अपनी बस्तियां जला अपना मातम मनाते लोग

उनका कहना है कि उन्होंने उन चन्द लोगों को बहुत बुरी तरह से पीट दिया है, जो आज के ज़माने में नैतिकता और ईमानदारी की बातें करते हैं। आज के महंगाई, चोर बाज़ारी और रिश्वतखोरी के ज़माने में सीधी सपाट ज़िन्दगी जीने का गुनाह करते हैं। अपने दु:ख तो इन से दूर नहीं हुए, और सबके दु:खों के ज़ामिन बन एक हमदर्दी भरी दुनिया बसा देने का वायदा करते हैं। अपना बोझ तो उनसे ढोया नहीं जाता, और सबके साथ मिल कर बदलाव की एक सामूहिक लड़ाई देने का बिगुल बजाते, घूमते हैं। बस पीट दिया जनाब।
हमने तो ऐसे दीवानों को ‘बड़े सन्त बने फिरते हो’ कह कर नकार दिया। अब इन डार से बिछुड़ों को क्या कहिये? ज़माना प्रपंचेयों का है, अपनी डफली पर अपना राग बजाने वालों का है, और ये ज़माने से टूटे लोग सब को साथ ले युग बदलने की बात कहते हैं?
हमने तो साहिब उन्हें कह दिया कि ज़रा इर्द-गिर्द तो देखो, शहर में चले जाओ, देश-विदेश भटक लो, है कोई माई का लाल जो इस गन्धाते ज़माने को बदलने की बात कहता हो। कहता हो, कि इस सदियों से ठिठकी हुई दुर्गन्ध को सुगन्ध में बदल देना है। बल्कि हम तो कहते हैं कि अपना गन्ध पहचानने का यह पैमाना ही बदल लो। वसीम बरेलवी साब का एक शेअर इनकी खिदमत में पेश करना चाहते हैं, कि ‘जनाब इस दौरे सियासत का इतना सा फसाना है, अपनी बस्ती को जलाना है उसका मातम भी मनाना है।’
आप कौन होते हैं हमें कहने वाले कि दुरंगी छोड़ कर एक रंग हो जा। कौन-सा रंग? जब से पैदा हुए हमने तो एक रंग ही सीखा है, अपना आत्मकेन्द्रित हो जाने का ढंग। अपने आपको सबसे बड़ा दार्शनिक, क्रांतिवीर और युग चेता कह देने का ढंग। यह दीगर बात है कि हमारा दर्शन, हमारी क्रांति  और हमारी युग चेतना हमारी ड्योड़ियों में ही घटती है, हमारी मेज़ पर अंतर्राष्ट्रीय सैमीनार होते हैं, जिसमेें प्रारम्भिक से लेकर समापन भाषण तक हमारा होता है। जीता रहे हमारा सोशल मीडिया, इंस्टाग्राम, फेसबुक और व्हाट्सअप। क्रांतियां इनके प्रांगण में घटती हैं, और इनके ‘लाइक्स’ की डोली चढ़ कर सदासुहागिन हो जाती हैं। 
हमने तो साब खुलेआम कह दिया कि ऐसा सदा से होता आया है और सदा होता रहेगा। आपके शहर में होता है, देश के हर शहर में होता है। फिर आप कौन होते हैं सजे-संवरे शीर्षकों के साथ इस आत्मकेन्द्रित कूड़े के डम्प को ढोने से इन्कार करने वाले?
तनिक आंखें खोल कर देखो, हर शहर में दो शहर बसते हैं, हर देश में दो देश और पूरी दूनिया में दो दुनिया। बेशक एक दुनिया चुनिन्दा सम्पन लोगों की दुनिया, जिनका हर देश की धन-सम्पदा पर कब्ज़ा है, और उन्हें इस कब्ज़े की विरासत अपने वंशजों को देकर जानी है। और शेष बहुत-से लोगों की बस्तियां जो भूख, बेकारी तथा अपराधों की सड़ांध से जल रही हैं। आओ, इनके जलने का मातम मनाएं, अपने भाषणों में या अपनी जन-सम्पर्क यात्राओं के पग मार्गों पर। बस यहीं तक, इससे आगे नहीं जाना, क्योंकि इससे आगे कभी हमारे पूर्वज चले नहीं, कभी हमारा परिवेश बदला नहीं तो हम ही क्यों बदलाव के सपने बांटें?  चलिए सपने बांटने का हठ है तो बांटते रहो, नकली फूलों के ये गुलदान, लेकिन इनसे कभी अपनी मिट्टी और अपने पसीने का रंग बदलने की उम्मीद न करना। वैसे भी बदलाव की गारंटियों के साथ जो कुर्सियों पर कब्ज़ा कर लेते हैं, वे रोमांचकारी खबरों, चमत्कारी घोषणाओं और मुफ्तखोर रियायतों के सिवाय आप में और बांट ही क्या सकते हैं?
एक सैलाब की तरह घोषणाओं का यह तूफान उठता है, और अपने हाथों से अपने माथे पर स्वयं ही तिलक लगा मंद पड़ जाता है। या स्वयं क्षमाप्रार्थी हो जाता है, कि देखिये समाज, साहित्य, राजनीति में बदलाव की हर ओर यही कहानी है। पहले पीछे, अतीत, वर्तमान और भविष्य में यही तो घटा है, हम क्यों न इसी राह पर चलें? हां, यही क्रांति है बन्धु जो इनकी झुग्गी-झेंपड़ी को प्रासाद बना गयी, और फुटपाथ पर नाचने का हौसला करने वाले फकीर के हाथ से उसकी डफली भी छीन कर ले गई।  बहुत दिन से यहां राजा का बेटा राजा, वज़ीर का बेटा वज़ीर, लेकिन अब मजूर का बेटा मजूर भी नहीं फटीचर पैदा होता है। फटीचर का अर्थ है ऐसा बेकार जो अब अपने लिए  रोज़गार तलाश करने की कोई इच्छा नहीं रखता। क्यों, इस व्यर्थ की तलाश में क्यों परेशान होना? इससे अधिक तो हर रोज़ घोषित होती हुई नई राहतें और रियायतें उसे दे जाती हैं। 
आओ, इस संस्कृति की चिरजीवी होने की एक मीलों लम्बी मांग कतार बनायें। यह कतार जितनी लम्बी होगी, नेता इसे नष्ट करने की नित्य नयी घोषणा करेंगे और इससे उसका वोट बैंक और भी स्थायी हो जाएगा। यही वह कल्याण मार्ग है बन्धु, जिसमें बिना कष्ट क्रांतियां घटती हैं, परम संतोष की पताकायें बंटती हैं, और नये जयघोष होते हैं।