एक कुर्सी-धारी क्रांति

वह मुस्कराये और आशीर्वाद हो गये। उदारता का दम भरता एक और आशीर्वाद, जो दशकों से संकरी गलियों में भटकते आदमी को काम नहीं मुफ्तखोरी का तल घर दे गया था।  क्या आपने आजकल चौराहों में भीख मांगते भिखारी ब्रिगेड को देखा है? रोज़ देखता हूं, इस ब्रिगेड की भर्ती बढ़ रही है। सुबह जो मैली कुचैली वर्दी, और बगल में लगी बैसाखी के साथ आपका रास्ता रोक कर अपना धंधा पालते हैं, वे शाम के विदा लेते ही रुखसत हो जाते हैं। बगल में बैसाखी लगा घिघियाते हुए अपंग अब नशे की पुड़िया के सहारे दो सौ मीटर की रेस दौड़ने के लिए तैयार मिलते हैं, और बगल में लगी बैसाखी अब हाथ का शस्त्र बन एक-दूसरे पर बरसने का मन्सूबा करती है। 
इधर इस भिखारी टोली में नारी वस्त्र धारण कर कुछ हिजड़े भी शामिल हो गये हैं। वे ताली बजा अपना देय मांगते हैं। न दो तो अपना क्रोध दिखा ताकत से बददुआ भी दे जाते हैं। सुबह का चौराहा दीनता के आवरण में लिपटा आपसे दया मांगता था। रात होते ही इसकी खीसें निपोरी होने की जगह चौड़ी होने लगीं। सुबह वे दया मांग रहे थे, अब वे अपनी दया आपको भेंट दे रहे हैं। किसी चितकोबरे की तरह जो सुबह से रात तक आते-आते अपनी छाल बदल गया। सुबह अनुगृहीत हो रहा था, अब वह अपने अस्तित्व से आप पर अनुगृह जता रहा है।  जी नहीं, चौराहे पर घटता कोई भिखारी पुराण लिखने का विचार नहीं है अपना। थोड़ा तुनकमिज़ाजी से देखते हैं तो यह भीख मांगता चौराहा आज सबकी ज़िन्दगी में घटने लगा है। बहुत दिन नहीं हुए जब कई महानुभाव इसी अंदाज़ में हमारे द्वार पर दस्तक देने चले आए थे। वे बता रहे थे कि वे समाज और राजनीति के कर्णधार हैं, और हमारी घिसटती ज़िन्दगी को अच्छे दिन दे देना उनका संकल्प है। 
हमारी बस्तियों में वे अचानक प्रकट हुए। पूरे पांच साल के बाद। पांच साल पहले भी वे हमारे बड़े भाई और कृपा बांटते मसीहा की तरह चले आये थे। हम तो पौन सदी से इसी चौराहे पर ठिठके हैं, अपने कायाकल्प का इंतज़ार करते हुए। लेकिन इस बीच यह काया तो जर्जर हो गई, देश के लिए घोषित भुखमरी सूचकांक का चलता-फिरता विज्ञापन बन गई, तब उनकी  झोलियों से उदार पत्र हमारी झोलियों में उलीचे गये थे। रुपहले सपनों की तरह, आज फिर उलीचे जाने लगे।  हम भूख से मरने नहीं देंगे किसी को? उन्होंने उदारता से नई-नई राहतों और रियायतों की घोषणा करते हुए फरमाया था। जब कार्य संस्कृति की जगह मुफ्तखोरी की संस्कृति हमारा कष्ट हरने के लिए चली आयी, तो हम क्यों न अपनी वर्दी बदल कर, प्रार्थना-पत्रों की बैसाखियां लेकर उनके दया धर्म से पोषित लंगर की कतार में लग जाते? कुछ लोगों ने तो अपने लिबास भी बदल कर जनाना कर लिये, कि उनके मुफ्त पोषण में कोई दुविधा न हो। 
अरे यह क्या हुआ? एक अच्छा भला युवा शक्ति होने का दम भरने वाला देश चौराहों में बंट गया। यहां ऊपर से नीचे तक उपकार चाहने वालों की कतार लगी है। उपकार करने वाले दिलासा पत्र बांट रहे हैं, इसे अपने वचन की गारंटी बताते हैं। लगता है कि देश दो भागों में बंट गया। एक भाग में करोड़ों की भीड़ है, जो बैठे बिठाए अपने देश में परिवर्तन चाहती है। तल घर से आकाश की ओर उड़ान भरना चाहती है। उधार के पंखों पर उड़ान, लेकिन इस भीड़ के पंख साबुत नहीं हैं। जिन के साबुत थे, वे करोड़ों के उधार का मायाजाल समेट विदेश की ओर पलायन कर गये। इनके पलायन से देश की बैंकिंग व्यवस्था दीवालिया न हो जाए, इसलिये इनकी लूट खसोट बुरे खाते या निष्क्रिय सम्पदा के हिसाब-किताब में डाल दो। बाकी समूह को कज़र् माफी और अनुकम्पा राशि बनाने का लालीपॉप थमा दो, ताकि उनका असंतोष किसी बगावती आग में तबदील न हो जाये। उस पर खुशनुमा हवाओं की चौकदारी रहे।  लीजिये इसी तरह के कोहराम तंत्र के बाद आप अपना मत उनके ईवीएम का बटन दबा डाल आये, ताकि परिवर्तन की रुत्त आ जाये। लेकिन चितकोबरे सांपों की जाति प्रजाति आपने अलग-अलग समझी थी, वे तो अपनी केंचुल बदल कर फिर एक हो गये। 
कल एक-दूसरे को गाली देते थकते न थे। एक-दूसरे का मुखौटा नोच उन्हें बेपर्दा कर देने की बात कहते थे। यही थी उनकी राष्ट्रीयता, जनसेवा और आम आदमी की बेहतरी के लिए  मिट जाने की लालसा। लेकिन यह क्या हुआ? सबके पास कोरी बातें थीं, एक से वायदों और घोषणाओं का रुपहला जाल। आप क्या करते? सबको मत देने का वक्त आया तो  बराबर बांट आये। लो एक और समस्या पैदा हो गई, त्रिशंकु हो जाने की। नहीं, त्रिशंकु नहीं होना है। राजनीति में तो सब मौसेरे भाई होते हैं, इसलिए किसका हाथ दूसरे का गिरेबान पकड़ने के स्थान पर दूसरे से मिल मैत्री संदेश दे गया, पता नहीं चला। कुर्सी मिलेगी तो जनसेवा हो सकेगी चाहे आधी-आधी बंट कर ही मिले। जन कल्याण तो सबका संकल्प है न!