सबसे पुरातन मूर्ति शिल्प कला डोकरा

भारतीय उपमहाद्वीप में धातु मूर्तिशिल्प की बात करें तो माना जाता है कि हमारे यहां हजारों साल पहले से इसकी परंपरा रही है। धातुओं की खोज और मूर्ति निर्माण का ज्ञान ईसा पूर्व से ही भारतवासियों को था। उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर मोहनजोदड़ो से प्राप्त नर्तकी की प्रतिमा को सबसे पुराना धातु मूर्तिशिल्प का दर्जा प्राप्त है, इसका काल तीसरी सदी ईसा पूर्व माना जाता है। दिल्ली में स्थित कुतुबमीनार परिसर में स्थापित प्रसिद्ध लौह स्तंभ का काल निर्धारण पुरातत्वविदों द्वारा 310 ईस्वी किया गया है।  लगभग तीन हज़ार वर्ष पहले से भारतीय शिल्पकार पांच प्रकार के धातुओं के मेल से प्रतिमाओं का निर्माण करते रहे हैं, इसके बाद अष्टधातु के उपयोग के अनेकों उदाहरण हमारे सामने हैं।
सिकंदर महान के दौर में भी तलवारों व आयुधों के निर्माण के लिए मध्यपूर्व और यूरोप में भारत से धातु मंगाने के प्रमाण हैं। अपने यहां के प्राचीन ग्रंथों में भी धातु मूर्तिशिल्प परंपरा और इसकी निर्माण प्रक्रिया के वर्णन मिलते हैं। ऋग्वेद, अथर्ववेद, शतपथ ब्राह्मण, यजुर्वेद, तैतरीय संहिता से लेकर बौद्ध ग्रंथ सूतनिपात में धातुओं के उपयोग का वर्णन है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में वन अधिकारी के साथ ही खदान के अधिकारी का जिक्र मिलता है। वर्तमान में धातु से प्रतिमा निर्माण की यह परंपरा दक्षिण भारत के साथ-साथ उत्तर भारत के आदिवासी इलाकों में पायी जाती है। मध्यप्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिसा और पश्चिम बंगाल के आदिवासी अंचलों में जो मूर्तिशिल्प निर्माण की परंपरा आज भी जारी है उसे हम डोकरा या ढोकरा कास्टिंग के नाम से जानते हैं। 
जनजातियों में डोकरा समुदाय से आने वाले लोगों के द्वारा यह कार्य किया जाता है इसीलिए इसका नामकरण इस जाति के नाम पर किया गया है। धातुकर्म में माहिर मानी जाने वाली यह जाति भी घूमंतु समुदाय से रहा है अत: विभिन्न क्षेत्रों में मौजूद इस कार्य से जुड़े लोग अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग नाम से जाने जाते हैं। यह कहना मुश्किल है कि यह सभी जातियां एक ही जाति का विस्तार है या यह वास्तव में अलग-अलग समुदाय से आती हैं। इस शैली से निर्मित प्रतिमाओं व पात्रों की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता जहां इसका अनूठा शिल्प है वहीं बारीक से बारीक नक्काशियों का होना। दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है कि इसे स्थानीय स्तर पर उपलब्ध संसाधनों की मदद से तैयार किया जाता है। जबकि धातु निर्माण की पश्चिमी शैली में इसके लिए कारखाना टाइप के बड़े सेटअप का होना जरूरी माना जाता है।विभिन्न इलाकों में अलग-अलग जनजाति समुदाय के लोग इस कार्य से जुड़े हैं। जो पीढ़ी दर पीढ़ी इस कार्य को करते रहे हैं। झारखंड में रांची के आसपास मलार जाति के आदिवासियों द्वारा इस पद्धति से मूर्तियों और बर्तनों का निर्माण किया जाता है। जबकि छोटा नागपुर के इलाके में असुर जनजाति द्वारा यह कार्य किया जाता है। आदिवासियों की रोजमर्रा की जिंदगी में कृषि उपकरणों और शिकार के लिए हथियारों के निर्माण में इस धातुशिल्प की आवश्यकता सदियों से बनी रही। किन्तु अब पारंपरिक व्यवसाय में आते बदलाव और अन्य कारणों से इसकी आवश्यकता कम होती चली जा रही है। निर्माण प्रक्रिया की बात करें तो इसके लिए मधुमक्खी के छत्ते से प्राप्त मोम (बीवैक्स) और सखुआ के गोंद से बने रेजीन जिसे स्थानीय भाषा में धूमन कहते हैं का प्रयोग किया जाता है। विदित हो कि इस प्रक्रिया में पहले मोम का सांचा तैयार करते हैं फिर उसके अंदर और बाहर मिट्टी और ईंट के बुरादों के मिश्रण का लेप करते हैं। इस सांचे के सूखने के बाद इसे आग के अंदर डालते हैं जिससे इसके अंदर का मोम जल जाता है फिर उस खाली जगह में पिघला हुआ धातु डालते हैं। ठंडा होने के बाद सांचे को तोड़कर प्रतिमा या पात्र को बाहर निकाल लेते हैं। इस प्रक्रिया में लागत को कम करने के लिए कुछ जगह तारकोल या कोलतार का भी उपयोग बीवैक्स की जगह करने लगे हैं।हालांकि विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा अपने स्तर से इन शिल्पकारों को संरक्षण देने और इनकी कृतियों को बाजार मुहैय्या कराने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं। किन्तु इसका दु:खद पक्ष यह है कि इन सबके बावजूद इससे जुड़ी जातियों में इस कार्य को छोड़े जाने की प्रवृति बढ़ती जा रही है। स्थानीय स्तर पर खरीदारों का अभाव व इसके विक्रय में बिचौलियों के द्वारा शोषण जैसे तमाम कारणों से इसे वे अपने अर्जन के लिए पर्याप्त नहीं मानते हैं। कतिपय इन्हीं कारणों से झारखंड के मलार समुदाय की औरतें गोदना का काम भी करने लगीं। लेकिन इन्हें वहां भी ब्यूटी पार्लरों में गोदना या टैटू के लिए अपनायी जाने वाली नई तकनीक की चुनौतियों से निपटना पड़ रहा है। आज हमारे महानगरों के बाजार में इस शैली से निर्मित मूर्तियों, आभूषणों, बर्तनों और अन्य सजावटी वस्तुओं को आसानी से देखा जा सकता है। हालांकि हमारे समाज में आज इसका उपयोग ज्यादातर ड्राइंग रुम की सजावट तक ही सीमित होकर रह गया है। जबकि आवश्यकता यह है कि इसके लिए बड़े बाजार की संभावनाओं को तलाशा जाए, साथ ही आधुनिक तकनीक का समावेश करके इसे बाजारू प्रतिस्पर्धा में टिकने लायक बनाया जाए। तभी शायद हमारे प्रधानमंत्री के मेक इन इंडिया जैसे नारों का औचित्य भी बरकरार रह पाएगा।

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