विकास दुबे के साथ ही द़फन हो जाएंगे अनेक राज़

सामान्य व्यक्ति जो ईमानदारी, मेहनत और अपनी चादर के अनुसार अपने पांव फैलाने के लिए जाना जाता है, उसे यह जानकर, सुनकर या देखकर बहुत ही अजीब लगना स्वाभाविक है कि एक अपराधी द्वारा पुलिस कर्मियों की हत्या कर छिपते-छिपाते अनेक राज्यों की कानून व्यवस्था को धता बताते हुए मौका-ए-वारदात से सैंकड़ों किलोमीटर दूर एक मंदिर में दर्शन के बाद बाहर निकलकर घोषणा करना कि मैं ही वह हूं जिसकी तलाश है, आओ मुझे पकड़ लो।उसके बाद नाटकीय घटनाक्रम से उसकी गिरफ्तारी होती है। जिस राज्य में उसने अपराध किया, वहां की पुलिस को सौंप दिया जाता है और इससे पहले कि लोग यह कयास लगाएं कि अब इसका मुकद्दमा बरसों चलेगा, उसका एनकाउंटर कर दिया जाता है ताकि वे सब सबूत मिट जाएं, जिनकी बिनाह पर बहुत से सफेदपोश खादी और पुलिसिया खाकी पहने लोगों की सच्चाई उजागर हो सकती है। यह घटना भी इसी तरह की है। पहले की अनेक घटनाओं की भांति कुछ समय के शोर-शराबे के बाद भुला दी जाएगी परन्तु अनेक प्रश्न साधारण व्यक्ति के मन में छोड़ जाएगी जिनका संबंध कानून का शासन और व्यवस्था की लाज बचाने से है। इसलिए आम आदमी के लिए यह समझना ज़रूरी हो जाता है कि वास्तविकता क्या है और कानून की खामी और व्यवस्था की मजबूरी को दूर करने में उसका क्या योगदान हो सकता है?
प्रबंध को बदलने की ज़रूरत
सबसे पहले यह समझ लीजिए कि हमारा जो कानून है, वह अपराधियों द्वारा व्यक्तिगत तौर पर किए गए अपराधों से निपटने और सज़ा देने के लिए बना था अर्थात घरेलू किस्म के अपराध, आपसी रंजिश, मारपीट, पुश्तैनी जायदाद या ऐसे ही मुकद्दमे जो एक-दो साल से लेकर पीढ़ियों तक चलते रहते हैं। इनके कारण समाज पर कोई गंभीर संकट नहीं होता और न ही कोई राजनीतिक या सामाजिक उथल-पुथल होने का अंदेशा रहता है। यदि ज़रूरत पड़ी  और कोई अलग तरह की वारदात हुई या मुकद्दमा आया तो उसमें थोड़ी बहुत रद्दोबदल की जाती रही ताकि काम चलता रहे। कह सकते हैं कि ये सब स्थानीय किस्म के अपराधों से निपटने के लिए काफी था। जब ऐसे अपराध होने लगे जिनकी व्यापकता राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर की थी, तो इन्हीं कानूनों में लीपापोती कर काम चलाने की कोशिश की गई जोकि नाकाफी था।
सख्त नए कानून की ज़रूरत
ज़रूरत यह थी कि ऐसे कानून बनाए जाते जो इक्का-दुक्का अपराधियों के लिए न होकर छोटे बड़े गिरोह, माफिया या क्राइम सिंडीकेट से निपटने में सक्षम होते।  इस तरह के संगठित अपराधियों के किए सभी जुर्मों के लिए अलग अदालत यानी ज्यूडिशियरी गठित होती और अभी जो इस तरह के अपराधों से निपटने के लिए अलग संगठन प्रादेशिक और राष्ट्रीय स्तर पर काम कर रहे हैं, उन सब को एक सूत्र में बांधकर इस केंद्रीय संगठन को सभी तरह के कानूनी और प्रशासनिक अधिकार दिए जाते ।