नतीजे त्रिशंकु भी हो सकते हैं उत्तर प्रदेश में

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण चुनाव उत्तर प्रदेश का है, क्योंकि यह देश की सबसे ज्यादा आबादी वाला प्रदेश है। लोकसभा में ही नहीं, बल्कि राज्यसभा में भी यह सबसे ज्यादा प्रतिनिधि भेजता है। यदि भारतीय जनता पार्टी अपनी 2017 की सफलता को एक बार और दुहरा लेती है, तो आगामी राज्यसभा के द्विवर्षीय चुनाव में इसकी स्थिति उच्च सदन के अंदर और भी मजबूत हो जाएगी। और यदि भाजपा ने यह राज्य गंवा दिया, तो उसके संगठन और कार्यकर्त्ताओं के मनोबल में भारी गिरावट आएगी और नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व पर भी संदेह पैदा होने लगेगा।
लेकिन एक तीसरी स्थिति भी आ सकती है, जिसमें विधानसभा त्रिशंकु हो जाए। इस तरह की विधानसभाएं आम तौर पर भाजपा के लिए माकूल होती हैं। वह अपनी राजनीतिक और आर्थिक शक्ति का इस्तेमाल कर सरकार बना लेती है। ऐसे भी मौके देखने को मिले हैं कि वह बहुमत वाली पार्टी को तोड़कर भी अपनी सरकार बना लेती है। मध्य प्रदेश इसका ताजा उदाहरण है। इसलिए त्रिशंकु विधानसभा भारतीय जनता पार्टी के लिए अब समस्या नहीं रही। हां, कम विधायक होने के कारण राज्यसभा चुनावों में यह अपने सांसद ज्यादा भेज नहीं पाएगी। उत्तर प्रदेश में विधानसभा का चुनाव ऐसी पृष्ठभूमि में हो रहा है, जो भारतीय जनता पार्टी के लिए कतई अनुकूल नहीं थी। पश्चिम बंगाल में उसकी करारी हार हुई थी और विजेता की उसकी छवि को झटका लगा था। पश्चिम उत्तर प्रदेश में एक लंबा किसान आंदोलन चला था, जिसके कारण भाजपा का आधार वहां कमजोर हो चुका था। लखीमपुरी खीरी की घटना ने उसकी और भी राजनीतिक क्षति कर दी थी। पिछले साल कोरोना की दूसरी लहर के दौरान प्रदेश में भारी तबाही हुई थी और योगी प्रशासन उसमें बुरी तरह विफल हुआ था। देश में बढ़ती महंगाई और बेरोज़गारी भी भारतीय जनता पार्टी के लिए माहौल खराब कर रही थी।
इसलिए ऐसा मानने वालों की संख्या बहुत है कि वहां भारतीय जनता पार्टी की करारी हार होगी और मुख्य विपक्षी पार्टी समाजवादी पार्टी को अपने गठबंधन सहयोगियों के साथ पूर्ण बहुमत मिल जाएगा। लेकिन ऐसा मानने वाले यह भूल जाते हैं कि माहौल भले ही भाजपा के खिलाफ  हो गया हो, लेकिन अखिलेश यादव अभी भी एक बड़े नेता के रूप में नहीं उभरे हैं। 2012 का चुनाव मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में लड़ा गया था और उसमें मिली जीत के बाद अखिलेश को मुलायम ने मुख्यमंत्री बना दिया था। 2012 के बाद जितने भी चुनाव हुए हैं, उन सभी में समाजवादी पार्टी की हार हुई है। 2017 में अखिलेश अपने पिता की छत्रछाया से बाहर हो गए थे। उसमें उनकी पार्टी को करारी हार हुई। हार का यह सिलसिला 2019 के चुनाव में भी जारी रहा। इस बार भी चुनाव में अखिलेश को लेकर लोगों में कोई खास उत्साह नहीं है। उनकी चुनावी रैलियों में यादव और मुस्लिम भीड़ पैदा करते हैं, लेकिन इन दोनों समुदायों के बाहर अखिलेश की स्वीकार्यता बेहद कम है। चुनाव जीतने के लिए मुस्लिम और यादव के बाहर के लोगों का वोट भी जरूरी है। उन्होंने समाजवादी पार्टी के सामाजिक आधार को विस्तृत करने के लिए ओम प्रकाश राजभर, स्वामी प्रसाद मौर्य, कृष्णा पटेल और महान दल से समझौता किया है, लेकिन ये अपनी जातियों के बीच कितना कामयाब हैं, इसके बारे में कोई कुछ दावे से नहीं कह सकता।
