मेरे उपन्यासों का धरातल और नया उपन्यास ‘परी सुल्ताना’

हाल ही में प्रकाशित हुए मेरे उपन्यास ‘परी सुल्ताना’ (लोक गीत प्रकाशन, पृष्ठ 184, मूल्य 250 रुपये) के मुख्य पृष्ठ पर नूरजहां, अरुणा आसफ अली तथा  उशिमा रेखी की तस्वीर देख कर मेरे पाठक तथा मित्र प्यारे पूछते हैं कि क्या मेरा यह  नावल भी पंजाब के धरातल से बाहर के हैं। मैं उनका ध्यान अपने द्वारा शुरू में लिखे शब्दों की ओर दिलाता हूं। ये शब्द बताते हैं कि नावल की नायिका ईरानी मुसलमानों के घर जन्मी, पेशावर के बहावी सिखों ने गोद ली और पानीपत के बेदी हिन्दुओं के घर ब्याही गई महिला है। मेरे पाठक जानते हैं कि मेरे पहले दो उपन्यासों ‘ध्रू तारे’ तथा ‘गोरी हिरनी’ का धरातल भी पंजाब का नहीं है। ध्रू तारे गांधी ग्राम (दक्षिण भारत) के एक अनाथ आश्रम में पले बच्चों द्वारा अपने-अपने जीवन में हासिल की उपलब्थियों की बात करता है और गोरी हिरनी नाज़ी हिटलर की धारणा का शिकार हुई उस युवती की गाथा है, जिसे अपनी गलती का अहसास उस समय होता है जब वह मरने की कगार पर पहुंच जाती है। यह सबब की बात है कि मुझे अपने उपन्यासों के पात्रों की गतिविधियों को बहुत नज़दीक से जानने का अवसर मिला है, जिसे पंजाब के अन्य किसी लेखक के लिए जानना आसान नहीं था। यही कारण है कि मेरे पहले दो नावलों का अंग्रेज़ी तथा हिन्दी अनुवाद भी स्वीकार किया गया है। जहां तक परी सुल्ताना का संबंध है, इसकी नायिका के  साथ मेरी पत्नी सुरजीत कौर बहुत नज़दीक से विचरण कर रही है और मुझे भी उसे जानने के अनेक अवसर मिले हैं। वह इसी तरह की थी, जिस तरह का मैंने चित्रण किया है। समय तथा स्थान वास्तविकता के निकट हैं और नहीं भी। यदि अंतर है तो सिर्फ उतना ही जितना किसी भी सच को उपन्यास में ढालने के समय होना प्राकृतिक है। पहुंच थोड़ी भी इधर-उधर हो गई हो तो कह नहीं सकते। मैंने अपने द्वारा नायिका की आत्मा को पकड़ने का सच्चा प्रयास किया है।इतना ज़रूर है कि मैंने उसके पूरे के पूरे जीवन को अपने नावल का विषय नहीं बनाया।  उसकी कहानी को उस चरण पर खत्म कर देता हूं जहां मुझे लगता है कि मैं उसको उस मार्ग पर चलाने में सफल हो गया हूं, जिस पर वह चलना चाहती थी और आखिरी सांस तक चली। भावना क्या थी, यह जानने के लिए पाठकों को नावल पढ़ना पड़ेगा।मेरे उपन्यासों में मेरा पंजाबी क्यों नहीं बोलता? इसका मूल कारण यह है कि मैं अपने पंजाब में अपनी आयु के केवल पहले 18 वर्ष ही रहा हूं, शेष के सात दशक इससे बाहर। निश्चय ही मेरी अपनी पंजाबी पर पकड़ उतनी नहीं जितनी जसवंत सिंह कंवल, दिलीप कौर टिवाणा, गुरदयाल सिंह (मड़ी दा दीवा), अवतार सिंह बिलिंग, जतिन्दर हांस जैसों की थी और है। मैं उनके जैसा मार्ग अपनाता तो निश्चय था कि  सफल न हो पाता।  