अजमेर जहां हर रोज़ चढ़ते हैं अ़कीदत के फूल

राजस्थान सूफी संतों की श्रद्धास्थली रही है। यहां सूफी संतों ने मानव मन को वैचारिक पवित्रता प्रदान करने के लिए आध्यात्मिकता की अविरल धार प्रवाहित की है। अजमेर की पावन धरती को सूफी संतों ने चिंतन-मनन और आस्था केंद्र एवं अपनी कर्मस्थली बनाया। ब्रह्माजी के धाम पुष्कर और ख्वाजा नगरी को समन्वित संस्कृति का प्रतीक माना जाता है। हजरत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती जैसे महान् सूफी संत ने अजमेर में अपने उपदेशों से दुनिया भर के लोगों  के दिलों में इन्सानियत, मोहब्बत, खिदमत, दयालुता, सहिष्णुता व विनम्रता से समाजसेवा करने का जज्बा जगाया। अजमेर शरीफ का नाम आज भी संसार में श्रद्धा से लिया जाता है तो इसका श्रेय महान् सूफी ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती और उनके उपदेशों को जाता है। ख्वाजा साहब का उर्स हर वर्ष हिजरी सन् के मुताबिक एक से नौ रजब तक मनाया जाता है। ख्वाजा साहब की याद में मनाए  जाने वाले इस उर्स में देश-विदेश में रह रहे मुसलमानों के साथ-साथ अन्य धर्मो के आस्थावान लोग भी बड़ी संख्या में शामिल होते हैं। इस्लाम में 786 की संख्या को पवित्र, शुभ और मुबारक माना जाता है। ख्वाजा साहब की वफात को जब 786 वर्ष हुए थे, तब से लेकर अब तक अजमेर में जो भी उर्स हुआ, वह अजीमुश्शान था। हजरत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का जन्म मध्य एशिया में सीस्तान कस्बे में 9 रजब 53० हिजरी सन् 1143 को हुआ था। ख्वाजा साहब के पूर्वज सीस्तान के संजर कस्बे में रहते थे, इसलिए आपको संजरी भी कहा जाता है। आपके खानदान के ख्वाजा इसहाक शामी हिरात के पास चिश्त कस्बे में आकर रहने लगे थे। इस कारण आपको और आपके शिष्यों को चिश्ती के नाम से भी जाना जाता है। ख्वाजा साहब के वालिद का नाम ग्यासुद्दरीन और वालिदा का नाम बीबी माहेनूर था। ख्वाजा साहब जब 14 वर्ष के थे, तभी आपकी वालिदा का इंतकाल हो गया और उसके कुछ दिनों बाद वालिद का साया भी सिर से उठ गया। बीबी अमातुल्ला व बीबी अस्मत ख्वाजा साहब की शरीके-हयात थीं। महान संत हजरत शेख इब्राहिम कंदौजी के सम्पर्क में आने के बाद ख्वाजा साहब को विशेष आध्यात्मिक प्रेरणा मिली। दुनियादारी से उनकी तबियत उचट गई। ख्वाजा साहब सत्य और ज्ञान की खोज में इराक, तबरेज और शाम होते हुए मक्का शरीफ पहुंचे। हज करने के बाद मदीना में उनकी मुलाकात हजरत शेख उस्मान हारूनी से हुई। उनसे प्रभावित होकर ख्वाजा साहब उनके शिष्य बन गए और आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने लगे। लगभग 52 वर्ष की उम्र में ख्वाजा साहब को उनके गुरु ने अपना उत्तराधिकारी बना दिया। अपना उत्तराधिकारी बनाते हुए उनके गुरु ने कहा, ऐ मोइनुद्दीन, अब तुम्हें काम भी संतों जैसे ही करने होंगे। गरीबों और दुखियों की सेवा करना, भूले-भटके राहगीरों को राह दिखाना और दुनिया की बुराइयों से बचाना होगा।  इसके बाद ख्वाजा साहब अपने 4० साथियों के साथ हिन्दुस्तान तशरीफ लाए। आपने अजमेर को अपनी आखिरी आरामगाह के लिए चुना। कुछ ही दिनों में आपकी ख्याति चारों तरफ फैल गई और सत्य की खोज के लिए अनेक संत आपके पास आने लगे। ख्वाजा साहब सबको समान दृष्टि से देखते और एकता, भाइचारे, सच्चाई व इंसानियत के रास्ते पर चलने की सलाह देते थे। ख्वाजा साहब दिन-रात इबादत में मशगूल रहते थे। उनका जीवन बेहद सरल व सादगी भरा था। कहा जाता है कि उन्होंने कभी भरपेट भोजन नहीं किया। उनके लिए यह भी प्रचलित है कि उन्होंने जीवन भर एक ही लिबास पहना और उसके फटने पर वह उस पर पैबंद लगा दिया करते थे। पैबंद लगने के कारण उनका लिबास इतना भारी हो गया था कि ख्वाजा साहब की वफात के बाद जब उसे तौला गया तो उसका वजन 12.5 सेर था। उन्होंने जीवन में कुल मिलाकर 51 हज पैदल चलकर किए। वह 24 घंटे में दो बार पूरी कुरान पढ़ लिया करते थे। (क्रमश:)