स्वतंत्रता संग्राम में आधी दुनिया ने लड़ी थी दोहरी जंग

आज़ादी की पहली व्यवस्थित लड़ाई 1857 के बाद भारतीयों को अंग्रेज़ों से 90 साल तक निरन्तर लड़ते रहना पड़ा, तब कहीं जाकर हमें आज़ादी मिली। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिस आज़ादी की आज हम बेकद्री कर रहे हैं, उसे पाने के लिए हमारे पुरखों ने कितनी कुर्बानियां दीं, लेकिन इस पूरे संघर्ष की हमारी यह समझ तब भी अधूरी रहेगी, यदि हम यह न जानें कि भारतीय महिलाओं को आज़ादी की लड़ाई में शामिल रहते हुए, अपने अधिकारों की जंग अलग से लड़नी पड़ी थी। वह भी सिर्फ  अंग्रेज़ों से नहीं, अपने हिंदुस्तानी पुरुषों से भी। 
जब यह लगभग तय हो गया कि अंग्रेज़ अब भारत छोड़कर चले जाएंगे, तब भी वे इस बात पर सहमत नहीं हुए कि आज़ादी के बाद सभी भारतीय महिलाओं को भी मताधिकार होगा। दरअसल अंग्रेज़ भारतीय महिलाओं को मताधिकार देना ही नहीं चाहते थे। शुरू में भारतीय राजनेता भी कुछ ऐसी ही सोच रखते थे लेकिन जैसे जैसे लड़ाई आगे बढ़ी, भारतीय राजनेताओं को यह बात समझ में आ गई कि हम जिन अधिकारों के लिए अंग्रेज़ों से खुद लड़ रहे हैं, आज़ादी के बाद अगर उन्हीं अधिकारों को अपनी ही आधी दुनिया को नहीं दिया, तो यह न सिर्फ  अलोकतांत्रिक होगा बल्कि कहीं न कहीं औपनिवेशिक मानसिकता का ही विस्तार होगा।अंग्रेज़ सभी भारतीय महिलाओं को मताधिकार नहीं देना चाहते थे, तो उनके इतिहास को देखते हुए यह स्वाभाविक ही था। दरअसल ब्रिटेन में महिलाओं को वोट देने का अधिकार पुरुषों के मुकाबले लगभग एक सदी के बाद मिला जबकि अमरीका में महिलाओं को पुरुषों के समान मदाधिकार पाने में 144 साल लगे। यूरोप के तथाकथित लोकतांत्रिक मूल्यों वाले देशों में महिलाओं को मत देने का अधिकार पाने के लिए बहुत लम्बी और खूनी जंग लड़नी पड़ी। स्विट्जरलैंड जैसे देश में महिलाओं को वोट देने का अधिकार पुरुषों से कई सदियाें बाद 1974 में मिला जबकि भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती यही है कि देश के आज़ाद होने के बाद जिस दिन और जिस घड़ी इस देश के पुरुषों को मताधिकार मिला, ठीक उन्हीं पलों में महिलाओं को भी यह अधिकार दे दिया गया बल्कि इसे यूं कहना चाहिए कि भारत में महिलाओं और पुरुषों को एक साथ चुनाव में मतदान का अधिकार मिला।लेकिन यह अधिकतर केवल भारत में आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले नेताओं की सूझबूझ से ही नहीं मिला है, न ही स्त्रियों को संविधान में दिए गये सम्मान के कारण। यह वास्तव में आधी दुनिया द्वारा अपने हकों के लिए लड़ी गई लड़ाई के चलते मिला है। इसके लिए लम्बे समय तक भारतीय महिलाओं को लड़ाई लड़नी पड़ी, तब कहीं जाकर उन्हें आज़ादी के बाद पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर यह हक मिला। आज़ादी के समय भारत में वोटरों की संख्या महज 8 करोड़ से कुछ अधिक थी लेकिन जब आज़ाद भारत में पहले आम चुनाव हुए तो मतदाताओं की संख्या बढ़कर करीब 18 करोड़ हो गई थी, जिनमें करीब 8 करोड़ महिलाएं थीं, जिन्होंने जीवन में पहले कभी वोट नहीं दिया था। इनकी संख्या शुरू में तो करीब 8 करोड़ 30 लाख थी, लेकिन ऐन चुनावों के पहले 28 लाख से ज्यादा महिलाओं के नाम वोटर लिस्ट से हटाने पड़े, क्योंकि उन्होंने अपना कोई स्वतंत्र नाम ही नहीं बताया था। दरअसल उस जमाने तक महिलाओं की समाज में इतनी कम कद्र थी कि कई महिलाओं का जीवन में कोई नाम ही नहीं होता था। वह फलां की मां, फलां की बहू वगैरह-वगैरह होती थीं। इसलिए जब पहली वोटर लिस्ट बनी तो उसमें 28 लाख से ज्यादा ऐसी महिलाएं थीं, जो नाम के नाम पर, किसी की पत्नी, किसी की मां और किसी की बहन थीं। अब चूंकि इस पहचान के साथ वोट डालने का तो हक दिया नहीं जा सकता था, इसलिए पहले आम चुनाव के पहले 28 लाख से ज्यादा महिलाओं के नाम वोटर लिस्ट से काटने पड़े थे। भारतीय महिलाओं को एक तरफ  आज़ादी के लिए अंग्रेज़ों से, तो दूसरी तरफ आज़ादी के बाद अपने हकों के लिए अंग्रेज़ों और भारतीय राजनेताओं दोनों से लड़ना पड़ा। ब्रिटिश अधिकारी यह मानते थे कि आज़ादी के बाद भारत में महिलाओं को सार्वभौमिक मताधिकार देना सही नहीं होगा। वे सिर्फ  कुछ विशिष्ट महिलाओं को ही मताधिकार देने के पक्ष में थे। माना जाता है कि शुरुआत में महात्मा गांधी भी इसी विचार के थे। उन्होंने वोटिंग का अधिकार पाने के लिए महिलाओं का समर्थन नहीं किया था। उनका मानना था कि औपनिवेशिक शासकों से लड़ने के लिए उन्हें सिर्फ  पुरुषों की मदद करनी चाहिए। हालांकि वह भी महात्मा गांधी ही थे जिन्होंने न केवल बाद में आज़ाद भारत के हर वयस्क नागरिक के लिए मताधिकार की मांग की बल्कि इसके लिए संविधान सभा के सदस्यों पर अपना दबाव भी बनाया, जिसके कारण भारत में आज़ादी के साथ ही दोनों यानी महिलाओं और पुरुषों को वोट का अधिकार मिल गया। हालांकि 1930 तक कई भारतीय प्रांतों में महिलाओं को सीमित मताधिकार मिल भी चुका था, जिससे यह साबित हो गया था कि वे अपनी आज़ादी का गलत फायदा नहीं उठाएंगी। इसके बावजूद महिलाओं को संविधान के तहत मताधिकार पाने में जबरदस्त सक्रियता दिखानी पड़ी थी और आज़ादी की लड़ाई में हिस्सेदारी के साथ साथ अपने अधिकारों की अलग से जंग भी लड़नी पड़ी थी। इसलिए उनके लिए भारत की आज़ादी के ये शानदार 75 साल पुरुषों से कहीं ज्यादा मायने रखते हैं।

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