कुछ इस तरह जैसे कि वह मेरे जैसा धरातल पेश करने का प्रयास करते तो उन्होंने भी सफल नहीं होना था।मैं अपने लेखन काल में अपने ननिहाल या पैतृक गांव में दो-चार दिन से अधिक कभी नहीं गया। यह मेरा छोटा-सा आवागमन मुझे कहानियों की विषय वस्तु तो देता रहा, परन्तु उपन्यासों का नहीं। मेरी कहानियों का कथा संसार कैसा रहा है मुझे बताने की आवश्यकता नहीं। अच्छी कथाकारी कैसी है, वह भी नहीं। अपनी ओर से यही कहूंगा कि मैं हवाई किले बनाने में विश्वास नहीं रखता। वही लिखता हूं जिसकी रग-रग से अवगत हूं। मैंने बड़ी दुनिया देखी है। मेरी रचनाकारी मेरी दुनिया की देन है।
घड़का चम्बा, मैं और मेरे पुरखे
तरनतारन तहसील में पड़ते गांव घड़का के नवयुवक जुगराज सिंह का निर्दयी लुटेरों द्वारा छोटा-सा मोबाइल छीनने के लिए  की हृदयविदारक हत्या ने मुझे अपने बचपन में मरासियों द्वारा सुनाई कुल गाथा स्मरण करवा दी है। हमारे बुजुर्गों की पृष्ठ भूमि बताते समय वह हमें स्मरण करवाते थे कि हमारे गांव (सूनी होशियारपुर) की नींव रखने वाले बाबा करोड़ा सिंह घड़का चम्बा क्षेत्र से आये थे। कब और क्यों इस संबंधी भी बताते थे, जिसका मुझे स्मरण नहीं। खालसा राज की समाप्ति वाला समय होगा। 18वें दशक का। मेरा पैतृक गांव दोआबा में पड़ता है। मेरी शादी के समय नौशहरा पन्नुआं (तरनतारन) वाले मेरे ससुराल परिवार ने मेरे बारातियों को प्रीति भोज करवाते समय दो-तीन थालियां नौशहरा पन्नुआं गांव की उन बहुओं के लिए निकाली थी, जिनका मायके का घर घड़का का चम्बा गांव था। कौन सा गांव था मुझे नहीं पता। निश्चय ही वह गांव होगा, जिसमें संधू गोत्र वाले सिख रहते थे। अगर उस गांव का कोई निवासी यह पंक्तियां पढ़ कर मुझे अपने बारे बता सके तो मैं उसके साथ बातचीत करके खुश होना चाहूंगा। मैं कौन हूं ‘अजीत’ के पाठक जानते हैं। चंडीगढ़ में रहता हूं और मेरा मोबाइल नम्बर 9815778469 है।जहां तक जुगराज सिंह की निर्दयीपूर्ण हत्या का संबंध है, मुझे उसके अभिभावकों से हमदर्दी है। उनका दुख सांझा करने के लिए शब्द मेरा साथ नहीं दे रहे। भाणा मानने वाले शब्द केवल पारम्परिक हैं। मैं चाहूंगा कि पंजाब पुलिस उन हत्यारों को पकड़े और सज़ा दे। मेरे अनुसार वह नशेड़ी होंगे, जिन्होंने मोबाइल के पैसों से उस लाहन का सेवन करना था जो आजकल समाचार पत्रों की सुर्खियां बनी हुई हैं। मैं उनको लाहन के स्थान पर पुलिस का शिकार हुआ देखने का इच्छुक हूं। पुलिस द्वारा दिए जाने वाले उत्पीड़न देखने का।

अंतिका
(स़फदर मिज़रापुरी)
घर तों घर, घर का निशां भी नहीं बाकी सफदर
अब वतन में कभी जाएं भी तो मेहमान होंगे।