नयी शिक्षा नीति को हकीकतों से जोड़ना होगा

नयी शिक्षा नीति के अनेकानेक पहलुओं पर विचार मंथन जारी है। अभी यूजीसी के निर्देश पर देश के  विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों में करीब एक हफ्ता चले शिक्षक पर्व में नयी शिक्षा नीति पर परिचर्चाएं आयोजित करायी गईं। उधर देश में मुफ्तखोरी की राजनीतिक संस्कृति को नियमित करने को लेकर हो रही चर्चाओं में शिक्षा व स्वास्थ्य पर सरकारों द्वारा किये जाने वाले खर्चे पर भी बातें हुईं। अब सवाल यह है कि क्या मोदी सरकार द्वारा 2020 में पेश आज़ाद भारत की 1966 और 1984 के बाद की तीसरी शिक्षा नीति देश के मौजूदा शैक्षिक परिदृश्य का संपूर्ण समाधान करने जा रही है? पिछली दो शिक्षा नीतियों में शैक्षिक डिग्रियों के क्रम, शिक्षा पर सरकारी निवेश और स्कूलों के कलेवर को लेकर कुछ नयी पहल दर्शाई गईं थीं। वहीं फिलहाल 2020 की शिक्षा नीति शिक्षा के भाषाई माध्यम को लेकर घरेलू व देशी भाषा को तवज्जो देने का एक बेहद साहसिक कदम उठा रही है। इसके अलावा रोजगारपरक शिक्षा, उच्चतर शिक्षा की डिग्री का नया क्त्रम निर्धारण, शिक्षा की फायनेंसिंग, शिक्षकों की भूमिका वगैरह को लेकर भी नयी नीति में औपचारिक टिप्पणियां दर्ज हैं।
नयी शिक्षा नीति के दस्तावेज में अच्छे अच्छे शब्दों को जोड़कर अच्छा टेक्सट लिखने में कोई कमी नहीं है लेकिन देश की समूची शिक्षा का मौजूदा परिदृश्य, शिक्षा की मात्रा व गुणवत्ता, शिक्षा के व्यय व शुल्कों का निर्धारण, शिक्षण फैकल्टी के निर्माण, शिक्षण संस्थाओं की उत्पादकता, प्रदर्शन और कुल मिलाकर देश के मानव विकास, सामाजिक विकास तथा तकनीकी व प्रौद्योगिकी विकास की मौजूदा स्थिति तथा शिक्षा के अर्थशास्त्र तथा भारतीय अर्थ व्यवस्था में शिक्षा की हिस्सेदारी का सम्पूर्ण अवलोकन नहीं दिखायी देता। दूसरी तरफ  शिक्षा के क्षेत्र में मौजूद निजी व स्वयंसेवी क्षेत्र की विशाल व निरन्तर बढ़ रही कारोबारी उपस्थिति की बातें नयी शिक्षा नीति में बिल्कुल नदारद हैं। अब सवाल यह है कि वह नीति जो भारत में शिक्षा के तीनों प्रारूपों प्राथमिक शिक्षा, माध्यमिक शिक्षा तथा उच्च व पेशेवर शिक्षा की मौजूदा भारतीय संरचना व वस्तुस्थिति में झांकने का प्रयास नहीं कर रही, उसमे मौजूद विसंगतियों से वाबस्ता नहीं हो रही, देश के बड़े शैक्षिक उद्देश्यों को हासिल करने हेतु इस वस्तुस्थिति को पुनर्रचित करने का प्रयास नहीं कर रही तो फिर इस नयी नीति से हम क्या बड़ी उम्मीद करें? मिसाल के तौर पर पहले प्राथमिक शिक्षा को लें। देश में सर्वशिक्षा अभियान ने देश के गांव गांव में प्राथमिक विद्यालयों का पर्याप्त नेटवर्क विकसित किया तो दूसरी तरफ  मध्यान्ह स्कूल भोजन योजना ने स्कूलों में बच्चों के पांचवीं तक के ड्रापआउट अनुपात को 45 फीसदी से घटाकर 15 फीसदी तक लाने में सफलता ज़रूर हासिल की।
