भगवान जगन्नाथ को समर्पित ओडिशा की पट-चित्रण कला परम्परा

भारत में कला एवं संस्कृति के मामले में अनेक तरह की पारम्परिक कला धाराएं देखने को मिलती हैं। इन्हीं पारम्परिक कलाओं का एक रूप हमें दिखता है ओडिशा की पटचित्रण परम्परा में, जो कला की एक शैली के साथ-साथ सांस्कृतिक परम्परा का भी हिस्सा है। यह कला शैली भगवान जगन्नाथ को समर्पित है। साल के उन ख़ास दिनों में जब भगवान जगन्नाथ विश्राम में जाते हैं, तब उनकी प्रतिमा या विग्रह के स्थान पर इन चित्रों की ही पूजा की जाती है, जो पटचित्रण कला के माध्यम से बनाये जाते हैं।पटचित्रण का शाब्दिक अर्थ होता है कपड़े पर चित्रण। यह कपड़े पर चित्रण की परम्परा है। इसके तहत चित्र ज्यादातर सूती या रेशमी कपड़े पर ही बनाये जाते हैं। कपड़े पर चित्र बनाने से पहले उसे पारम्परिक पद्धति की एक खास प्रक्रिया से गुजारा जाता है, जिसमें खड़िया पाऊडर और इमली के बीज से तैयार गोंद का उपयोग किया जाता है। उसके बाद प्राकृतिक रंगों से उस पर चित्र रचना की जाती है। इस कला शैली की शुरूआत को लेकर माना जाता है कि यह हज़ारों साल पुरानी परम्परा है। पुराने जमाने में बौद्ध भिक्षु अपने बदन पर कपड़े का बड़ा टुकड़ा लपेटकर रखते थे जिन पर भगवान बुद्ध के जीवन और उपदेशों का चित्रण हुआ करता था। इन चित्रों के माध्यम से वे भगवान बुद्ध या बौद्ध धर्म की शिक्षाओं का प्रचार प्रसार किया करते थे।जहां तक पट चित्रण शैली के तहत आधुनिक चित्र परम्परा के विकास की बात है तो माना जाता है कि ओडिशा में 15वीं और 16वीं सदी में यह परम्परा विकसित हुई। इससे पूर्व भित्तिचित्रण (म्यूरल) और तालपत्र (ताड़पत्र) चित्रण की दीर्घ परम्परा यहां रही है। विदित हो कि पुराने समय में हमारे यहां ताड़ के पत्तों पर ग्रंथों की रचना भी की जाती थी जिसमें एक खास तकनीक से चित्रण भी किया जाता रहा है। वैसे ताड़ के पत्तों पर चित्रण की यह परम्परा आज भी यहां कहीं कहीं देखने को मिलती है, साथ ही कहीं-कहीं कागज़ का प्रयोग भी अब किया जाने लगा है। जहां तक चित्रों की विषयवस्तु की बात है तो इस चित्रण परम्परा के मुख्य विषय स्वयं भगवान जगन्नाथ ही होते हैं, विशेषकर भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा। किन्तु इसके अलावा दशावतार, जयदेव रचित गीतगोविंद, कृष्ण लीला, भागवत कथाएं, रामायण और महाभारत से जुड़े प्रसंगों, चरित्रों और कथाओं का भी पटचित्रण किया जाता है। इन चित्रों की पृष्ठभूमि में राजस्थानी या मुगल शैली की तरह प्राकृतिक दृश्यों के अंकन के बजाय पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों की आकृतियों के अलावा विभिन्न सजावटी आकृतियों का अंकन किया जाता है। देखा जाए तो एक तरह से यह चित्रशैली भी पारम्परिक लघुचित्रण की परम्परा का विस्तार ही है।  इसमें बारीक रेखाओं की बजाय मोटी किन्तु गतिवान रेखाओं का प्रयोग किया जाता है। कतिपय इन्हीं भिन्नताओं के कारण इस शैली की अपनी एक विशिष्ट और अलग पहचान राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मानी जाती है।

 -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर