‘आरसेप’ से अलग रह कर भारत ने सही किया या ़गलत ?

15नवम्बर, 2020 को चीन समेत एशिया प्रशांत महासागर क्षेत्र के 15 देशों ने बहुप्रतीक्षित ‘आरसीईपी’ यानी ‘द रीजनल कॉम्प्रीहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप’ संधि पर हस्ताक्षर कर दिये। पिछले डेढ़ साल से यह ऊहापोह बनी हुई थी कि भारत दुनिया की इस सबसे बड़ी व्यापार संधि में शामिल होगा या नहीं? अंतत: भारत ने इससे दूर रहने का ही फैसला किया। इस व्यापारिक संधि में 10 आसियान देश कम्बोडिया, बु्रनई, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, म्यांमार, फिलीपींस, सिंगापुर, थाईलैंड और वियतनाम शामिल हैं जबकि दक्षिण पूर्व एशिया से हटकर जो देश इसमें शामिल हैं, वे हैं दक्षिण कोरिया, चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड। इन 15 देशों की जीडीपी 26 लाख करोड़ डॉलर से भी ज़्यादा की है। साथ ही इस संधि में शामिल हुए देशों का समूचा अंतर्राष्ट्रीय व्यापार दुनिया के कुल व्यापार का लगभग 30 फीसदी है। 
इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि आरसेप व्यापार संधि कितने बड़े पैमाने की आर्थिक गतिविधि का नाम है। शायद इसके इस भारी भरकम आकार को देखते हुए ही, भारत में अब ऐसी सोच रखने वालों का एक बड़ा वर्ग बन गया है, जिन्हें लगता है कि हिंदुस्तान ने इस संधि में शामिल होने का अनुरोध ठुकराकर एक बड़ा व्यापारिक मौका हाथ से गंवा दिया है लेकिन अंतर्राष्ट्रीय कारोबार की पेचीदगियां और संधि समझौतों में वर्चस्वशाली देशों के अनुरूप की गतिविधियां एक ऐसा चक्रव्यूह होती हैं कि कई बार फायदे के अनुमान बड़े सरलीकृत साबित होते हैं। दरअसल आरसेप व्यापार संधि ने कोई एक दिन में अपना यह रूप ग्रहण नहीं किया बल्कि पिछले 8 सालों से यह कवायद चल रही थी और भारत इस दौरान इस बनने वाली संधि की जद-ओ-जहद में शामिल रहा है। 
वास्तव में आरसेप ने अपना आकार नवम्बर 2012 में ग्रहण किया था, जब कम्बोडिया में 10 आसियान देश और  फ्री ट्रेड एग्रीमेंट में शामिल 6 देश इसका हिस्सा थे। 2012 में पहली बार इस अवधारणा पर न केवल बातचीत शुरू हुई थी बल्कि उस बातचीत में भारत एक प्रमुख देश में रूप में शामिल था। इस समझौते की मूल आत्मा यह है कि सभी सदस्य देश आपस में कारोबार के लिए टैरिफ शून्य व्यवस्था बनाएंगे या फिर बहुत मामूली तथा एक जैसी टैरिफ  व्यवस्था सभी देश आपस में सदस्य देशों के लिए अपनाएंगे। इसके पीछे सोच यह है कि आपस में इन देशों में आयात निर्यात को स्वत: गति मिलेगी। इसके इस आकार प्रकार के पीछे एक धारणा यह भी थी कि इसके चलते अमरीका और यूरोप की तमाम बहुराष्ट्रीय कम्पनियां इन देशों के लिए मैन्यूफैक्चरिंग के लिए आकर्षित होंगी क्योंकि शून्य टैरिफ  के चलते इन कम्पनियों की उत्पादन लागत तो कम होगी ही, एक बड़ा बाज़ार भी आसानी से हासिल हो जायेगा।