लेकिन इन विद्यालयों में राज्य सरकारों द्वारा शिक्षकों की नियुक्ति में जिस तरह से राजनीतिक एडवेंचरिज़्म किया गया, उसके तहत भारी संख्या में अयोग्य व गैर प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति कर दी गई। दूसरा इन शिक्षकों को निविदा आधारित वेतनमान पर नियुक्त किये जाने से शिक्षकों की दो तरह की दुनिया तैयार हुई। आए दिन इनकी हड़ताल व राजनीतिक हस्तक्षेप से देश के प्राथमिक स्कूलों के शैक्षिक परिवेश में गिरावट से सर्वशिक्षा अभियान के क्रांतिकारी उद्देश्य बुरी तरह से बाधित हुए। दूसरा कई स्कूलों में केवल एक शिक्षक होने से प्राथमिक शिक्षा का वह उद्देश्य जिसकी वित्तीय ज़रूरतों की पूर्ति के लिए शिक्षा अधिभार की अवधारणा शुरू की गई, पूरा नहीं हुआ। इसमें रही सही कसर कोरोना काल ने पूरी कर दी जब देश के सरकारी स्कूलों को महामारी की वजह से करीब दो साल तक बंद रखा गया। चूंकि ये स्कूल ब्राडबैंड नेटवर्क से नहीं जुड़े थे सो सरकारी स्कूलों के करोड़ों बच्चे आनलाइन स्टडी नहीं कर पाए। अनाधिकारिक रूप से इस दौरान देश के लाखों गरीब बच्चों की पढ़ाई छूट गई और वे बाल मज़दूर बन गए। दूसरी तरफ  निजी स्कूल नयी आनलाइन तकनीकों के जरिये अपने स्कूली बच्चों को निरन्तर पढ़ाते रहे। 
यही वजह है कि देश में मौजूद 10 लाख प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा पा रहे 15 करोड़ बच्चों तथा 4 लाख मिडिल स्कूलों में पढ़ रहे 75 लाख बच्चों में निजी स्कूलों का आंकड़ा अभी 47 फीसदी को छू चुका है। ऐसे में सवाल यह पैदा होता है कि जिस नयी शिक्षा नीति में इतनी बड़ी-बड़ी बातें कही जा रही हैं, वहां देश में निजी स्कूलों की इस विशाल कारोबारी उपस्थिति का कोई उल्लेख क्यों नहीं? सरकार इस बड़ी हकीकत को लेकर इनके नियमन व दिशा निर्देश तथा इनकी लाइसेंसिंग व फीस को लेकर एक स्पष्ट नीति वक्तव्य पब्लिक डोमेन में क्यों नहीं ला रही है? माध्यमिक व उच्चतर माध्यमिक शिक्षा की बात करें तो देश में करीब दो लाख उच्च व उच्चतर स्कूलों में जो 50 लाख बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं वहां सरकारी स्कूलों की फीस दर निम्र होने के बावजूद निजी स्कूलों में बच्चों की तादाद निरन्तर बढ़ी है। निजी स्कूलों में एक हजार से लेकर दस हजार रुपये प्रति माह फीस ली जाती हैं। नियमन के नाम पर इन निजी स्कूलों को 25 फीसदी एडमिशन गरीब बच्चों के लिए आरक्षित रखने का प्रावधान है लेकिन इसका समुचित तरीके से पालन नहीं होता और ज्यादातर गरीब बच्चे इनसे वंचित रहते हैं। इस नयी शिक्षा नीति भारत के शिक्षा जगत की इस जमीनी सच्चाई का समाधान तो दूर इसका उल्लेख तक नहीं करती।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर