रंगों की सही तमीज़

बहुत दिन से हमें रंगों की तमीज़ करनी भूल गई! काला रंग सदा डराने वाला लगता था, आज कितना अपना सा लगने लगा है। काला रंग जो रात के उतरने का सूचक होता है। यह रंग अंधेरे का सहोदर है। आज जिस आज़ादी का अमृतमहोत्सव हम मना रहे हैं, उसकी शुरुआत ही कभी एक आधी रात को किसी जननायक ने अपनी क्षीणकभीर वाणी से की थी। ‘रात के बारह बज गए। अब देश में आज़ादी की नयी सुबह होगी। सदियों की गुलामी भरा यह काला अंधेरा छट जाएगा। फिर क्षितिज पर उषा की लालिमा उभरेगी। नया सवेरा नई आज़ाद सांसों का ध्वजवाहक होगा।’ काला रंग विदा होगा, नये सूरज की सफेदी इस धरा पर उतरेगी। हर हाथ को काम, हर पेट को रोटी, और हर बच्चे के हाथ में किताब सी सफेदी। इस सफेदी से सब अंधेरे भगौड़े हो जाएंगे। अतीत की कालिख कचरे के उस डिब्बे में डाल दी जाएगी, कि जिसके पास कभी सुबह की सफेदी फटकना न चाहेगी। वायदे बहुत से वायदे। 
लेकिन इतना वक्त बीत गया कि अब तो हम इस बीतते वक्त का अमृतमहोत्सव भी मनाने चले। लेकिन यह कैसा वक्त बीता कि काला अंधेरा और भी पांव पसार कर देश में जलते चिराग बुझाता चला गया। सफेद रंग का, उसके धवल उजलेपन का अवमूल्यन हो गया। नेताओं के धवल कुर्ते पायजामे और कश्तीनुमा सफेद टोपियां गाहे बगाहे रंग बदलती रहीं, लेकिन उन्होंने एक बार हाथ आई कुर्सियों की सवारी नहीं छोड़ी, बल्कि इन पर आधिपत्य जमा, अपना जन्म सिद्ध अधिकार मान वे इसे अपने नाती-पोतों के लिए सुरक्षित करने लगीं।  नाती-पोते भी ऐसे कि जिन्हें इतनी समझ भी नहीं कि इस देश ने दो सौ बरस की गुलामी इंग्लिशस्तान की भुगती थी, या अमरीका की? अब भला उन्हें कैसे समझायें कि भौगोलिक गुलामी तो तुमने अंग्रेज़ों की भुगती थी, अब ‘एक दुनिया एक मंडी’ के नाम पर तुम व्यावसायिक गुलामी अमरीका जैसे धनी मानी देशों की भुगत रहे हो। विदेशी थैलीवानों के निवेश की चाह ने इस आर्थिक गुलामी का भूमण्लीकरण कर दिया, सुना क्या?
जी हां, रंगों की पहचान की गड़बड़ यहीं से होती है। चले थे सफेदी भरी सुबह की तलाश में, और यहां कभी न खत्म होने वाली रात का अंधेरा सुबह हो जाने का भ्रम देने लगा। हर हाथ को काम, हर पेट को रोटी और हर नये जन्मे के हाथ में किताब नई सुबह की रौशनी का आभास नहीं, देश में गहराते अंधेरे में नारों की मशाल बन गई। यह मशाल हर पांच साल के बाद चुनाव के दिनों के करीब क्यों एकाएक भक्क से जल उठती है? चुनाव परिणामों के बाद कुर्सियां बंट जायें तो यह मशाल क्यों भव्य अट्टालिकाओं का आतिशदान बन जाती है?
हम रंगों के मसीहा से पूछना चाहते हैं, कि न उभरने दो, करोड़ों लोगों के बीच में से ऐसे सवाल कि जिनका जवाब चुनावी भाषणों के पास नहीं है? क्यों न इस प्रश्नावली से निकलने की बजाय हम काले रंग को सुबह के सफेद राजसी दोशाले से समेट कर इसे एक समन्वयवादी गरिमा प्रदान कर दें? जानते हो ज़िन्दगी का सच काले को सफेद में बदल देना नहीं है, एक नये मटमैले रंग का स्वीकार है, जहां कतार में खड़ा आखिरी आदमी एक दीर्घ उच्छवास भर कर कह सके, यहां यूं ही चलता है भय्या! क्या हम यह नया सच स्वीकार कर लें कि यहां सूरज के रथ में जुता सातवां घोड़ा उसी अंधेरे का वारिस है, जो दूसरे छ: घोड़ों को भी चलने की प्रेरणा देता है? जवाब नहीं मिला।  पौन सदी गुज़र गई, क्यों न इस बात का अमृतमहोत्सव मना लें कि भ्रष्टाचारी देशों के सूचकांक में हमारा दर्जा और भी गिरावट भरा हो गया है। यह बात तो एक अकाट्य सत्य हो गई कि इस देश में उचित सम्पर्क सूत्र के बिना कोई काम अपनी मंज़िल की ओर नहीं सरकता। पिछले दिनों एक जानकार चचा ने बताया था कि जब देश की विकास गति चढ़ावे के स्वर्णयान की मदद से ही पकड़नी है तो क्यों न इस चढ़ावे को जायज़ मान लें? कब तक इसे दण्डनीय अपराध कह कर अपने-आपको सफेदपोश कहलाते रहोगे?
बड़े बूढ़े कहा करते थे, दोरंगी चालें चलनी छोड़ दे, एक रंग हो जा। लेकिन इतने बरस गुज़र गये, किसी ने इस उपदेश को स्वीकार नहीं किया बल्कि आप क्या जाने कि आजकल ज़माना दोहरी बात कहने का है।  आप कहें कि महामारी के इस प्रकोप का हमने बखूबी मुकाबला किया है, तो इसका अर्थ यह है कि यह महामारी ही नहीं हर आपदा में कम से कम सौ शीर्ष व्यक्ति ऐसे होते हैं, जो अरबपति से खरबपति हो गये, शेष निचले स्तर का जनता जनार्दन अगर अपना काम धंधा खोकर भिखारी ब्रिगेड में शामिल हो गया तो इससे संत्रस्त होने की क्या बात है? सुना तो है, ‘अधो कर्मन की गति न्यारी।’ पिछले जन्म में हमारे कर्म बुरे थे, तभी तो आज हम खैराती लंगर की कतार में लगे हुए हैं। असल में इस नौकरशाही और बाबूगिरी ने सब गड़बड़ घोटाला कर दिया। अब निजीकरण का प़ैगाम लाओ, सरकारी सूरज के सब घोड़े चुस्त होकर भागने लगेंगे। सफेद घोड़े और काले घोड़े सब एक साथ। वह कहते हैं।