ-साथ अपने सभ्याचार और भाषायी अधिकारों की सुरक्षा के लिए विशेष तौर पर सुचेत हो कर काम करें। अपने इतिहास, सभ्याचार और अपनी भाषाओं को अपनी आगामी पीढ़ियों तक पहुंचाने हेतु अपने-अपने राज्यों में शिक्षा नीतियां बनाएं और उनको लागू करते समय विशेष तौर पर प्रतिबद्धता और स्पष्टता से कदम उठाएं। यह सही है कि इस महान देश में विचरणे के लिए देश को एक या दो सम्पर्क भाषाओं की ज़रूरत है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अलग-अलग राज्यों के लोगों को विचरण के लिए अन्तर्राष्ट्रीय भाषा की आवश्यकता है। इन सरोकारों की पूर्ति के लिए हिन्दी और अंग्रेज़ी बेहतर तौर पर काम कर रही हैं। इसलिए ये भाषाएं पूरे देश के लोगों को बेहतर ढंग से पढ़ाई और सिखाई जाती हैं। परन्तु राज्यों को क्षेत्रीय स्तर पर अपनी अलग पहचान कायम रखने के लिए शिक्षा, प्रशासन और न्याय के क्षेत्रों में अपनी भाषाओं को भी पूरी इच्छा शक्ति से लागू करने की ज़रूरत है परन्तु कई प्रकार के राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय प्रभावों के कारण और विशेष तौर पर कार्पोरेट विकास मॉडल द्वारा पैदा की गई ज़रूरतों के कारण राज्यों की क्षेत्रीय भाषाओं का क्षरण होता जा रहा है और राज्य भी अपनी भाषाओं के महत्त्व से अनभिज्ञ होता जा रहा है। (शेष कल)