संकीर्णता के दायरे में बंगाल का शासन और प्रशासन    

बंगाल के मुख्य सचिव और पुलिस प्रमुख ने केंद्रीय गृह मंत्रालय के समन को जिस तरह ठुकराया और दिल्ली जाकर गृह सचिव से मुलाकात करने से इंकार किया, वह केवल राज्य प्रशासन के शीर्ष स्तर पर की जाने मनमानी ही नहीं बल्कि लोकतांत्रिक तौर-तरीकों का निरादर भी है। दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव प्रचार की कड़ी में भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष के काफिले पर पत्थरबाजी हुई जिसमें कई नेता घायल हुए। बुलेटप्रूफ कार के कारण पार्टी अध्यक्ष बच गए। आरोप है कि राज्य की पुलिस पत्थरबाजी देखती रही। 
हालांकि बंगाल में विधानसभा चुनाव अगले साल हैं लेकिन हिंसक राजनीतिक टकराव का सिलसिला यही बताता है कि हिंसा-हत्या के सहारे चुनाव जीतने की परम्परा यहां बहुत पुरानी  है। बंगाल में शायद ही कोई सप्ताह ऐसा गुजरता हो जब राजनीतिक हिंसा की वारदात न होती हो। बीते सप्ताह ही तृणमूल कांग्रेस और एक वामपंथी संगठन के बीच झड़प में दोनों पक्षाें के एक-एक नेता की जान गई। इससे पहले एक ही दिन अलग-अलग घटनाओं में पांच लोग मारे गए थे।  इससे पहले जुलाई में बंगाल के उत्तर दिनाजपुर जिले में भाजपा विधायक देबेंद्रनाथ जिस तरह एक दुकान के बाहर फांसी के फंदे पर लटके मिले, उससे यह अधिक लगता है कि उनकी हत्या की गई है। इस आशंका को इससे भी बल मिल रहा है कि उनका शव सार्वजनिक जगह पर लटकता मिला। एक तो कोई भी सार्वजनिक तौर पर फांसी लगाकर आत्महत्या नहीं करता और दूसरे यह समझना कठिन है कि आखिर कोई विधायक इस तरह जान क्यों देगा? 
जेपी नड्डा के काफिले पर हमला राजनीतिक हिंसा और असहिष्णुता की पराकाष्ठा है। नड्डा के काफिले में शामिल सभी भाजपा नेताओं की गाड़ियों पर पथराव किया गया। इसका मतलब है कि भाजपा अध्यक्ष के कार्यक्र म की पूर्व सूचना होने के बावजूद सुरक्षा प्रबंध करने में भी ढिलाई बरती गई। 
बंगाल में राजनीतिक हिंसा नई नहीं है लेकिन वर्तमान सरकार में वह उसी स्तर को छूते दिख रही है जैसे वाम दलों के शासन के समय दिखती थी। चूंकि ऐसे हमले हद पार करते जा रहे हैं, इसलिए केंद्र सरकार के लिए यह स्वाभाविक है कि वह इन्हें लेकर अपनी चिंता व्यक्त करती। यह संभव नहीं कि बंगाल के मुख्य सचिव और पुलिस प्रमुख ने दिल्ली जाने से इन्कार करने का फैसला अपने स्तर पर किया। यह मानने के अच्छे भले कारण हैं कि इस फैसले के पीछे खुद मुख्यमंत्री का उकसावा रहा होगा। 
चुनाव प्रजातंत्र की अपरिहार्य प्रक्रि या है। यह ठीक है कि अपने देश में जो संघीय व्यवस्था है, उसके तहत कानून एवं व्यवस्था राज्यों का विषय है लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि कानून एवं व्यवस्था के समक्ष गंभीर चुनौतियां खड़ी हो जाने के बाद भी केंद्र सरकार चुपचाप बैठी रहे। यह देखना दयनीय है कि जब राजनीतिक हिंसा के लिए बदनाम अन्य राज्य उससे मुक्त हो रहे हैं, तब बंगाल और केरल में वह बेलगाम होती दिख रही है। 
बंगाल राजनीतिक हिंसा के लिए हमेशा से कुख्यात रहा है। वाम दलों के लंबे शासन में यहां राजनीतिक हिंसा को खूब बढ़ावा मिला क्योंकि वाम विचारधारा विरोधियों से निपटने के लिए उनका खात्मा करना जायज़ मानती है। माना जा रहा था कि तृणमूल कांग्रेस का शासन राजनीतिक हिंसा के खूनी दौर पर लगाम लगाएगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने वाम दलों के ही हिंसक तौर-तरीके अपना लिए। वास्तव में तृणमूल कांग्रेस ने खुद को एक तरह से वाम दलों में तब्दील कर लिया है। हालात इसलिए और खराब हो गए हैं क्योंकि राजनीतिक हिंसा में लिप्त तत्वों को पुलिस, प्रशासन का भी संरक्षण मिलता है।  हकीकत यह है कि 70 वर्षों में हमारा प्रजातंत्र इतना कम़ज़ोर हो गया है कि पुलिस का व्यवहार आईपीसी या संविधान से नहीं, सरकार किसकी है, इससे तय होने लगा है। जन प्रतिनिधि किसी धर्म विशेष की लानत-मलानत इसलिए भी करने लगे कि सरकार उन्हें थ्रेट परसेप्शन के तहत भारी सुरक्षा दे दे ताकि उनकी दुकान चले।
यदि सत्तारूढ़ राजनीतिक दल इस तरह का मनमाना आचरण प्रदर्शित करेंगे तो इससे भारतीय लोकतंत्र की अपरिपक्वता ही रेखांकित होगी। नि:संदेह केवल नेताओं को ही परिपक्वता का परिचय देने की आवश्यकता नहीं है। परिपक्व आचरण की अपेक्षा नौकरशाहों और विशेष रूप से शीर्ष पदों पर बैठे अफसरों से भी की जाती है। यह ठीक नहीं कि जिन नौकरशाहों से नियम-कानूनों और संविधान के अनुकूल आचरण करने की अपेक्षा की जाती है, वे नेताओं की कठपुतलियों की तरह से आचरण करते हुए दिखें। (युवराज)