हां, इतना सच है कि भाजपा विरोधी मूड का लाभ अखिलेश को हो रहा है। ऐसे लोग भी उनके साथ आ गए हैं, जो उनको पसंद नहीं करते। इस बार खासकर मुस्लिम समर्थन उन्हें पूरा मिल रहा है। हालांकि 1993 के चुनाव और उसके बाद के सभी चुनावों में मुसलमानों की पहली पंसदीदा पार्टी समाजवादी पार्टी ही रही है, लेकिन इस बार जितनी संख्या में समाजवादी पार्टी को मुस्लिम वोट मिल रहे हैं, उतनी संख्या में पहले कभी नहीं मिले थे। एक अनुमान के अनुसार मुसलमानों के कम से कम 90 प्रतिशत वोट समाजवादी पार्टी को ही मिल रहे हैं। लेकिन विरोधी माहौल के बावजूद भारतीय जनता पार्टी को मुकाबले से बाहर माने जाने की भूल नहीं की जा सकती। भारतीय जनता पार्टी न केवल कमंडल कार्ड बल्कि मंडल कार्ड भी बहुत ही सतर्कता से खेल रही है। मंदिर की राजनीति तो दिखावा है, भाजपा की जीत इसलिए होती है, क्योंकि उसने उत्तर प्रदेश को जातीय समीकरण का एक अभेद्य दुर्ग में बना रखा है। गैर यादव ओबीसी भारतीय जनता पार्टी के मुख्य सामाजिक आधार हैं और उनके साथ अगड़ी जातियों के वोट को मिलाकर वह करीब 40 फीसदी वोट ले जाती है। वोट का यह स्तर उसे तीन चौथाई से भी ज्यादा बहुमत दिला देता है। इस बार अगड़ी जातियों में ब्राह्मणों के बीच उसकी स्थिति कुछ कमजोर हुई है। इसके बावजूद उनका 75 से ज्यादा अभी भी उसके साथ ही है। गैर यादव ओबीसी जातियों की पहली पसंद अभी भी भाजपा ही है।
मायावती की कमज़ोर होती जा रही स्थिति को देखते हुए भाजपा ने इस बार भारी संख्या में जाटवों को टिकट दिए हैं। वे टिकट अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित सीटों पर दिए गए हैं। भाजपा उम्मीद कर रही है कि इस बार जाटव भी उन्हें अच्छी संख्या में वोट डालेंगे। ज़ाहिर है, भाजपा कमजोर हुई है, लेकिन सत्ता की दौड़ से बाहर नहीं हुई है। वह पिछले चुनावों में 40 से 42 फीसदी तक वोट पाती रही है। यदि उसका वोट प्रतिशत गिरकर 35 से 33 तक भी आता है, तो वह या तो साधारण बहुमत पा लेगी या बहुमत के बहुत नजदीक आ जाएगी। यदि उसे बहुमत मिल गया, तो कोई बात नहीं, लेकिन उसे बहुमत नहीं भी मिला और विधानसभा त्रिशंकु रही, तो वह सरकार बनाने की क्षमता रखती है। दूसरी तरफ  समाजवादी पार्टी को अपनी सरकार बनाने के लिए अपने साइकिल चुनाव चिन्ह पर करीब 202 या उससे ज्यादा सीटें लाना होंगे, क्योंकि उनके सहयोगी संगठनों का इतिहास अवसरवाद का इतिहास रहा है। महान दल, अपना दल (कृष्णा पटेल), ओम प्रकाश राजभर की पार्टी इत्यादि के विधायकों का क्या भरोसा? भरोसा तो राष्ट्रीय लोक दल के जयंत चौधरी का भी नहीं है। बड़े प्रलोभन मिलने पर वह भाजपा के खेमे में चले जाएं, यह भी एक संभावना है।
और यदि समाजवादी पार्टी को अपने गठबंधन के साथ भी बहुमत नहीं मिले, तो फिर अल्पमत वाली भाजपा को सरकार बनाने से कोई रोक नहीं सकता। मायावती के विधायक उसके लिए सहज उपलब्ध रहेंगे। 10 मार्च को पता चलेगा कि क्या नतीजे आते हैं, लेकिन त्रिशंकु विधानसभा के अस्तित्व में आने की संभावना को भी खारिज नहीं किया जा सकता। (संवाद)