विवादित कृषि कानूनों का समग्र आकलन बहुत ज़रूरी

वर्ष 2020 में जल्दबाजी में पारित किए गए कृषि कानूनों का जितना विरोध देश में हुआ है वैसा बहुत कम देखा गया है। इन्हें  ‘काले कानून’ बताते हुए किसानों ने इनके विरुद्ध बहुत व्यापक आंदोलन किया है जिसे देश के अनेक वर्गों का समर्थन भी मिल रहा है। यह कानून कृषि उत्पादन पद्धति में कांट्रेक्ट पद्धति की राह प्रशस्त करते हैं जबकि कृषि उपज भंडारण व बिक्री में भी महत्त्वपूर्ण बदलाव लाते हैं। किसान आन्दोलनों ने इन कानूनों को वापस लेने की मांग की है व कुछ प्रतिष्ठित विशेषज्ञों ने भी इस मांग का समर्थन किया है।
 विश्व कृषि व खाद्य व्यवस्था हाल के दशकों में संकट से जूझती रही है जिसका मुख्य पक्ष यह है कि अति शक्तिशाली कार्पोरेट तत्व इस पर अपना नियंत्रण बढ़ाने का प्रयास निरंतर कर रहे हैं। उनके प्रयास मुनाफा बढ़ाने तक सीमित नहीं हैं अपितु कृषि व खाद्य व्यवस्था पर अपना नियंत्रण भी बहुत बढ़ाना चाहते हैं। जब विभिन्न देशों की सरकारों व अन्तर्राष्ट्रीय संस्थानों का समर्थन उन्हें मिलता है तो यह मिलन बहुत शक्तिशाली हो जाता है। 
कृषि विकास के नाम पर बहुत चालाकी से इस तरह की हानिकारक प्रवृत्तियों को बढ़ाया गया है। इनकी स्वीकृति बढ़ाने के लिए कुछ बड़े किसानों व उनके प्रतिनिधियों को भी इस प्रक्रिया से जोड़ा जाता है व समय-समय पर सरकारें कुछ राहत की घोषणा भी करती हैं। इसके बावजूद नियंत्रण बढ़ाने की मूल प्रवृत्ति बढ़ती रहती है व किसानों की मांगें भी प्राय: कुछ तत्कालीन राहत (जैसे कुछ कर्ज समाप्त करना) तक ही सिमट कर रह जाती है। इसके अतिरिक्त बहुपक्षीय और द्विपक्षीय व्यापार समझौतों में भी प्राय: धनी देश व कार्पोरेट हित हावी होने व ऐसे प्रावधान रखवाने का प्रयास करते हैं जो विशेषकर विकासशील देशों के छोटे व मध्यम किसानों के लिए हानिकारक होते हैं।
इन सभी प्रवृत्तियों का असर भारत के किसानों पर भी देखा जा रहा है। यहां अधिकांश किसान छोटे व मध्यम  हैं व उन पर इन विभिन्न प्रवृत्तियों का प्रतिकूल असर बढ़ते कृषि खर्च, कर्ज व बिक्री की कठिनाई के रूप में नजर आता रहा है। दूसरी ओर किसान समर्थन के चुनावी महत्त्व के बीच किसानों की आजीविका की सुरक्षा के कुछ प्रयास भी हुए हैं, जैसे न्यूनतम मूल्य सुनिश्चित करना, जो कुछ राज्यों में मजबूत हैं तो कुछ राज्यों में कमजोर। दूसरी ओर इन सुरक्षा व्यवस्थाओं को कमजोर करने के प्रयास भी अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार समझौतों व संगठनों (जैसे विश्व व्यापार संगठन) व कार्पोरेट स्वार्थों की ओर से होते रहते हैं। कार्पोरेट हित चाहते हैं कि उनके नियंत्रण व मजबूत स्थिति को कानूनी मान्यता भी प्राप्त हो। तभी वे अपने निवेश को और तेजी से बढ़ाएं। इस व्यापक संदर्भ में ही वर्ष 2020 के तीन विवादित कृषि कानूनों की बहस को देखना चाहिए। यह भी देखते हुए कि मौजूदा केन्द्रीय सरकार विशेषकर कुछ बड़े कार्पोरेट हितों से अधिक नजदीकी के लिए चर्चित रही है।
इनमें से एक कानून कांट्रैक्ट खेती के लिए अधिक बड़ी भूमिका को आगे बढ़ाता है। किंतु विश्व स्तर पर कांट्रैक्ट खेती का अनुभव प्राय: छोटे व मध्यम किसानों के लिए प्रतिकूल रहा है। प्राय: कांट्रैक्ट वाली कंपनी अपने महंगे उत्पादों, तकनीकों को किसानों पर लादती रहती है जिससे उनका खर्च बढ़ जाता है व स्वतंत्रता कम हो जाती है। खरीद के समय फसल का उचित वर्गीकरण न कर, गुणवत्ता कम आंक कर प्राय: किसानों को कम मूल्य दिया जाता है। हाल ही में बनाए गए कांट्रैक्ट कृषि कानून की इस आधार पर भी आलोचना हुई है कि इसके कुछ प्रावधान बहुत स्पष्ट नहीं हैं, कंपनियों के हित में हैं व इसे सिविल कोर्ट की सामान्य परिधि से बाहर रखा गया है।
