सरकारों के लिए काम-धेनु गाय है पेट्रोल-डीज़ल

भारत में पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतें और करारोपण तय किये जाने की नीति हमेशा ही एक अबूझ पहेली रहती आयी है। करीब एक दशक पूर्व तक भारत में डीजल और दो दशक पूर्व तक पेट्रोल के मूल्य पूरे तौर से सरकारों द्वारा निर्धारित किये जाते थे। इस नीति के अंतर्गत चारो पेट्रोलियम उत्पादों- पेट्रोल, डीजल, एलपीजी और किरोसिन पर सरकारें एक तरफ कर लगाती थीं तो दूसरी तरफ  इन चारों उत्पादों पर क्षेत्रवार उपयोगिता के आधार पर सब्सिडी भी प्रदान करती थीं। परंतु नयी आर्थिक नीति के दौर में यह माना गया कि वित्तीय घाटा को सकल घरेलू उत्पाद के तीन फीसदी तक नियंत्रित रखने की कानूनी बाध्यता अपनानी है तो उसके मातहत अर्थ-व्यवस्था के फ्यूल, फर्टिलाइजर और फूड को बड़ी सब्सिडी से मुक्त किया जाना जरूरी है। इसके तहत सबसे पहले वाजपेयी नीत राजग सरकार ने पेट्रोल की कीमतों को सब्सिडी मुक्त कर बाजार के हवाले कर दिया। करीब एक दशक बाद संप्रग-2 सरकार ने डीजल को भी सब्सिडी से मुक्त कर बाजार के हवाले कर दिया जबकि कैरोसिन और एलपीजी पर सब्सिडी मूल्य और बाज़ार मूल्य दोनों को जारी रखा गया। बताते चलें कि इन पेट्रोलियम उत्पादों पर सरकारों की कर लगाये जाने की नीति पूर्ववत जारी रही जिसके तहत केन्द्र सरकार इन पर उत्पाद व सीमा शुल्क तथा राज्य सरकारें बिक्त्री कर या वैट जारी रखती आयीं। लेकिन करारोपण की दरें इतनी ऊंची रखी गईं, जिससे क्या केन्द्र हो और क्या राज्य सरकारें, सबके लिए पेट्रोलियम उत्पादों पर आरोपित कर, अप्रत्यक्ष करों से प्राप्त उनकी आमदनी का सबसे बड़ा स्रोत बना रहा। कहने के लिए तो ये दलील दी जाती है कि पेट्रोल और डीजल तथा एलपीजी का बाजार मूल्य कच्चे तेल व गैस के अंतर्राष्ट्रीय मूल्यों के आधार पर तय होता है लेकिन असल मायनों में कुछ और ही होता है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल का मूल्य जब ज्यादा बढ़ा तो उपभोक्ताओं को ज्यादा बढ़ी कीमतों से सरकारों को राजनीतिक नुकसान न पहुंचे, इसके लिए उन्होंने पेट्रोलियम उत्पादों की करों में कटौती कर इनके मूल्य को कम करने का भी प्रयास किया। लेकिन जब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में कमी आयी, तब केन्द्र व राज्य दोनों सरकारों ने अपने अपने करों में बढ़ोत्तरी करने का अच्छा मौका पाकर अपने खजाने भरने शुरू कर दिये यानी पेट्रोलियम उपभोक्ता अभी भी असल में इन उत्पादों के बाजार मूल्य के जरिये नहीं बल्कि सरकारों द्वारा इनके करों में बढ़ोत्तरी और कटौती के जरिये संचालित हो रहे हैं। पेट्रोलियम उत्पादों के प्रशासनिक मूल्य निर्धारण की पुरानी नीति नेपथ्य में आज भी जारी है। केवल फार्मूला बदल गया है। पहले आम तौर पर सालाना बजट पेशी में पेट्रोलियम उत्पादों के प्रशासनिक मूल्य और उन पर आरोपित कर में बढ़ोत्तरी या कटौती की जाती थी परंतु अब क्या केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकार, सभी पेट्रोलियम उत्पादों पर आरोपित कर में कभी मन-माफिक बढ़ोत्तरी तो कभी कटौती लाती रहती हैं।  