बेहद कठिन है पंजाब के चुनावों संबंधी भविष्यवाणी करना 

कहां संभलते हैं बहते हुए बहाव में लोग,
मगर फिर ज़ख्म उठाएंगे इस चुनाव में लोग।
हमारे देश में खुमार मीरज़ादा का यह शेअर सिफ इस बार के चुनावों पर ही नहीं अपितु हर बार के चुनावों पर सही बैठता है। लोग सिर्फ बहाव में बह कर मतदान करते हैं और बाद में हर बार पछताते भी हैं। पिछले लगभग 75 वर्षों के इतिहास में भारत तथा पंजाब के लोगों ने जिसे भी चुना है, आम तौर पर वह लोगों की उम्मीदों पर पूरा नहीं उतरा, बल्कि लगभग प्रत्येक विजयी उम्मीदवार अपने-आप को क्षेत्र का बादशाह समझ कर अपना घर भरने में ही लगा दिखाई दिया। इसलिए हम जिसे मज़र्ी जिता लें परन्तु बाद में हमारी भावनाएं तो घायल होनी ही हैं। इस बार के चुनाव गत चुनावों से इसलिए कुछ भिन्न हैं, क्योंकि इस बार मुकाबले बहुकोणीय हैं। कहीं चार कोणीय तथा कहीं पांच कोणीय भी। चाहे मेरी समझ नहीं मानती कि पंजाब में इक बार त्रिशंकु विधानसभा बनेगी और किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिलेगा, क्योंकि ऐसी राजनीतिक स्थिति में जीत-हार के लिए बड़े अंतर की आवश्यकता नहीं होती, अपितु महज़ एक या दो प्रतिशत वोट अधिक लेने वाली पार्टी सीटों के मामले में दूसरे नम्बर की पार्टी से कहीं आगे हो सकती है परन्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि सभी सर्वे, संकेत तथा अधिकतर राजनीतिक विश्लेषकों के अनुमान त्रिशंकु विधानसभा बनने की बात ही कर रहे हैं। यह कमाल है कि अब जब मतदान में सिर्फ दो दिन ही शेष हैं, परन्तु कोई भी राजनीतिक विश्लेषक सीना तान कर कोई भविष्यवाणी करने में समर्थ नहीं है। इस बार भाजपा ने जिस तरह का ज़ोर पंजाब में पकड़ा है, वह अभूतपूर्व है। इससे स्पष्ट है कि भाजपा इस बार पंजाब में ‘आप’ से अधिक सफल होगी। भाजपा बेशक सीटों की संख्या के हिसाब से कोई बड़ी जीत प्राप्त करे या न करे, परन्तु उसके वोट प्रतिशत में बड़ा सुधार होना सुनिश्चित है। भाजपा कोई भी पत्थर उलटाने से झिझक नहीं रही। एक तरफ वह डेरों के वोट अपने पक्ष में कर रही है तथा दूसरी ओर सिखों को लुभाने के लिए भी पूरा ज़ोर लगा रही है। उनका सबसे बड़ा हथियार हिन्दू वोट को कतारबद्ध करना भी सफल होता दिखाई दे रहा है।  
हालांकि पहले-पहले यह सोच थी कि भाजपा का अलग लड़ना अकाली दल के लिए नुकसानदेह है परन्तु अब जहां भाजपा का चुनाव अभियान पहुंच चुका है, अब वह अकाली दल के वोट तोड़ने के साथ-साथ कांग्रेस का भी कम नुक्सान नहीं कर रही। 
अकाली दल का चुनाव अभियान सभी पार्टियों से अधिक तेज़ी से चल रहा है। सुखबीर सिंह बादल ने लगातार 3-4 महीने जितनी मेहनत की है, उतनी कोई और नेता नहीं कर सका। यही कारण है कि आरंभिक दौर में मुकाबले से बाहर दिखाई देने वाला अकाली दल मुकाबले में तो लौट आया है। सीटें जीतनी अलग बात है और टक्कर देना अलग बात। जीत-हार तो कई बार सिर्फ एक वोट से भी हो जाती है। 
कांग्रेस शुरुआती दौर में स्पष्ट जीतती दिखाई दे रही थी, परन्तु कांग्रेस की अपनी फूट पार्टी का काफी नुक्सान कर कर चुकी है। नि:संदेह कांग्रेस अभी भी मुकाबले में है तथा परिणाम कुछ भी आ सकते हैं। पर जो दिखाई दे रहा है, उसके अनुसार कांग्रेस ने एक दलित को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठा कर तथा उन्हें ही आगामी मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करके जो खेल खेला था, उसका दोआबा में तो काफी प्रभाव दिखाई दे रहा है परन्तु मालवा में चाहे कुछ प्रभाव है, परन्तु जादू सिर चढ़ कर बोलता दिखाई नहीं दे रहा। 
आम आदमी पार्टी इस बार पिछली बार की तरह 100 सीटों पर जीत का दावा तो नहीं करती परन्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि उसके उम्मीदवारों को प्रचार समर्था कम होने के बावजूद भी कई सीटों पर माहौल ‘आप’ के पक्ष में दिखाई दे रहा है। इस बार ‘आप’ का प्रभाव दोआबा तथा माझा में पिछली बार के मुकाबले अधिक है। वास्तव में लोग ‘आप’ की नीतियों या काम कम देख रहे हैं बल्कि कांग्रेस तथा अकाली दल के लम्बे शासन की कारगुज़ारी को रद्द करते अधिक दिखाई दे रहे हैं। ‘आप’ के समर्थक किसी अन्य दलील या अपील का प्रचार नहीं कर रहे। उनको अरविंद केजरीवाल के पंजाब, पंजाबियत तथा सिखों के प्रति व्यवहार से भी कोई सरोकार नहीं। वह तो बस अकाली तथा कांग्रेस दोनों के विकल्प की बात ही करते हैं कि तीसरे पक्ष को भी आज़मा कर देख लें। फिर ‘आप’ की ओर से घोषित मुफ्त सुविधाएं भी उन्हें काफी लुभा रही हैं। उनके लिए इस बात की भी कोई कीमत नहीं कि ‘आप’ के 4-5 दर्जन उम्मीदवार तो पुरानी पार्टियों अकाली दल तथा कांग्रेस में से ही आये हैं तो वे क्या व्यवहार करेंगे?
