तालिबानी शरीयत में कहां हैं महिलाएं ?

सार-तालिबान की कथनी और करनी में वही विरोधाभास सामने आ रहा है, जिसकी आशंका थी। काबुल पर कब्जे के समय तालिबान ने कहा था कि वह महिलाओं के साथ ज़्यादती नहीं करेगा। किसी के साथ बदले वाला कोई व्यवहार नहीं करेगा लेकिन जिस दिन से काबुल उसके कब्जे में आया है, महिलाओं के साथ लगातार ज़्यादती हो रही है और अपने विरोधियों को तालिबान लड़ाका सरेआम अमानवीय तरीके से मौत के घाट उतार रहे हैं। क्या यही है तालिबान का शरीयत कानून जिसके आधार पर वह अ़फगानिस्तान में शासन करना चाहता है? 
अ़फगानिस्तान से मिल रहे संकेतों से प्रतीत होता है कि मजलिसे-शूरा (सलाहकार परिषद) उसकी प्रशासनिक संस्था होगी और संभवत: हैबतउल्लाह अखुंडजादा उसके प्रमुख होंगे। दूसरे शब्दों में जो संभावित सत्ता संरचना सामने आ रही है, वह तालिबान-1 (1996-2001) जैसी ही होगी, जब मुल्ला उमर सुप्रीम लीडर होने के नाते पृष्ठभूमि में थे और देश को चलाने की दैनिक ज़िम्मेदारी परिषद की थी। अखुंडजादा के तीन प्रमुख सहायक हैं—मौलवी याकूब पुत्र मुल्ला उमर, सिराजुद्दीन हक्कानी जो शक्तिशाली हक्कानी नेटवर्क के नेता हैं और अब्दुल गनी बरादर जो दोहा में तालिबान के राजनीतिक कार्यालय के प्रमुख हैं। इस ग्रुप के संस्थापक सदस्य बारे में अनुमान है कि वास्तव में सरकार वही चलायेंगे। 
अ़फगानिस्तान में किस प्रकार की राजनीतिक व्यवस्था लागू होगी, इस बारे में कोई स्पष्टता फिलहाल नहीं है,लेकिन इतना तय है कि व्यवस्था लोकतांत्रिक तो नहीं होगी क्योंकि तालिबान का मानना है कि उनके देश में लोकतंत्र का कोई आधार नहीं है। शरीयत (मुस्लिम कानून) अवश्य लागू किये जायेंगे। दरअसल समस्या यही अंतिम बात है। तालिबान की शरीयत की अपनी विशिष्ट व्याख्या है जो कुरआन के मूल सिद्धांतों और आधुनिक मानव मूल्यों के विपरीत है। 
इस बहस को आगे बढ़ाने से पहले आवश्यक मालूम होता है कि शरीयत को समझ लिया जाये। शरीयत अरबी भाषा में कानून को कहते हैं, विशेषकर उस कानून को जिसका मुख्य स्रोत कुरआन हो। कुरआन से जो शरीयत के बुनियादी सिद्धांत सामने आते हैं,उनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार से हैं—मानव जीवन व सम्मान को वरीयता दी जायेगी और इस संदर्भ में जाति, धर्म, नस्ल, रंग, लिंग आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा। जब तक सामान्य व सब की भलाई के सिद्धांत का उल्लंघन न हो, तब तक चयन की स्वतंत्रता का अधिकार होगा। लोगों को निजता व धर्म (या नास्तिक होने) का अधिकार होगा। वैध जीविकोपार्जन के अधिकार व अवसर सब के लिए समान रूप से खुले रहेंगे, जिनमें धर्म व लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा। शांतिपूर्ण असहमति का अधिकार होगा। मानव संसाधनों पर सबका समान अधिकार होगा, जिसमें किसी को शोषण व जमाखोरी नहीं करने दी जायेगी। सभी को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार होगा। जीवन की बुनियादी ज़रूरतें जैसे रोटी, कपड़ा