परम्पराओं की प्रतीक होती है रंगोली

आंगन में बने रंग-बिरंगे डिजाइन, फ ूलों से अलंकरण और विभिन्न रंगों की छटा देखते हुए जब कोई मेहमान घर में प्रवेश करता है तो सहज ही उसका मन पुलकित हो उठता है। आंगन, प्रवेश द्वार या बरामदे जहां भी संभव हो, इस तरह के आकारों को देखा जा सकता है। यह रंगोली है जो सुख-सौभाग्य का प्रतीक होती है। यही वजह है कि रंगोली को पारम्परिक कला के रूप में जाना जाता है। पहले रंगोली को रंगीन रेत या चावल के पाउडर से बनाया जाता था। वास्तव में इसे किस तरह बनाना है, यह उस प्रदेश की विशेषता पर भी निर्भर करता है। ज्यामितीय आकारों में देवी-देवताओं, दीयों आदि के चित्र इसमें बनाए जाते थे। चौक पूरने की कला का ही उन्नत रूप है आज की रंगोली । इस कला को राजस्थान में माडना, मध्य प्रदेश, हरियाणा व पंजाब में रंगोली, आंध्र प्रदेश में मुगल, तमिलनाडु व कर्नाटक में कोलम, बंगाल में अल्पना आदि नामों से जाना जाता है।  अब भी गांवों में स्त्रियां अपने दिन की शुरुआत रंगोली बनाकर ही करती हैं। बेशक आज उसे बनाने के तरीके में थोड़ा फर्क आया है पर पारंपरिक टच अब भी विद्यमान है। अब सिंथेटिक पेंट, खाने वाले रंगों, वॉटर कलर, फैब्रिक रंग आदि का भी इस्तेमाल किया जाने लगा है। आउटलाइन बनाने के लिए चॉक का प्रयोग किया जाता है। फिर सूखे या गीले रंगों से डिजाइन बनाते हुए हल्दी, फूलों, दाल या अन्य सजावटी सामान में इसे सजाया जाता है। गांवों में अब भी गेरू, खडिया, मुल्तानी मिट्टी, हल्दी या टैसू का प्रयोग किया जाता है। रंगोली बनाने से पहले कागज पर उसका डिजाइन बनाया जाता है। उसका स्टेंसिल तैयार कर जमीन पर रख आउटलाइन बनाई जाती है और फिर मनचाहें रंगों व माध्यमों से इसे सजाया जाता है। *
(सुमन सागर)