मदिरा निषेध और मौत का जाम क्यों ?

सन् 1960 में गुजरात अलग राज्य बना तब सरकार ने महात्मा गांधी के विचारों को सम्मान देते हुए शराब पर पाबंदी लगा दी। तत्पश्चात कई अन्य राज्यों ने भी ऐसे पग  उठाए। जब सन् 1977 में आपातकाल के पश्चात जनता पार्टी की हकूमत केन्द्र में बनी तो मोरार जी भाई देसाई प्रधानमंत्री बने उन्होंने सत्ता में दो दिन ड्राई डे घोषित कर दिया। हमारे देश में कई राज्यों में शराब पर पाबंदी लगाई जाती रही जिनमें बिहार, हरियाणा, मिज़ोरम, नागालैंड और लक्ष्यद्वीप हैं परन्तु हरियाणा मदिरा निषेध लम्बी देर तक न रख सका क्योंकि पंजाब के बहुत से शराब के ठेके हरियाणा सीमा के निकट खुल गए थे, जिससे हरियाणा के नशे के आदी लोग पंजाब में आकर मदिरापान करते रहे जिससे हरियाणा को आबकारी नीति पर पुन: विचार करना पड़ा। नीतिश कुमार ने सन् 2015 में महिलाओं को सुकून देने की गरज़ से शराब पर पाबंदी लगा दी। खेद की बात यह है कि जहां-जहां भी यह पाबंदी लगी वहां-वहां ज़हरीली शराब की वजह से होने वाली मृत्यु दर बढ़ गई। जैसे कि सन् 1978 में गुजरात में 136 लोग इस ज़हरीली शराब के कारण मौत की चपेट में आ गए और यह सिलसिला रुक नहीं रहा। ऐसी घटनाओं पर जांच की घोषणाएं भी होती हैं और सियासी पारा भी चढ़ता रहता है। पंजाब में ऐसी ही दुखद घटना सामने आई जबकि पंजाब में शराब पर कोई पाबंदी नहीं। कुछ लोग ज़हरीली शराब पीने वालों की मजबूरी प्राय: यह बताते हैं कि  ठेकों पर शराब महंगी है। इसलिए श्रमिक और अन्य कामगर ऐसी शराब पी लेते हैं जिससे ऐसे भयानक हादसे हो जाते हैं। शराब माफिया भी इसके लिए जिम्मेदार है क्योंकि ऐसे लोगों को कानून की रत्ती भर भी परवाह नहीं होती न ही किसी की जिन्दगी लेने पर दर्द अनुभव करते हैं। एक अनुमान के अनुसार प्रति वर्ष ऐसी ज़हरीली शराब पीने से हमारे देश में दस हज़ार से ऊपर लोग मौत के घाट उतर जाते हैं। ज़हरीली शराब बनाने वाले ऐसे लोगों पर सरकार को टेढ़ी नज़र रखनी चाहिए और पुलिस से गाहे बयाहे जानकारी लेते रहना चाहिए। कुछ लोग तो पुलिस पर ऐसे लोगों से मिली भगत का आरोप भी लगाते हैं। एक बड़े मैगज़ीन में एक लेख इस बात के लिए प्रकाशित किया था जिसका शीर्षक था खाकी वर्दी में छप्पन  छेद। हम ऐसा नहीं मानते फिर भी कानपुर की घटना जिसमें विकास दुबे ने पुलिस के आठ लोगों को शहीद कर दिया था उसमें भी विकास दुबे की सहायता करने वाले कुछ पुलिस वाले आजकल जेल की हवा खा रहे हैं। एक ज़माना था पुलिस के लिए मुखबर (टाऊट) हुआ करते थे। ऐसा लगता है आजकल पुलिस के लिए सूचना स्रोत्र सूखे पड़े हैं। वरना जिस देश में दूध-दही की नदियां बहने की बात की जाती वहां शराब के दरिया कैसे बहने लगे। हमें याद है कि एक बार पंजाब में आबकारी नीति ऐसी बनी कि हर चौथी दुकान पर शराब बिकने लगी। पिछले दिनों शराब की होम डिलीवरी भी होने की बात सुनने को मिलती रही। यह खबरें भी समाचार पत्रों में पढ़ने को मिलती रहती हैं कि सैकड़ों शराब के बाक्स ट्रकों से पकड़े गए और पंजाब में शराब रखने पर केवल जुर्माना भरने की सज़ा दी जाती रही। इसका कारण यह बताया जाता रहा कि ऐसे शराब के तस्कर जब पकड़े जाते थे तो वे अपना धंधा जेल में बैठ कर ही आरंभ कर देते थे। कानून का वृक्ष काटने के लिए हर कुल्हाड़ी के पीछे एक बड़ा हाथ होता है। इसीलिए रसूखदार लोगों पर पुलिस हाथ डालने से कतराती है जब बहुत शोर हेता है तो कुछ कैमिस्टों की दुकानों पर छापामारी करके कुछ कैप्सूल पकड़ लिए जाते हैं। हैरानी की बात तो यह है कि कानून का भय यह कारोबार भी रोकने में असफल रहा। कम्युनिटी अगेंस्ट ड्रंकन ड्राइविंग ने बहुत समय पूर्व एक सर्वे किया था जिसके अनुसार शराबनोशी युवा वर्ग तक भी पहुंच गई और ज़हरीली शराब सस्ती होने के कारण कई युवकों की मृत्यु की खबरें भी मिलने लगीं। सरकारें यदि वक्त रहते ऐसी गैर कानूनी ज़हरीली शराब की बिक्री नहीं रोक पाती तो उन्हें इसके बदले समस्याओं की सौगत ही मिलेगी। महात्मा गांधी ने शराब की दुकानों पर पिक्टिंग शुरू करवाई थी। ऐसी पिक्ंिटग हरियाणा और बिहार में महिलाओं ने भी ज़ोर-शोर से की। एक बार संसद में यह शोर उठा कि एक सांसद लड़खड़ाता हुआ सदन में आता है और जब बोलता है तो उसके मुंह से बदबू आती है। देश में ज़हरीली शराब बनाने वाले लोगों की गिरफ्तारियां होती रहती हैं। मुकद्दमें भी चलते रहते हैं परन्तु एक बात कही जाती है कि शायद ही कोई राज्य अदालती आदेश पर दर्ज होने वाले मामलों के अलग से आंकड़े रखता होगा। ऊपरी तौर पर यही लगता है कि प्राथमिकी तौर पर दर्ज करने में पुलिस की आनाकानी और उसके नकारापन के चलते कई लोग ज़हरीली शराब के कारण जीवन लीला समाप्त कर लेते हैं जिनकी जानकारी जग जाहिर भी नहीं होती।