पेट्रोलियम भारत की सरकारों के लिए कामधेनु गाय बन चुकी है, जिससे जब चाहे जितना चाहे अपनी मर्जी से दुह लो।आज सवाल भारत के पेट्रोलियम उत्पादों की आयात पर अतिशय निर्भरता का नहीं बल्कि सरकारों की पेट्रोलियम उत्पादों पर अतिशय राजस्व निर्भरता का हो गया है। पहले जहां बाजार आधारित पेट्रोलियम मूल्य नीति को सरकारों ने धता बताया वहीं बाद में देश में अप्रत्यक्ष कर सुधारों की प्रतीक जीएसटी व्यवस्था से पेट्रोलियम उत्पादों को विलग रखकर देश में कर सुधारों के एजेंडे के समक्ष एक बहुत बड़ा सवालिया निशान कायम रखा गया। यही वजह है कि समूचे दक्षिण एशियाई देशों में भारत अकेला मुल्क है, जहां तुलनात्मक रूप से मजबूत मुद्रा व नियंत्रित मुद्रास्फीति के बावजूद पेट्रोलियम उत्पादों की सर्वाधिक कीमतें दिखायी देती हैं।यह ठीक है कि कोविड महामारी से देश की अर्थव्यवस्था को पहुंची चोट से निजात दिलाने तथा सरकारों के लिए राजस्व उगाही का पेट्रोलियम ही एक बार फिर आसरा बना। इसके तहत भारत सरकार ने एक बार में ही प्रति लीटर पेट्रोल व डीजल पर आरोपित उत्पाद शुल्क में क्रमश: 13 रुपये और 15 रुपये की बढ़ोत्तरी कर दी। इस वजह से पिछले साल मार्च अप्रैल में जब अंतर्राष्ट्रीय कच्चे तेल की कीमतें धरातल पकड़ रही थी, तो भारत में पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतें आसमान छूना शुरू कर चुकी थीं। लॉकडाउन की वजह से भारत में पेट्रोलियम उत्पादों की खपत में साल 2020-21 के दौरान दस फीसदी की कमी आयी पर भारी करारोपण कर सरकारों ने 1.67 लाख करोड़ रुपये की अतिरिक्त उगाही की। अब जबकि भारतीय अर्थव्यवस्था पर से लॉकडाउन का साया खत्म हो चुका है, जीएसटी की मासिक वसूली भी रिकार्ड स्तर पर पहुंच चुकी है फिर भी क्या केन्द्र हो, क्या राज्य सरकार पेट्रोलियम उत्पादों पर आरोपित अपने करों में कटौती के लिए तैयार नहीं हैं। आगामी वित्त वर्ष 2021-22 में भी सरकारों द्वारा करीब दो लाख करोड़ रुपये की अतिरिक्त कमाई की तैयारी की जा चुकी है। कहना न होगा कि आज की तारीख में हम पेट्रोल और डीजल की जो कीमत वहन करते हैं, उसका 36 फीसदी केन्द्र सरकार के कर के रूप में, 23 फीसदी राज्य सरकार के कर के रूप में और करीब तीन फीसदी हिस्सा डीलर कमीशन के रूप में जाता है यानी केवल एक तिहाई मूल्य हम तेल के आयातित मद में प्रदान करते हैं। इस बार के बजट में सरकार ने पेट्रोलियम करों में कृषि सेस को समाहित कर करीब पचास हजार करोड़ रुपये की कृषि के लिए उगाही की व्यवस्था की है। कुल मिलाकर पेट्रोलियम अभी भी सरकारों के लिए राजस्व बाजीगरी का सबसे बड़ा आइटम है जबकि पेट्रोलियम की कीमतें ही हमारी मुद्रास्फीति यानी महंगाई को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाली कारक मानी जाती हैं।