कृषि क्षेत्र में उपजी निराशा कैसे दूर की जाए ?

आज़ादी के बाद गत शताब्दी के 6वें दशक में सब्ज़ इन्कलाब शुरू होने के बाद पंजाब ने भारत को पी.एल.-480 से निजात दिला कर अनाज के पक्ष से आत्म-निर्भर बना दिया और फिर अब अनाज निर्यात करने के योग्य बना दिया। गत वर्ष गेहूं का उत्पादन 50.08 क्ंिवटल प्रति हैक्टेयर की उपलब्धि हासिल करके पंजाब ने 175.68 लाख मीट्रिक टन गेहूं पैदा की और धान को मिला कर कुल 307 लाख मीट्रिक टन अनाज पैदा किया। केन्द्रीय अनाज भंडार में गेहूं का 37.39 फीसदी तक का योगदान डाला। वर्ष 2017-18 के दौरान धान का 199.65 लाख मीट्रिक टन रिकार्ड उत्पादन करके केन्द्र से ‘कृषि करमन पुरस्कार’ प्राप्त किया। नरमे का प्रति हैक्टेयर उत्पादन 856 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर के रिकार्ड पर पहुंच गया है। मछली की उत्पादकता और शहद उत्पादन में भी पंजाब दूसरे राज्यों से ऊपर रहा। गत दशक में बागबानी की काश्त तले 50 फीसदी रकबे की वृद्धि करके और काश्त वाले रकबे का 4.6 फीसदी रकबा बागवानी फसलों के अधीन लाकर फलों का 78. 25 लाख मीट्रिक टन उत्पादन किया। विभिन्न पक्ष से बागवानी फसलों से कृषि क्षेत्र की जी.डी.पी. गत दशक के दौरान 6.92 फीसदी से बढ़ कर  12.43 फीसदी हो गई। 
इन आश्चर्यजनक उपलब्धियों के बावजूद किसानों की आय नहीं बढ़ी। आज भी कृषि संकट में है। किसान मायूस हैं। नये कृषि कानून किसानों में रोष का कारण बने हुए हैं। जब तक उत्पादन में वृद्धि किसानों की आय बढ़ाने का साधन नहीं बनती, उनके लिए उत्पादन का बढ़ना कोई मायने नहीं रखता। केन्द्र द्वारा गेहूं एवं धान की खरीद में की जा रही वर्तमान वृद्धि किसानों को संतुष्ट नहीं करती क्योंकि यह उनकी लागत पर 50 फीसदी लाभ उपलब्ध नहीं करती। डा. एम.एस. स्वामीनाथन कमीशन की सिफारिशें भी इस वृद्धि में पूरी नहीं की गईं। 
गेहूं, धान के उत्पादन और उत्पादकता में हुई वृद्धि के बावजूद पंजाब की कृषि समक्ष चुनौतियां हैं जिनमें नये कानून, सरकारी खरीद और स्वामीनाथन कमीशन की  सिफारिशें न माने जाने के संबंध में किये जा रहे संघर्ष भी शामिल हैं। एक असंतोषजनक पहलू यह है कि इस तरक्की के दौरान शहरों और कस्बों के निकट गांवों के प्रभावशाली और प्रगतिशील किसान छोटे और सीमांत किसानों के मुकाबले खुशहाल और अमीर होते गए। छोटे और सीमांत किसान सरकार  द्वारा दी जा रही सहायता, सब्सिडी एवं कृषि खोज से लाभ उठाने से वंचित रह गए। उन्हें नये बीज और नई तकनीकें भी प्राप्त नहीं हुईं। खुशहाल किसानों में खरीद शक्ति अधिक थी और कज़र् तथा सब्सिडियां भी उनको आसानी से मिलती रहीं जिस कारण वे नई तकनीकों को अपनाने में अग्रणी रहे। छोटे और सीमांत किसान अपनी शक्ति एवं ज़मीन मालकी को ध्यान में न रखते हुए जल्द ही ट्रैक्टर खरीदने के लिए उतावले हो गए जो उनके लिए ‘सफेद हाथी’ बने जिस कारण ही वे कज़र् के बोझ तले दब कर उलझन में फंस गये। इस समय पंजाब के किसानों के पास 4.89 लाख से अधिक ट्रैक्टर हैं। यह भारत के सभी दूसरे राज्यों से अधिक हैं। बैंकों द्वारा ट्रैक्टर के लिए आसानी से कज़र्ा मिल जाने के बाद छोटे किसान ट्रैक्टर खरीदने के लिए उत्साहित हो जाते। सामने मशीन खड़ी थी जबकि ‘फसली कज़र्ों’ में बीज, खाद, दवाइयां आदि भी ज़मीन में चले जाने के कारण, उनकी नज़र से ओझल हो जाते थे। अब किसानों के पास ट्रैक्टर पूरी तरह इस्तेमाल किये बिना ही खड़े हैं। बहुत कम किसान ऐसे हैं जो इन्हें वर्ष में 1400 घंटे इस्तेमाल करते हों। इससे कम समय के लिए इस्तेमाल करना ट्रैक्टर विशेषज्ञों के अनुसार किसानों के  लिए लाभदायक नहीं। 
चाहे कृषि खोज बढ़िया होने के कारण और किसानों के बहुमत द्वारा इसके अपनाए जाने के कारण पी.ए.यू. के उप-कुलपति डा. बलदेव सिंह ढिल्लों के अनुसार राज्य की मिट्टी में जैविक कार्बन की औसत मात्रा जो 1981-90 के दशक में 0.33 थी अब बढ़ कर 0.51 फीसदी हो गई है। कीटनाशकों का इस्तेमाल जो 2001-02 में 3800 टन था कम होकर गत वर्ष 1835 टन हो गया। रासायनिक खादों के इस्तेमाल की दर में गत 10 वर्षों में कोई वृद्धि नहीं हुई जबकि फसलों का उत्पादन समय-समय पर बढ़ता रहा है। कृषि वैज्ञानिकों को अब कृषि खोज में ऐसी तकनीकें विकसित करके किसानों तक पहुंचानी चाहिएं जो चाहे उत्पादकता बढ़ाने में कम सहायक हों, परन्तु उनकी आय बढ़ाने में प्रभावशाली हों। ऐसी तकनीकों को अपना कर ही कृषि क्षेत्र में फैली निराशा को दूर किया जा सकता है।