अगर अभी भी इस बारे में गंभीरता से विचार हो तो इस नयी व्यवस्था से अपराधियों के नेता बनकर पुलिस और नौकरशाही को अपने इशारों पर नचाने से मुक्ति मिल सकती है। यह भी संभव है कि अभी जो हम विधानसभा से लेकर संसद तक में अपराधियों की घुसपैठ देखते हैं और जो घोषित अपराधी हैं, वे विधायक, सांसद और मंत्री बन जाते हैं, उस परम्परा को नेस्तनाबूद किया जा सकता है । किसी भी अपराधी के मुकद्दमे के दौरान या सज़ा होने पर जेल से ही चुनाव लड़ने पर संवैधानिक रोक लग जाने से न सिर्फ उसके नेता बनने पर अंकुश लग जाएगा बल्कि वे सज़ा होने पर जेल से ही अपनी आपराधिक गतिविधियों को चलाने में असमर्थ हो जाएंगे।वर्तमान व्यवस्था में साधारण अपराध हो या जघन्य, सामान्य कैदी हो या राजनीतिक बंदी, सब को एक साथ रखा जाता है और उनके आपस में मिलते रहने से माफिया या सिंडीकेट का जेल से ही विस्तार होता रहता है।
प्रबंध की उदासीनता
सभी अपराधियों को एक ही लकड़ी से हांकने की परिपाटी के कारण भ्रष्ट नेताओं, रिश्वतखोर पुलिस वालों, बेईमान अधिकारियों से लेकर तस्करी, कालाबाज़ारी, नशीले पदार्थों की बिक्री करने वाले व्यापारियों का एक मज़बूत संगठन बन गया है और जब भी इनमें से किसी एक पर कोई कार्यवाही होती है तो ये सब मिलकर न्याय और व्ययस्था पर ऐसा प्रहार करते हैं कि उसे चुप रहने में ही अपनी भलाई दिखाई देती है। जब प्रशासन चुप हो जाए या हकीकत से मुंह मोड़ ले तो चाहे अपराधी कैसा भी हो, उसने आर्थिक अपराध किया हो या हत्या, अपहरण, फिरौती से लेकर बम विस्फोट करने में लिप्त पाया जाए, उसकी हिम्मत बढ़ जाती है। कानून का उसे डर नहीं रहता। किसी भी पद पर बैठे व्यक्ति को वह अपना मोहरा बनाने से नहीं चूकता और बिना किसी रोक-टोक के दूसरे देशों में पहुंचकर वहां से अपनी गतिविधियों को चलाता रहता है। अगर सरकार और प्रशासन उदासीन न हों तो अपराधी की हिम्मत शुरू में ही टूटने में देर नहीं लगती, उसकी दबंगई साथ नहीं देती और उसे आत्म-समर्पण कर खुद को कानून के हवाले करना ही पड़ता है।यह कानून व्यवस्था की कमज़ोरी और राजनीतिक सत्ताधारियों में इच्छा शक्ति का अभाव ही तो है, या फिर उनके निजी स्वार्थ हैं जो जघन्य और सामूहिक तौर पर किए गए अपराधों के लिए कोई कारगर कदम नहीं उठा पाते जिससे ऐसे अपराधियों के मन में डर हो। यदि अपराधी सोचता है कि वह जो कर रहा है, नेता बनने के बाद वह जायज़ हो जाएगा और राजनीति में आने से प्रशासन हो या पुलिस, उसकी चाकरी करने को तैयार रहेंगे, इस पर लगाम लगाना अनिवार्य है। पुलिस हो या प्रशासनिक अधिकारी, वे कुछेक अपवादों को छोड़कर भ्रष्ट नहीं होते लेकिन जब निरंकुश अपराधी नेता बन जाते हैं तो वे उनके लिए ऐसा माहौल बना देते हैं कि उन्हें अपने सिद्धांतों का त्याग करने को विवश होना या फिर मृत्यु को गले लगाना पड़ता है।  सामान्य नागरिक इसमें इतना योगदान दे सकता है कि वह संचार साधनों, सोशल मीडिया के ज़रिए इस तरह का वातावरण बना सकता है जिससे वह अपनी बात सरकार और नीति बनाने वाले अधिकारियों तक पहुंचा सके ताकि उसे अपराधियों और उनकी कारगुजारियों से सुरक्षा मिल सके।