राज-द्रोह कानून बारे फैसला वक्त की ज़रूरत 

पिछले कुछ वर्षों में शायद ही कोई ऐसा दिन गुज़रा हो जब राजद्रोह कानून समाचार पत्रों की सुर्खियों में न रहा हो। कुछ वर्ष पूर्व सर्वोच्च न्यायालय से लेकर विधि आयोग तक इस कानून की प्रासंगिकता को लेकर प्रश्न चिन्ह लगा चुके हैं। फिर भी सरकारें इस कानून को समाप्त करना तो दूर, इस पर बहस करने के लिए भी तैयार नहीं हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि चाहे हम भारत के आदर्श लोकतंत्र को लेकर कितने ही कसीदे क्यों न पढ़ें, सरकारें अभिव्यक्ति की आज़ादी को या अपनी आलोचना को सुनने के लिए कतई तैयार नहीं हैं। भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए के अनुसार जब कोई व्यक्ति बोले गए या लिखित शब्दों, संकेतों या दृश्य प्रतिनिधित्व द्वारा घृणा या अवमानना या उत्तेजित करने का प्रयास करता है या भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति असंतोष को भड़काने का प्रयास करता है तो वह राजद्रोह का आरोपी है। राजद्रोह एक गैर-ज़मानती अपराध है और इसमें सज़ा तीन साल से लेकर आजीवन कारावास और जुर्माना दोनों हो सकते हैं।
केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (1962) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 124-ए के बारे में स्पष्ट किया था कि इस प्रावधान का इस्तेमाल अव्यवस्था पैदा करने की मंशा या प्रवृत्ति या कानून और व्यवस्था की गड़बड़ी या हिंसा के लिए उकसाने वाले कार्यों तक सीमित होना चाहिए। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने अपने फैसले में आईपीसी के तहत राजद्रोह कानून की वैधता को बरकरार रखा था और इसके दायरे को भी परिभाषित किया था। 
पिछले कुछ वर्षों में समय-समय पर मीडिया और पत्रकारों के ऊपर राजद्रोह के मुकद्दमे दर्ज किये गए हैं जैसे कि आंध्र प्रदेश में दो तेलुगु न्यूज़ चैनलों-टीवी 5 और एबीएन, पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ  हिमाचल प्रदेश में दर्ज मामला, नोएडा पुलिस द्वारा कांग्रेस सांसद शशि थरूर सहित छह पत्रकारों पर राजद्रोह का मामला, केरल के पत्रकार सिद्दीकी कप्पन और मणिपुर के पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेम के खिलाफ इसी प्रकार के मुकद्दमे दर्ज किये गए। देखा जाये तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का यह कानून स्पष्ट रूप से उल्लंघन करता है। इस कानून के आधार पर सरकारें लोगों को डराने-धमकाने का काम करती रही हैं। अगर आपराधिक कानून की कोई धारा अस्पष्ट है तो लोगों को उस धारा के अधीन नहीं किया जा सकता, जो उसे आजीवन जेल में डाल सकती हो। हाल ही में जितने भी पत्रकारों के खिलाफ  देशद्रोह के मामले दर्ज किये गये हैं। उनमेें से किसी भी पत्रकार ने कोई हिंसक कार्य नहीं किया। फिर उन्हें गिरफ्तार करने का औचित्य समझ से परे है।
राजद्रोह के कानून में सरकार के प्रति उत्तेजना या असंतोष को उत्तेजित करने की बात की गई है। आखिर असंतोष का क्या अर्थ है? क्या किसी को यह कहने का अधिकार नहीं है कि उसे सरकार से नफरत है? क्या कोई यह नहीं कह सकता कि उसे प्रधानमंत्री से नफरत है? क्या कोई यह नहीं कह सकता कि अमुक राजनेता भारत के इतिहास में सबसे बुरे हैं? यह सब भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। इस प्रकार के मामले बड़े जोश के साथ दर्ज किए जाते हैं लेकिन जांच एजेंसियों के पास अक्सर कोई सबूत नहीं होते और इसी कारण इसमें दोषसिद्धि की दर अत्यंत कम रहती है। यह कानून मूल रूप से लोगों में भय पैदा करता है और असंतोष को दबाने में सफल होता है। 