व मकान हासिल करने का सबका अधिकार होगा। कानून की दृष्टि में हर कोई बराबर होगा। सभी को आज़ादी से, बिना डरे व अपनी मज़र्ी से देश में कहीं भी आने जाने व बसने का अधिकार होगा,आदि। लेकिन कुरआन के ये आदर्श 56 मुस्लिम बहुल देशों में से किसी के भी व्यवहारिक संविधान में नहीं मिलते हैं। इसकी वजह यह है कि इन देशों ने हदीस व अपने धर्मगुरुओं की व्याख्याओं के अनुसार अपनी शरीयतें बनायी हुई हैं जो न आपस में मेल खाती हैं और न ही कुरआन के अनुरूप हैं। हद तो यह है कि कतर व सऊदी अरब की शरीयतें भी आपको अलग-अलग व परस्पर विरोधी मिलेंगी, जबकि दोनों ही सुन्नी अरब देश हैं। इसलिए अ़फगानिस्तान किस प्रकार की शरीयत को लागू करेगा, उसे समझना आवश्यक हो जाता है, विशेषकर इसलिए कि दुनियाभर में आम ख्याल यह है कि तालिबान की सत्ता में वापसी महिलाओं व अल्पसंख्यकों के लिए बुरी खबर है। 
अमरीका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने भी अ़फगानी महिलाओं को लेकर चिंता व्यक्त की है। हालांकि अभी तक इस संदर्भ में तालिबान ने कोई नीतिगत वक्तव्य नहीं दिया है, जिससे इन आशंकाओं की पुष्टि या इन्कार का कोई आधार बन सके लेकिन महिलाओं को लेकर अ़फगानिस्तान से परस्पर विरोधी खबरें अवश्य आयी हैं।
जहां यह एक तरफ ये खबरें आयी हैं कि महिला बैंक कर्मियों को वापस घर भेज दिया गया कि उनकी जगह उनके घर के पुरुष सदस्य काम करेंगे, वहीं दूसरी ओर ये खबरें भी हैं कि तालिबान नेताओं से मुलाकात के बाद महिला स्वास्थ्य वर्कर्स संतुष्ट हैं कि उनके कार्य में कोई हस्तक्षेप नहीं किया जायेगा। तालिबान प्रवक्ता ने प्रेस कांफ्रैंस में वायदा किया है कि शरीयत के दायरे में मीडिया, महिलाओं व अल्पसंख्यकों को आज़ादी होगी,लेकिन ये भी खबरें हैं कि विदेशी न्यूज संगठनों के लिए काम कर रहे पत्रकारों को धमकियां मिल रही हैं। इन विरोधाभासों से कैसी तस्वीर भविष्य में उभरेगी, इसका सही अंदाज़ा तो तालिबान द्वारा काबुल में सत्ता संभालने के बाद ही लगाया जा सकेगा, फिलहाल तो अनिश्चितता अधिक प्रतीत हो रही है। शोध से मालूम होता है कि इतिहास में महिला योद्धाओं का प्रतिशत एक से भी कम रहा है। आज भी अगर हम देखें कि निर्णय कौन लेता है और बंदूकें किसके हाथ में हैं, तो युद्ध पुरुषों का कारोबार ही प्रतीत होता है। 
इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि तालिबान के सत्ता में आने से पुरुषों को भी अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा, लेकिन तुलनात्मक दृष्टि से महिलाओं को डर अधिक है कि उन्हें वापस बुर्के में ठूंस दिया जायेगा, कार्यस्थल, स्कूलों व सरकार से निकाल दिया जायेगा। वे गुलामी की ज़िन्दगी बसर करने के लिए मजबूर होंगी और उनकी मुख्य भूमिका सिर्फ  बच्चे पैदा करना होगी। टकराव की स्थितियों में महिलाओं को पुरुषों की तुलना में हमेशा बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है। 
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर