सीबीआई जांच के लिए राज्यों की इजाज़त का मामला

कुछ आरोपियों, जिनमें उत्तर प्रदेश सरकार के दो कर्मचारी भी शामिल हैं, ने प्राइवेट पार्टियों व एक कम्पनी के साथ, भ्रष्टाचार के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट में अपील के ज़रिये अपने विरुद्ध सीबीआई जांच की वैधता को चुनौती दी थी। वास्तव में यह जांच राज्य सरकार से पूर्व अनुमति लिए बिना की गई थी, इसलिए उनके खिलाफ  जो मामला बनाया गया है, वह कानून की दृष्टि में अमान्य है लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस अपील को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत उत्तर प्रदेश राज्य ने 1989 में ही डेली स्पेशल पुलिस एस्टैब्लिश्मेंट (डीएसपीई) एक्ट, जो सीबीआई को भी रेगुलेट करता है, के सदस्यों को अपनी शक्तियों व कार्यक्षेत्र का विस्तार करने हेतु सामान्य मंजूरी प्रदान कर दी थी, इसलिए इस मामले में पूर्व अनुमति की आवश्यकता नहीं थी। बहरहाल सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया है कि इस प्रकार की कोई जांच उन जनसेवकों के संदर्भ में आगे नहीं की जा सकती जो राज्य सरकार के नियंत्रण में हों यानी जिन जनसेवकों पर भ्रष्टाचार का संदेह या आरोप है, उनकी जांच सीबीआई बिना राज्य सरकार की अनुमति के नहीं कर सकेगी। अत: जहां तक प्राइवेट व्यक्तियों की बात है, उनके खिलाफ सीबीआई जिन राज्यों ने डीएसपीई के सदस्यों को अपनी शक्तियों व कार्यक्षेत्र का विस्तार करने हेतु सामान्य मंजूरी दी हुई है उनमें एफआईआर दर्ज कर सकती है व जांच भी कर सकती है। दूसरे शब्दों में यह ‘सामान्य मंजूरी’ प्राइवेट व्यक्तियों व प्राइवेट कम्पनियों तक के लिए सीमित कर दी गई है। अगर राज्य सरकारें चाहेंगी तो अपने कर्मचारियों को जांच की अनुमति न देकर ‘रक्षा’ प्रदान करा सकती हैं, भले ही वह प्राइवेट व्यक्तियों या कम्पनियों से भ्रष्टाचार में सांठ-गांठ में हों।केंद्र में सत्तारूढ़ दलों पर ये आरोप लगते रहे हैं कि व राजनीतिक कारणों से केन्द्रीय जांच एजेंसियों विशेषकर सीबीआई का दुरुपयोग करते रहा है। स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने भी सीबीआई को ‘पिंजरे में बंद तोता’ कहा है जो अपने आका (पढें़ केंद्र सरकार) के इशारे पर ‘बोलता’ है। इसलिए विपक्षी पार्टियां यह मांग करती रहती हैं कि सीबीआई को केन्द्रीय गृह मंत्रालय के नियंत्रण से निकालकर स्वयत्तता प्रदान की जाये ताकि उसके कार्य में निष्पक्षता लायी जा सके। मगर विरोधाभास यह है कि सत्ता पाने के बाद ये पार्टियां अपनी मांग भूल जाती हैं, जिससे सीबीआई का ‘राजनीतिक दुरुपयोग’ पहले की तरह ही चलता रहता है। गौरतलब है कि सीबीआई के तथाकथित राजनीतिक दुरुपयोग को मद्देनजर रखते हुए या इसका आरोप लगाते हुए आठ गैर-भाजपा शासित राज्यों ने सी.बी.आई. से सामान्य मंजूरी को वापस ले लिया है, जिसका अर्थ यह है कि अब इन राज्यों में बिना राज्य सरकार की पूर्व अनुमति के सीबीआई नए मामलों की जांच नहीं कर सकती है। इस संबंध में सीबीआई को अपने यहां सामान्य जांच की इजाज़त न देने वाला पहला राज्य आंध्र प्रदेश था, लेकिन जगनमोहन रेड्डी की सरकार आते ही आंध्र प्रदेश ने फिर से सीबीआई को बिना अनुमति राज्य में जांच की इजाज़त प्रदान कर दी। जिन राज्यों ने सामान्य मंजूरी वापस ली हुई है, वे हैं पंजाब, झारखंड, केरल, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, छत्तीसगढ़ व मिज़ोरम। सुप्रीम कोर्ट ने इन राज्यों के निर्णय को उचित मानते हुए कहा है, ‘ज़ाहिर है, यह बात संविधान के संघीय चरित्र के अनुरूप है, जोकि संविधान की बुनियादी संरचनाओं में से एक है।’ दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने बिना किसी लाग-लपेट के स्पष्टत: यह कहा है कि सीबीआई जांच के लिए राज्य सरकार की अपने संबंधित कार्यक्षेत्र में आवश्यक पूर्व अनुमति का जो प्रावधान है, वह संघवाद के सिद्धांत के एकदम अनुरूप है और केंद्र बिना राज्य सरकार की अनुमति के सीबीआई के कार्यक्षेत्र का विस्तार नहीं कर सकता। डीएसपीई एक्ट की धारा 5 व 6 का संदर्भ देते हुए न्यायाधीश एएम खानविलकर व न्यायाधीश बीआर गवई की खंडपीठ ने कहा, ‘हालांकि यह देखा जा सकता है कि धारा 5 केंद्र सरकार को इजाज़त देती है कि डीएसपीई के सदस्यों की शक्तियों व कार्यक्षेत्र का विस्तार केंद्र शासित प्रदेशों से आगे राज्यों में भी कर दे, लेकिन यह विस्तार तब तक नहीं किया जा सकता जब तक राज्य अपने से संबंधित क्षेत्र में ऐसा करने की मंजूरी डीएसपीई एक्ट की धारा 6 के तहत न दे दें।’इसमें कोई दो राय नहीं कि श्रीमती इंदिरा गांधी के समय से ही केंद्र सरकारों ने देश के संघीय ढांचे को कमजोर करने का प्रयास किया और अगर केंद्र व राज्यों में एक ही पार्टी की सरकारें रही हैं तो संघवाद बिना किसी रोकटोक के कमजोर किया गया है। यह बात संविधान की मूल भावना के विरुद्ध है। अगर संघवाद कमजोर पड़ता है तो देश में तानाशाही का खतरा बढ़ जाता है, जैसा कि 70 के दशक में लगी आपातस्थिति के दौरान देखने को मिला था। इस समय भी देखें तो डीएसपीई के सदस्यों को अपनी शक्तियों व कार्यक्षेत्र का विस्तार करने हेतु सामान्य मंजूरी सिर्फ  गैर-भाजपा शासित राज्यों ने ही नहीं दी है।जिन राज्यों ने सामान्य मंजूरी वापस ली है, उनको लगता है कि केंद्र सरकार के इशारे पर सीबीआई राजनीतिक हथियार बन जाती है और सत्य व संघवाद को दफन करने का प्रयास करती है। मिसाल के तौरपर महाराष्ट्र का मामला लेते हैं। एक्टर सुशांत सिंह राजपूत ने आत्महत्या की, जिसके कारणों की जांच मुम्बई पुलिस कर रही थी। फिर इस मामले में एक एफआईआर पटना में दर्ज हुई और यह मामला सीबीआई को सौंप दिया गया। महाराष्ट्र सरकार को लगा कि टीआरपी घोटाले में भी यही खेल खेला जा सकता है; क्योंकि उत्तर प्रदेश पुलिस ने लखनऊ में इस मामले से एक असंबंधित व्यक्ति की शिकायत पर एफआईआर दर्ज कर ली थी, इसलिए उसने अक्टूबर में सामान्य मंजूरी को वापस ले लिया।केंद्र व राज्य सरकारों के बीच जो संबंधों का ब्रेकडाउन हुआ है, जैसा कि महाराष्ट्र सरकार के निर्णय से स्पष्ट है, वह पोलिटी के लिए, सहयोगी संघवाद के लिए और सीबीआई के लिए भी अच्छा नहीं है। राष्ट्रीय जीवन के अति महत्वपूर्ण क्षेत्र में सीबीआई अहम संस्था है और वह केंद्र व राज्यों के बीच लिंक भी है। वह कमज़ोर हो जाती है जब वह अपनी विश्वसनीयता खो देती है और राज्य उसे ठुकरा देते हैं। हालांकि इस समय देश के संघीय ढांचे को बचाए रखने में अकेले सुप्रीम कोर्ट का ही प्रयास ज़ाहिर हो रहा है, लेकिन इस दिशा में केंद्र व राज्यों को मिलकर काम करने की आवश्यकता है और साथ ही यह भी ज़रूरी है कि पुलिस सुधारों के साथ सीबीआई व अन्य जांच एजेंसीज को स्वयत्तता प्रदान की जाये।      

    
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