राजस्थान घटनाक्रम और कांग्रेस

मौजूदा काल में राजस्थान में कांग्रेस की सरकार का राजनीतिक संकट एक बार तो खत्म हो गया प्रतीत होता है, परन्तु इसने समूचे रूप में पार्टी की छवि को बेहद खराब कर दिया है। देश भर में मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब एवं छत्तीसगढ़ तथा केन्द्र शासित क्षेत्र पुड्डुचेरी तक कांग्रेस की सरकारें सिकुड़ कर रह गई थीं, परन्तु मध्य प्रदेश में कमलनाथ के मुख्यमंत्री होते हुए ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में जिस प्रकार कांग्रेस सरकार के विरुद्ध विद्रोह हुआ, जिस प्रकार भारतीय जनता पार्टी ने अवसर का लाभ उठाते हुए मुख्यमंत्री कमलनाथ को पटका मार कर अपनी सरकार बना ली, उससे भाजपा के लोकतंत्र विरोधी होने की आलोचना तो अवश्य हुई थी परन्तु इसने कांग्रेस के भीतर उत्पन्न हो चुकी कमज़ोरी को भी पूरी तरह से उजागर कर दिया था। इसके साथ-साथ यह भी स्पष्ट हो गया था कि पार्टी हाईकमान का प्रभाव भी काफी कम हो गया है। मध्य प्रदेश को लेकर पार्टी के भीतर निराशा का दौर अभी जारी था कि राजस्थान में सरकार के भीतर हुई उथल-पुथल ने कांग्रेस को जड़ों तक हिला कर रख दिया।महीने भर से मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के विरुद्ध सचिन पायलट एवं 18 अन्य विधायकों की ओर से विद्रोह का ध्वज उठा लेने के कारण आंकड़ा गणित के पक्ष से भी प्रदेश सरकार पूरी तरह डावांडोल होते नज़र आती रही है। इस समय विशेष तौर पर जिस प्रकार की बयानबाज़ी अशोक गहलोत ने की, वह भी अतीव निचले धरातल की प्रतीत होती थी। पायलट को उप-मुख्यमंत्री तथा प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटाये जाने से भी एक प्रकार से राजनीति में घमासान उत्पन्न हो गया था। इस पूरे काल में भारतीय जनता पार्टी पर कांग्रेस की ओर से ये आरोप लगाये जाते रहे कि वह प्रदेश सरकार को गिराने की योजनाएं बना रही है। भाजपा ने यहां भी मध्य प्रदेश जैसा खेल खेलने का यत्न किया था। वह पायलट एवं उनके साथियों को लेकर विधानसभा में अपनी संख्या बढ़ाने के प्रयासों में थी ताकि गहलोत सरकार को पटखनी दी जा सके, परन्तु राजस्थान भाजपा के भीतर भी वसुंधरा राजे सिंधिया गुट की ओर से पायलट को अपने साथ लेकर चलने के प्रति नकारात्मक रवैया ही अपनाया गया। लम्बी कवायद के बाद भी कांग्रेस के विद्रोही गुट का भाजपा के साथ कोई तालमेल सम्पन्न नहीं हो सका। इसलिए जहां पायलट एवं उनके साथियों को वापिस लौट कर राहुल गांधी के माध्यम से पुन: पार्टी एवं सरकार के साथ खड़े होना पड़ा, वहीं यह बात भाजपा के लिए भी लज्जाजनक कही जा सकती है क्योंकि वह राजस्थान में मध्य प्रदेश जैसा खेल खेलने में सफल नहीं हो सकी। इस बात ने एक बार फिर मौजूदा अवसरवादी राजनीति की पोल खोल दी है तथा यह भी कि आज के राजनीतिज्ञ बड़ी सीमा तक अपने लोगों के हित में प्रतिबद्ध नहीं रहते, अपितु राजनीतिक गणित के साथ अपनी कुर्सी को पक्का रखने को प्राथमिकता देते हैं। इस सारे घटनाक्रम ने कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व के संबंध में बन गये इस प्रभाव को और भी दृढ़ किया है कि आज न केवल यह पार्टी एक परिवार के इर्द-गिर्द घूमते हुये दिखाई दे रही है, अपितु यह स्वयं को मजबूत रखने में भी मात खा रही है। एक राष्ट्रीय पार्टी का इस सीमा तक कमज़ोर हो जाना लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं कहा जा सकता। आगामी समय में ऐसे घटनाक्रम इसे और भी कमज़ोर करने वाले सिद्ध हो सकते हैं। 

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द