बदलते वक्त में से उभरती एक गंदली बयार

वक्त क्या बदला, शब्दों के अर्थ ही बदल गये! पहले प्रेम-पत्र कितना मासूम शब्द होता था। लिखने वाला झिझक कर कहता कि ‘ऐ नाज़नीन, ऐ हसीन, तुम मेरा प्रेम-पत्र पढ़ कर तनिक भी नाराज़ न होना, क्योंकि ऐसे प्रेम-पत्र प्रेम-पत्र नहीं होते, ये तो ज़िन्दगी होते हैं, बन्दे की बन्दगी होते हैं।’ जनाब सब पुरानी बातें हैं। आज किसी को अपनी ज़िन्दगी कहना चाहो, तो कोई हर्षातिरेक से नहीं झुकता। आजकल तो हमारे यहां हर ज़िन्दगी एक जैसी हो गई है। जैसी ज़िन्दगी मुसद्दी लाल की, वैसी ही ज़िन्दगी फिसड्डी लाल की। अब किसी का भी प्रेम-पत्र किसी को आ जाए, क्या अन्तर पड़ता है। पहले आपकी छत पर पत्थर से बंधे प्रेम-पत्र गिरते थे, आजकल व्हाट्सएप संदेश गिरते हैं। लेकिन इनमें से किसी का कोई भी संदेश आपके मन की धड़कन को तेज़ नहीं करता। आज पल्ला मुसद्दी लाल का पकड़ लो या फिसड्डी लाल का, ज़िन्दगी तो रियायती अनाज की दुकान की कतार से एक लम्बे इंतज़ार जैसी ही कटनी है। 
स्विट्ज़रलैंड की पहाड़ियों में मधुयामिनी बिताने की बात क्या करते हो, पड़ोस के टीले तक हरियाली मुक्त होकर चटियल मैदान हो गये। हां, आजकल नये पहाड़ अवश्य आपके शहर की सरहदों पर उभरने लगे हैं। कूड़े के ढेर के पहाड़, कि जिनके निस्तारण का हर उपाय असफल हो मुंह चिढ़ा जाता है। ढेर पर ढेर लगते जाते हैं। उन्होंने पहाड़ों का रूप भी धारण कर लिया। इनके स्वागत के लिए मधुयामिनी की कैम्पफायर नहीं होती, इन्हें उठा लेने की विनय भावना के साथ धरने लगते हैं। अब ऐसे माहौल में कोई प्रेम गीत  कैसे लिखोगे। हां कोई समझौता अवश्य कर लोगे कि इनके लिए कोई वैकल्पिक स्थान तलाश किया जाये। तब तक आप इन्हें सहन करने की आदत डाल लेंगे। बहुत जी चाहे तो इनके वजूद को सीमित करने के लिए एक बाड़ उठा दी जाये। उसके बाहर आप अपनी जीवनदान मांगती एक स्कूटी अवश्य टिका सकते हैं। वहां एक प्रेम गीत का सुर पकड़ने का प्रयास कर सकते हो, तब तक जब तक कि बाड़ भी उस ढेर के समक्ष आत्मसमर्पण न कर दे, और यूं आपके सौंदर्य बोध की परिभाषा ही न बदल दे। 
भई, क्या है यह नया सौंदर्य बोध? कभी-कभी छक्कन अपने इत्रफुलेल के हवाई मीनार के ऊपर से एक हमदर्द आवाज़ के साथ उन सब लोगों से पूछ लेते हैं, जिन्हें आजकल एक ही नाम दे दिया गया है ‘फिसड्डी लाल’।
इतने लोगों को एक ही नाम से क्यों पुकारते हो? उनका भाग्य, रहन-सहन, उठना-बैठना एक जैसा है, यह मान लिया, लेकिन सब को एक ही नाम क्यों दे दिया? और वह भी फिसड्डी लाल जैसा, दकियानूसी नाम। हमें लगा फिसड्डी लाल एक दिन छक्कन से पूछ ही लेंगे। उन्हें जवाब क्या अभी तक स्पष्ट नहीं हुआ। ज़ाहिर है अन्धे धावकों की इस दुनिया में फिसड्डी शुरू से ही पिछड़ते रहे हैं। यह मामूली बात है कि इस देश में हर महामारी, हर विपदा और हर विकट समय में इनकी संख्या बढ़ती जा रही है।  संख्या ही नहीं, तुम्हारी नियति भी एक जैसी, आदतें भी एक सुर में बदलती जा रही हैं। बदल कर एक सी हो गई हैं। देखो तुम्हारे सौंदर्य बोध ने कैसा रुख बदला? पहले तुम्हें पड़ोस की छोरियां फूलों की रानी, खज़ानों की मलिका लगती थीं। आज फूलों ने अपनी जगह कांटों और कैक्टसों को दे दी है। साफ-सफाई की बातें विनत होकर ज़िन्दगी में हर स्तर पर घुसपैठ कर रहे कूड़े के ढेरों के सामने दिवंगत हो गईं। यहां आदमी के अन्तस में कूड़ा और बहिरंग में कूड़ा। खुशबू की बात आज कौन किससे करता है? सब ओर तो दिवंगत मूल्यों और आदर्शों के जल मरने की राख फैली है। इस राख से हर पिछड़े आदमी के भाल पर टीका लगाया जाता है। तब उसे एक ही नाम क्यों न दे दें, फिसड्डी लाल?
इसलिए एक ही नाम दिया कि वह कूड़ा हो गई ज़िन्दगी में से सत्य, नेकी और ईमानदारी के फूल तलाशता रहा। उसे इतना भी नहीं पता चल सका कि इन बस्तियों से खुशहाली की बहारों को रूठे बरसों हो गये, अब वह बहारों की मलिका किसे कहे? अरे, जब फूल उगाने की ज़िद की जगह अब हथेली पर सरसों जमाने का मौसम आ गया है, तो आज मौसमी सरसों के किचन गार्डन बनाना ही सीख लो। जानते नहीं, धंधे बदल गये हैं। आजकल कूड़े की राजनीति की महिमा हो गई है और इसकी सहायता से अपने-अपने वर्ग, धर्म और सम्प्रदाय के किचन गार्डन सजने लगे हैं। नये धंधों के नये अंदाज़ हैं जनाब! प्यार मोहब्बत की बातें बीते युग के अफसाने हैं। आजकल तो नफरत की खेती होती है। एक दूसरे से बढ़चढ़ कर झूठ बोल सकने की सेल लगती है और कल के फिसड्डी सफलता का तुमार उठा उसके मालप्लाज़ा सजा आपको घूमने आने का निमंत्रण देते दिखाई पड़ते हैं। शायद इसी के द्वारा वे अपने उन ग्राहकों की तलाश कर लेते हैं, जो आंखें बंद करके उनका बेचा सामान खरीद लेते हैं, और फिर अपने आपको प्रतिबद्ध पाते हैं। उनके उस सफल घराने के प्रति उनकी वंशावली को मौका देने के प्रति कि वह फिर आपकी ज़िन्दगी संवारने के मिथ्या आंकड़े बांटता रहे। सबको सफलता के इस उत्सव में एक नया उत्सव सजाने की तलाश रहती है। ज़िन्दगी में सरक आया कूड़ा बुहारने की फुर्सत भला किसके पास है, आजकल।