वैसे तो कीई जीते कोई हारे इनमें से किसी भी पक्ष से पंजाब के सुधार की उम्मीद नहीं की जा सकती, क्योंकि चुनावों में पंजाब की वास्तविक ज़रूरतों तथा परम्परागत मांगों तक चुनावी मुद्दा ही नहीं बन सकीं। 
ए काफिले वालो, तुम इतना भी नहीं समझे,
लूटा है तुम्हें रहज़न ने, रहबर के इशारे पे।
चोर उच्चका चौधरी....
कई दशक पहले एक फ्रांसीसी नावल का अंग्रेज़ी में अनुवाद पढ़ा था। नावल का नाम ‘डार्कनैस एट द नून’ (दोपहर को अंधेरा) था। उसका एक पात्र का एक संवाद अभी तक याद है कि ‘राजनीति में वही गुंडा कामयाब होता है, जो लोगों को यकीन दिला सके कि वह शरीफ है।’ अर्थात् राजनीति में सफलता के लिए शरीफ दिखाई देना तथा भीतर से गुंडा होना आवश्यक है। इस बार पंजाब के चुनावों संबंधी एसोसिएशन फार डैमोक्रेटिक रिफार्मज़ नामक संस्था के आंकड़े भी इस संवाद के भाव पर मुहर लगा रहे हैं। इस बार पंजाब में कुल 315 उम्मीदवार आपराधिक आरोपों का सामना करने वाले हैं। इनमें से 68 उम्मीदवार अकाली दल-बसपा गठबंधन के हैं तथा 58 आम आदमी पार्टी के हैं, जबकि 34 उम्मीदवार भाजपा तथा सहयोगी पार्टियों के भी हैं, जो आपराधिक मामलों का सामना कर रहे हैं। आश्चर्य की बात है कि कांग्रेस के 16 उम्मीदवार ही ऐेसे हैं। इन सभी में से कई तो बहुत गंभीर अपराधों के केसों में फंसे हुए हैं। अब फैसला लोगों ने करना है कि ऐसे आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को ईनाम देना है या सज़ा? साहिब श्री गुरु नानक देव जी की एक पंक्ति का ज़िक्र ज़रूरी लगता है : 
सरमु धरमु दुयि झपि खलोए,
कूड़ु फिरै परधानु वे लालो।
भाजपा की सिखों के निकट आने की कोशिश?
नि:संदेह एक ओर भाजपा की हरियाणा सरकार ने डेरा सिरसा प्रमुख को वोटों के लिए ही चुनावों के दौरान फरलो पर भेजा तथा दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ब्यास डेरे के प्रमुख से मुलाकात भी की है। उनकी ओर से नामधारी प्रमुख के साथ मुलाकात करने की संभावना भी है परन्तु इन चुनावों में भाजपा का सबसे अधिक ज़ोर सिखों को भाजपा के निकट लाने पर भी लगा हुआ है। प्रधानमंत्री तथा गृह मंत्री से लेकर पंजाब का दौरा कर रहा प्रत्येक केन्द्रीय मंत्री यह गिनवा रहा है कि मोदी सरकार ने कौन-कौन से काम सिखों के लिए किये हैं। वह पंजाबियों तथा सिखों की बहादुरी की प्रशंसा करते भी नहीं थकते। नि:संदेह मुसलनामों तथा ईसाइयों में भाजपा के प्रति विरोध की भावनाओं के चलते इसके पीछे यह सोच भी हो सकती है कि देश के सभी अल्पसंख्यकों को भाजपा के खिलाफ होने से रोका जाए परन्तु नोट करने वाली बात है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी सिखों को अलग धर्म मानता हुआ भी हिन्दुओं की एक शाखा की भांति ही समझता है जबकि सिख आर.एस.एस. के इस फलसफे से ही कम्पित होते हैं कि कहीं यह नीति धीरे-धीरे बुद्ध धर्म तथा जैनियों की भांति सिखों को भी भारत में एक हिन्दू धर्म का एक भाग ही न बना दे। हमारी जानकारी के अनुसार गृह मंत्री अमित शाह तथा जत्थेदार श्री अकाल तख्त ज्ञानी हरप्रीत सिंह की बंद कमरे में मुलाकात में जत्थेदार द्वारा उठाई गई अधिकतर मांगें पूरी की जाएंगी। इस मध्य कल दोपहर को देश भर की लगभग 40 सिख संस्थाओं के प्रमुख तथा कुछ सिख संत महात्म प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ मुलाकात कर रहे हैं। संभावना यही है कि वह मोदी द्वारा सिखों के लिए उठाए कदमों की प्रशंसा करेंगे तथा उनका धन्यवाद भी करेंगे। 
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