दरअसल यह कानून एक औपनिवेशिक विरासत है जिसे लागू करके औपनिवेशिक शक्तियों ने अपनी प्रजा को दबाने की कोशिश की थी। महात्मा गांधी भी इस कानून की सज़ा पाने वालों में से एक थे। राजद्रोह के कानून पर लॉ कमीशन ने 2018 में स्पष्ट किया था कि लोकतंत्र में एक ही गीत को किताब से गाना देशभक्ति का पैमाना नहीं है। लोगों को अपने तरीके से अपने देश के प्रति अपना स्नेह दिखाने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए और ऐसा करने के लिए सरकार की नीति में खामियों की ओर इशारा करते हुए कोई रचनात्मक आलोचना या बहस की जा सकती है। कमीशन के अनुसार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के हर गैर-ज़िम्मेदाराना प्रयोग को राजद्रोह नहीं कहा जा सकता है।
इस कानून के जनक यूनाइटेड किंगडम ने दस साल पहले ही इसे समाप्त कर दिया था। फिर भारत में इसे बनाये रखने का क्या औचित्य है? राजद्रोह का दायरा क्या होना चाहिए, इन सब बातों को लेकर सरकारों को खुले दिमाग से सोचने की आवश्यकता है। किसी भी भय के माहौल में अभिव्यक्ति कि आज़ादी बेमानी हो जाती है। जब न्यायपालिका और विधि आयोग बार-बार इस कानून को लेकर संदेह प्रकट कर चुके हैं तो फिर इसे एक हथियार के रूप में बनाये रखने का औचित्य समझ से परे है। आज देश में लोकतंत्र की परम्परायें इतना आगे बढ़ चुकी हैं कि जन-प्रतिनिधियों से कठोर सवाल तो पूछे ही जायेंगे जो ज़रूरी भी है। जाति, धर्म और क्षेत्रीय हितों के आधार पर एक बहुआयामी समाज में किसी न किसी वर्ग के द्वारा असंतोष प्रकट करना स्वाभाविक सी बात है। जन प्रतिनिधि सरकारों का यह दायित्व है कि उस असंतोष को दूर करे, न कि भय का वातावरण निर्मित करे जिसमें सवाल-जवाब की कोई गुंजाइश ही न हो। 
गौरतलब है कि भारत की स्वतन्त्रता के बाद संसदीय लोकतन्त्र अपनाये जाने के बाद भारतीय दंड संहिता विधान की धारा 124 (ए) को बरकरार रखना इसलिए अनुचित है क्योंकि संसदीय प्रणाली के लोकतन्त्र में सत्ता या सरकार की कटु आलोचना से लेकर शासन की नीतियों के खिलाफ  जन आन्दोलन चलाना इस प्रणाली का अन्तरंग हिस्सा है और पूरी तरह अहिंसक रास्ते से जनता का समर्थन प्राप्त करते हुए सरकार बदलना भी इसी लोकतन्त्र का राजनीतिक धर्म है। लोकतन्त्र में सरकार डंडे के बूते पर नहीं चलती बल्कि ‘इकबाल’ यानि प्रतिष्ठा के भरोसे और संविधान द्वारा नियत किये रास्ते पर चलती है। इस प्रणाली में बेशक शासन चलाने का अधिकार जनता की मज़र्ी से ही पूरी राजनीतिक चुनावी प्रणाली का पालन करते हुए कुछ लोगों को मिलता है मगर वे शासक या हुक्मरान पारम्परिक राजसत्ता के नियमों के अनुसार नहीं होते बल्कि जनता द्वारा ही चुने गये ऐसे प्रतिनिधि होते हैं जो केवल पांच वर्ष के लिए सत्ता से जुड़े सभी प्रतिष्ठानों के अभिभावक होते हैं और लोगों की अमानत का संरक्षण करते हैं जिसे राष्ट्रीय सम्पत्ति कहते हैं। 
 वास्तव में 1962 में ही पं. जवाहर लाल नेहरू को राजद्रोह कानून को निरस्त कर देना चाहिए था जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इसे अनावश्यक बताया था। मगर सरकार चाहे किसी भी राजनीतिक दल की हो, अपने हाथ में एक ब्रह्मास्त्र रखना चाहती है। इसी वजह से सर्वोच्च न्यायालय ने इस बाबत दायर एक याचिका के सन्दर्भ में अब केन्द्र सरकार से पूछा है कि राजद्रोह कानून के बारे में वह अपना पक्ष पांच मई तक रखे। यह 21वीं सदी चल रही है और भारत का लोकतन्त्र भी अब परिपक्व हो चला है। अत: वक्त की ज़रूरत के मुताबिक काम किया जाना चाहिए।॒
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