 सबसे महत्त्वपूर्ण खाद्यों सहित विभिन्न कृषि उत्पादों के भंडारण पर लगे नियंत्रणों व सीमाओं को हटा कर इनमें अधिक मुनाफाखोरी के द्वार खोल दिए हैं। इससे किसानों के लिए बनी मंडी व न्यूनतम समर्थन मूल्य आधारित सीमित सुरक्षा व्यवस्था से दूर हटने का संकेत मिलता है जिसकी तीखी आलोचना किसान आंदोलन ने की है। दूसरी ओर सरकार का कहना है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य व ए.पी.एम.सी. मंडी बने रहेंगे। बेशक यह भी बने रहें, पर इनके महत्त्व व भूमिका को कम करने व निजी क्षेत्र का नियंत्रण बढ़ाने का संकेत तो इन कानूनों में मिलता ही है। उसके बाहर टैक्स रहित, अनियंत्रित बिक्त्री की जगह बढ़ाई जा रही है, कांट्रैक्ट फार्मिंग से उत्पादन में भी उसकी भूमिका बढ़ाई जा रही है। निजी क्षेत्र का नियंत्रण बढ़ने व सुरक्षित व्यवस्था घटने से किसानों को आज नहीं तो कल, हानि सहनी पड़ेगी। यह किसान संगठनों के विरोध का एक बड़ा कारण है। नए बदलावों को सिविल कोर्ट से बाहर रखने के कारण भी संदेह बढ़ा रहे हैं।
इसके अतिरिक्त नए कानूनों का भूख, कुपोषण को कम करने व खाद्य सुरक्षा स्थापित करने के बेहद जरूरी उद्देश्य पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा। विशेषकर निर्धनता व अनेक लोगों की कम क्त्रय शक्ति के माहौल में, बाजार-व्यवस्था स्वत: सबसे जरूरी खाद्यों के उत्पादन व उपलब्धि की गारंटी भी नहीं देती है। इसके अतिरिक्त जिस दिशा में नए कानून ले जाते हैं, उस राह पर टिकाऊ खेती व पर्यावरण रक्षा के उद्देश्यों की भी क्षति होगी।  हमारी कृषि की मौजूदा चिंताजनक स्थिति को ये कानून सुधारने के स्थान पर और बिगाड़ने की दिशा में ले जाते हैं। 
फसलों का चुनाव व कृषि तकनीक का चुनाव किसी स्थान की मिट्टी, पानी, जैव-विविधता, पर्यावरण आदि के आधार पर इनके संरक्षण को ध्यान में रखते हुए होना चाहिए पर कांट्रैक्ट खेती में फसलों का चुनाव विश्व बाजार में मुनाफा अर्जित करने के आधार पर होता है। किसी स्थान के पर्यावरण की दीर्घकालीन रक्षा  से कंपनी का लगाव प्राय: नहीं होता है।  इसके अतिरिक्त इन नए कृषि कानूनों के माध्यम से राज्य के अधिकारों व विकेन्द्रीकरण (पंचायती राज) पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा। कृषि में केन्द्रीय सरकार का अत्यधिक नियंत्रण उचित नहीं है क्योंकि निर्णय स्थानीय स्थितियों के अनुकूल होना जरूरी होता है। तिस पर यदि राष्ट्रीय नीति पर कार्पोरेट हित हावी हो जाएं तो यह अत्यधिक नियंत्रण और भी हानिकारक सिद्ध हो सकता है, जैसा कि इन कानूनों में देखा जा रहा है। इन तीन कानूनों को तेजी से आगे लाने में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का कई स्तरों पर उल्लंघन हुआ। किसानों व उनके संगठनों से विमर्श बहुत कम हुआ। उनका विरोध मुखर होने पर भी इसकी ओर  ध्यान नहीं दिया गया। कानून अध्यादेश के रूप में बहुत जल्दबाजी में लाए गए, व संसदीय समिति को सौंपे बिना ही लोक सभा में जल्दबाजी में पारित हुए।
अत: इन तीनों विवादित कानूनों को वापस लिये जाने के अतिरिक्त अन्य अनेक महत्त्वपूर्ण न्याय व पर्यावरण तथा रक्षा आधारित कृषि मुद्दों पर भी ध्यान देना जरूरी है।
-फोन : 25255303