सिंधिया-पायलट के बाद भी नहीं थमेगा सिलसिला

कुछ सच ऐसे होते हैं जिनके घट जाने के बाद भी उन पर यकीन नहीं होता। एक साल पहले तक देश का धुरंधर से धुरंधर राजनीतिक विश्लेषक पूरे विश्वास से यह नहीं कह सकता था कि आने वाले दिनों में ज्योतिरादित्य सिंधिया और फिर सचिन पायलट कांग्रेस को छोड़ जाएंगे। एक-डेढ़ साल पहले इस तरह की कल्पना ही संभव नहीं थी; क्योंकि राहुल गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस में ये युवा नेता सिर्फ  चमकते सितारे भर नहीं थे बल्कि कांग्रेस का मान्य भविष्य थे। यह अलग बात है कि न उन दिनों कांग्रेस में 10-जनपथ का प्रभाव कोई कम था, और आज भी नहीं है। बावजूद इसके कांग्रेस के भविष्य के रूप में जिन लोगों के चेहरे बिना किसी कोशिश अनायास आंखों के सामने आ जाते थे, उनमें ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट के चेहरे सबसे चमकदार थे।कहना न होगा कि इन दोनों ने अपने से लगायी गई मनोवैज्ञानिक उम्मीदों को भी किसी हद तक पूरा किया था। कांग्रेस ने अगर 2019 के चुनावों के पहले भाजपा को कभी जरा सा सशंकित किया या चौंकाया था तो सिर्फ  मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे बड़े राज्यों में चुनावों के बाद ही चौंकाया था, जब इन दोनों राज्यों से भाजपा की सरकार चली गई थी। जब राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की वापसी हो गई थी और गुजरात में भी लगभग लगभग उसने नैतिक विजय हासिल कर ली थी। उसके बाद कांग्रेस 2019 के चुनाव के लिए अगर बहुत जोरदार नहीं तो सम्मान योग्य प्रतिद्वंद्वी बन गई थी लेकिन चुनावों के बाद अगर कांग्रेस की तकनीकी दुर्दशा के साथ-साथ उसकी मनोवैज्ञानिक दुर्बलता भी दयनीयता के साथ बेनकाब हुई है, तो इसका संबंध लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की पराजय से ज्यादा मध्य प्रदेश और राजस्थान में विधानसभा चुनावों को जीतने के बाद पार्टी आला कमान के नेतृत्व की बागडोर सौंपने को लेकर गलत निर्णय था।इसमें कोई दो राय नहीं कि मध्य प्रदेश में कमलनाथ और राजस्थान में अशोक गहलोत क्रमश: ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट से कहीं ज्यादा अनुभवी, कहीं ज्यादा मंझे हुए राजनेता थे। लेकिन हमें इस सच्चाई को भी दरकिनार नहीं करना चाहिए कि मध्य प्रदेश में 15 सालों बाद और राजस्थान में 5 साल बाद अगर कांग्रेस सत्ता में आयी थी, तो इसके पीछे मंझे हुए अनुभवी नेताओं की राजनीति या राजनीतिक होमवर्क नहीं था बल्कि इसमें मुख्य योगदान इन दोनों युवा नेताओं का था, जिन्हें आज कांग्रेस खो चुकी है। मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया सिर्फ  एक नौजवान सुदर्शन चेहराभर नहीं थे बल्कि मतदाताओं के लिए 21वीं सदी में नये किस्म के राजनीतिक बदलाव की आकांक्षा वाला भविष्य थे। कोई नहीं जानता कि ज्योतिरादित्य सिंधिया सफल होते या असफल होते, लेकिन विधानसभा चुनाव में उन्होंने और खुद कांग्रेस ने भी कई कहे-अनकहे तरीकों से प्रदेश की जनता को युवा नेतृत्व का सपना दिखाया था और कोई यह बात नहीं मान सकता कि उस सपने का केंद्र ज्योतिरादित्य सिंधिया नहीं थे। भले इसकी कभी सार्वजनिक तौरपर घोषणा न की गई हो। लगभग यही हाल राजस्थान में सचिन पायलट को लेकर रहा। सचिन पायलट को भी कांग्रेस आला कमान ने कभी एक भावी मुख्यमंत्री के रूप में प्रत्यक्ष तौरपर प्रोजेक्ट नहीं किया था, लेकिन राजनीति की एबीसीडी समझने वाला हर व्यक्ति इस बात को भली भांति समझ रहा था कि सचिन पायलट राजस्थान के मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। लेकिन अंत में दोनों ही प्रदेशों के उन तमाम मतदाताओं को निराश होना पड़ा, जो आजमाये न गये या कम आजमाये गये युवा सिंधिया और पायलट में अपना भविष्य देख रहे थे। कांग्रेस पार्टी या आला कमान से चाहे कितनी सफाई आये कि सिंधिया और पायलट के नाराज़ होने में कांग्रेस आला कमान या जनपथ का कोई हाथ नहीं है। लेकिन यह भावुक राजनीतिक समझ वाला देश कभी इस बात को सच नहीं मानेगा। हो सकता है, वाकई यह सच हो कि इन दोनों बगावतों में कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की कोई भूमिका न हो या उनके राजनीतिक समीकरणों के बनने बिगड़ने का इन दोनों घटनाओं से कोई लेना देना न हो लेकिन अगर इसमें 10 जनपथ का कुछ लेना देना नहीं भी है, तो भी इस सबका ठीकरा उसी के सिर पर फूटेगा और फूटना भी चाहिए; क्योंकि निष्क्त्रियता अपने आपमें एक असफलता है।  कांग्रेस के वरिष्ठ नेता चिंतित रहते हैं कि उनके पास भाजपा जैसे कॉडर क्यों नहीं है? इसके न होने का कारण ये तथाकथित नेता पैसा और प्रभाव की दुहाई देंगे, लेकिन यह सच नहीं है। सच्चाई यह है कि कांग्रेस के पास कोई विश्वसनीय विचार नहीं है। कोई आम कार्यकर्ता जिसे राजनीतिक पार्टियां कभी तनख्वाह नहीं देतीं, जिन्हें भारत जैसे देश में राजनीतिक लाभ मिलने भी इतने आसान नहीं होते, वे आखिर किसी पार्टी से क्यों चिपके रहते हैं? एक ही वजह इसकी होती है, कि पार्टियों के पास एक विचारधारा होती है, भविष्य को बेहतर बनाने का एक सपना होता है। 

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