राजनीतिक आकाओं की पुलिस कब बनेगी ‘जनता’ की पुलिस  (2)

अं(कल से आगे)
तर्राष्ट्रीय संधियों पर हस्ताक्षर करने के दो दशकों बाद भी भारत में अत्याचार के खिलाफ लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए कोई भी कानूनी ढांचा नहीं बनाया जा सका। यह भी कारण है कि भारत में अत्याचार के खिलाफ लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए कोई विशेष व्यवस्था नहीं है। हालांकि 2008 में पहली बार अत्याचार से बचाव के बारे विधेयक (क्कह्म्द्ग1द्गठ्ठह्लद्बशठ्ठ शद्घ ह्लशह्म्ह्लह्वह्म्द्ग) पेश किया गया। विधेयक को दोबारा जायज़े के लिए सिलैक्ट कमेटी के पास भेजा गया, जिसके बाद 2010 में विधेयक फिर से पेश किया गया। इस विधेयक को सात वर्षों के बाद अक्तूबर 2017 में पेश किया गया लेकिन उसके बाद भी इस संबंधी कोई पहलकदमी नहीं हुई। 
पुलिस की ताकत के इस ़गरूर को ध्यानपूवर्क देखा जाए तो पता चलेगा कि भारत में राज्य पुलिस में 81 फीसदी हिस्सा कांस्टेबलों का है, जिनकी भर्ती के लिए कम से कम शैक्षणिक योग्यता 10वीं कक्षा है। इसके अलावा 10वीं पास करके कांस्टेबल लगे नौजवान के पास अपने पूरे करियर में तरक्की के नाम पर सिर्फ हैड-कांस्टेबल तक पहुंचने की सम्भावना है। कम शिक्षा के बावजूद कुछ होने का रौब और ़गरूर उसकी कम शिक्षा हासिल करने की कमी को जैसे कोसता नज़र आता है। दूसरा, तरक्की के सीमित रास्ते भी उसको मायूस करते हैं। तीसरा, पुलिसवाले अत्याचार के तरीकों के  प्रयोग को वेतन की वृद्धि और तरक्की का ज़रिया समझते हैं। 
पुलिस सुधार 
भारत में पुलिस सुधारों के लेकर लम्बे समय से चर्चा चलर रही है। इसी दौरान कई बार चर्चा तीखी भी हो जाती है। तीखी चर्चा के बाद कई कमेटियां बनीं, जिनकी शुरुआत एमरजैंसी के दौरान शुरू हुई। 1977 में पुलिस सुधारों को लेकर धर्मवीर की अध्यक्षता में एक कमिशन कायम किया गया, जिसे राष्ट्र पुलिस कमिशन का नाम दिया गया। चार वर्षों में इस कमिशन ने केन्द्र सरकार को आठ रिपोर्टें भेजीं जिनमें मुख्य सिफारिशों के तौर पर हर राज्य में एक राज्य सुरक्षा कमिशन का गठन, पड़ताल किये जाने वाले कामों को शांति व्यवस्था संबंधी कामों से अलग करना, पुलिस प्रमुख की नियुक्ति के लिए विशेष अमल अपनाने और कार्यकाल बढ़ाने आदि संबंधी सिफारिशें की गई थीं लेकिन किसी भी सिफारिश पर अमल नहीं किया गया। 1997 में उस समय के गृहमंत्री इन्द्रजीत गुप्त की ओर से सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों को पत्र लिख कर उनको पुलिस सुधार लागू करने की सिफारिशें की गई थीं। इसके बाद एक के बाद एक कई कमेटियों का गठन किया गया। 
1998 में रिबेरो कमेटी, 2000 में पद्मसभैया कमेटी, 2003 में मीलमत्थ कमेटी, 2005 में पूर्व अटार्नी जरनल सोली सोराबजी की अध्यक्षता में गठित माडल पुलिस कानून प्रारूप कमेटी और 2007 में दूसरा प्रशासन सुधार कमिशन। सभी कमिशनों और कमेटियों ने इस बात पर सहमति प्रकट की कि पुलिस की बनावट, विशेष तौर पर बड़ी आबादी वाले शहरों में आधारभूत बदलाब की आवश्यकता है। वर्तमान कानून की बनावट कुछ इस प्रकार की है कि उसमें न तो पुलिस की जवाबदेही निश्चित होती है और न ही पुलिस न्यायतंत्र में बिना किसी बाहरी दवाब से समूची स्वायत्तता के साथ खड़ी नज़र आती है।
तमिलनाडु मामले के साथ सुर्खियों में आने के बाद ही पुलिस की पड़ताल और शांति व्यवस्था के कामकाज को अलग करने की मांग ने एक बार फिर जोर पकड़ा है। डा. पसरीचा ने इसमें ‘व्यावहारिक’ परेशानियों का हवाला देते हुए कहा है कि भारत में वैसी भी पुलिस वालों की संख्या काफी कम है। संयुक्त राष्ट्र ने एक लाख लोगों की आबादी पर 222 पुलिस वालों की सिफारिश की है। भारत में स्वीकृत संख्या 181 है लेकिन खाली पदों को ध्यान में रखते हुए 137 तक पहुंच जाती है। डा. पसरीचा के मुताबिक एक पुलिस वाले के हिस्से अपराधों पर रोक और प्रतिक्रम, अंदरूनी सुरक्षा और कानून व्यवस्था बनाए जाने के अलावा ट्रैफिक प्रबंध, आपदाओं के प्रतिक्रम आदि कार्यों के अलावा अदालतों के भी कई काम शामिल हैं, जो कि उसकी कार्य शैली पर विपरीत प्रभाव डालते हैं। 
राजनीतिक हस्तक्षेप
पुलिस सुधारों की बात हमेशा विरोधी पक्ष की ओर से ही की जाती है। क्योंकि सत्ताधारी पक्ष को पुलिस को अपने काबू में रखना ठीक बैठता है। पसरीचा के मुताबिक अभी तक अलग-अलग समय में कई राजनीतिक पार्टियां आईं और गईं लेकिन किसी की ओर से भी पूरी इच्छा शक्ति के साथ सुधारों को अमल में नहीं लाया गया। क्योंकि सत्ता के रुसूख के साथ पुलिस का खौफ पैदा करना उनके लिए लाभप्रद होता है। राजनीतिक कक्ष का हस्तक्षेप सिर्फ  पड़ताल तक ही नहीं बल्कि नियुक्तियों और तरक्की में भी नज़र आता है। इसीलिए राजनीतिक आकाओं को खुश रखने के लिए वह कोई भी तरीका अपनाने से वे नहीं झिझकते। 
सत्ता की शह पर और ताकत के ़गरूर में मदहोश हुई पुलिस भूल जाती है कि उसकी असली ज़िम्मेदारी अपराधों की रोकधाम करना है न कि निहत्थे लोगों पर वर्दी के द्वारा मिली शक्ति की नुमाइश करना है। इस भ्रम को दूर करने के लिए न सिर्फ पुलिस की जवाबदेही की आवश्यकता है बल्कि एक मज़बूत और समय के अनुसार कानूनी ढांचा तैयार करने की भी बेहद ज़रूरत है ताकि जनता भी यह अहसास कर सके कि आपकी पुलिस, आपके साथ, सदैव! (समाप्त)