लेकिन यह सब कुछ कागज में जितना आकर्षक है, व्यवहार में उतना ही कठिन है। कम से कम अगर समग्रता में देखें तो हिंदुस्तान को इससे फायदा कम, नुकसान ज्यादा होना था। दरअसल इस संधि में चीन की जो अगुवाई वाली और कमोबेश आक्रामक भूमिका है, उसके चलते भारत को इससे फायदा नहीं होना था। उल्टे चीन के प्रभाव के नीचे दब जाने जैसी स्थिति बनती। संधि में शामिल 15 देशों में से एक जापान को छोड़ दें तो चीन की वृहदाकार और पहल करने वाली आक्रामक अर्थ-व्यवस्था के सामने बाकी देशों की पीछे चलने वाली भूमिका है। चीन जैसा कि सब जानते हैं, उत्पादन में दुनिया का हब है और भारत खपत के लिहाज से दुनिया के सबसे बड़े और मजबूत बाज़ार में से एक है। ऐसे में आशंका यह थी कि यदि भारत इस व्यापारिक संधि का साझीदार बनता है और सदस्य देशों के लिए टैरिफ  शून्य उत्पादों के लिए अपने बाजार खोल देगा, तो भारत में चीनी उत्पाद पट जाएंगे।
चीनी उत्पाद दुनिया में सबसे सस्ते और कम से कम बाहरी रूपरंग देखने के आधार पर ज्यादा तकनीकी उन्नत भी हैं जबकि भारत का बाज़ार दुनिया के सबसे मज़बूत और ठोस उपभोक्ताओं वाला बाज़ार है। फिलहाल भले चीन को लेकर हमारे देश में थोड़ा तनाव का माहौल हो, लेकिन समग्रता में भारतीय मानसिक रूप से इतने मज़बूत नहीं हैं कि अगर उन्होंने चीनी उत्पादों को न बरतने का फैसला किया है तो उस पर अडिग रहेंगे। भारतीय उपभोक्ता बहुत असुरक्षित उपभोक्ता हैं और बाज़ार में सबसे किफायती सामानों को ढूंढते हैं। ऐसे में चीनी उत्पाद भारतीयों की सस्ते खरीदने की मानसिकता के अनुकूल होते हैं। इसलिए नतीजा यह होना था कि हम इशारों में या स्पष्ट रूप से भले कहते रहते कि स्थानीय और आसपास के उत्पादों का इस्तेमाल करें लेकिन व्यवहारिक रूप से भारतीय उपभोक्ता, चीनी माल पर ही टूटते। 
पिछले कुछ महीनों में हमने जिस तरह आत्म-निर्भर भारत को बनाये जाने का आह्वान किया है, यह संधि हमारे उस आह्वान को भी कमज़ोर साबित करती। सबसे बड़ी बात यह है कि आरसेप में चीन का प्रभुत्व होना तय है। ऐसे में अगर भारत इस संधि का सदस्य देश होता तो भारत पर चीनी वर्चस्व लगातार हावी रहता। इस लिहाज से देखें तो भारत का यह फैसला सही है, जिससे कि उसने आरसेप में शामिल न होने का फैसला किया है। इस संधि में यह बात भी देखने लायक है कि सभी शामिल देशों के साथ हिन्दुस्तान का अच्छा खासा कारोबार है और अभी तक यह कारोबार टैरिफ शून्य स्थिति में नहीं है। इससे यह भी होना तय था कि इस संधि में शामिल होते ही भारत आसियान के इन देशों को अभी जिस मूल्य में अपना सामान निर्यात कर रहा था, उससे कम मूल्य में निर्यात करना पड़ता।
इससे भी भारत को फायदा कम, नुकसान ज़्यादा होना था। हालांकि किसी भी बड़े कारोबारी संगठन का हिस्सा होने के चलते सिर्फ  तात्कालिक फायदेभर नहीं होते, कई दूरगामी फायदे भी मिलते हैं लेकिन इस क्रम में भारत को अलग से फायदा इसलिए नहीं होना था, क्योंकि भारत के पहले से ही एक चीन को छोड़कर इस संधि के लगभग सभी देशों के साथ अच्छे व्यापारिक रिश्ते हैं। कहने का मतलब जो लोग इस संधि में शामिल होने के बाद एक बड़े बाज़ार की स्वत: मौजूदगी का लालच देख रहे हैं, वह इतना आसान नहीं है। उल्टे भारत को नुकसान ही हो सकता था। इस लिहाज से देखें तो आरसेप में शामिल न होने का भारत का मौजूदा फैसला अपने हितों के ज्यादा निकट और अनुकूल है।  
 -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर