बदहाली में जीने को मजबूर है देश का मज़दूर

मज़दूर एक ऐसा शब्द है जिसके बोलने में ही मजबूरी झलकती है। सबसे अधिक मेहनत करने वाला मजदूर आज भी सबसे अधिक बदहाल स्थिति में है। दुनिया में एक भी ऐसा देश नहीं है जहां मजदूरों की स्थिति में सुधार हो पाया हो। दुनिया के सभी देशों की सरकारें मजदूरों के हित के लिए बातें तो बहुत बड़ी-बड़ी करती हैं मगर जब उनकी भलाई के लिए कुछ करने का समय आता है तो सभी पीछे हट जाती हैं। इसीलिए मजदूरों की स्थिति में सुधार नहीं हो पाता है। 
भारत में भी मजदूरों की स्थिति बेहतर नहीं है। हमारे देश की सरकार भी मजदूर हितों के लिए बहुत बातें करती है, बहुत सी योजनाएं व कानून बनाती है। मगर जब उनको अमली जामा पहनाने का समय आता है तो सब इधर-उधर ताकने लग जाते हैं। मजदूर फिर बेचारा मजबूर बनकर रह जाता है।
किसी भी राष्ट्र की प्रगति करने का प्रमुख भार मजदूर वर्ग के कंधों पर ही होता है। मजदूर वर्ग की कड़ी मेहनत के बल पर ही राष्ट्र तरक्की करता है लेकिन भारत का श्रमिक वर्ग श्रम कल्याण सुविधाओं के लिए आज भी तरस रहा है। हमारे देश में मजदूरों का शोषण आज भी जारी है। समय बीतने के साथ मजदूर दिवस को लेकर श्रमिक तबके में अब कोई खास उत्साह नहीं रह गया है। बढ़ती महंगाई और पारिवारिक जिम्मेदारियों ने भी मजदूरों के उत्साह को कम किया है। 
हमारे देश का मजदूर वर्ग आज भी अत्यंत ही दयनीय स्थिति में रह रहा है। उनको न तो मालिकों द्वारा किए गए अपने कार्य की पूरी मजदूरी दी जाती है और न ही अन्य वांछित सुविधाएं उपलब्ध करवाई जाती हैं। गांव में खेती के प्रति लोगों का रुझान कम हो रहा है। इस कारण बड़ी संख्या में लोग मजदूरी करने के लिए शहरों की तरफ पलायन कर जाते हैं जहां न उनके रहने की कोई सही व्यवस्था होती है, न ही उनको कोई ढंग का काम मिल पाता है मगर आर्थिक कमजोरी के चलते शहरों में रहने वाले मजदूर लोग जैसे तैसे कर वहां अपना गुजर-बसर करते हैं।
बड़े शहरों में झोंपड़ पट्टी बस्तियों की भी संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है, जहां रहने वाले लोगों को कैसी विषम परिस्थितियों का सामना करता है। इसको देखने की न तो सरकार को फुर्सत है, न ही किसी राजनीतिक दल के नेताओं को। झुग्गी झौपड़ी में रहने वाले मजदूरों को शौचालय जाने के लिए भी घंटों लाइनों में खड़ा रहना पड़ता है। झौपड़ पट्टी बस्तियों में न रोशनी की सुविधा रहती है, न पीने को साफ पानी मिलता है और न ही स्वच्छ वातावरण।  शहर के किसी गंदे नाले के आसपास बसने वाली झोपड़ पट्टियों में रहने वाले गरीब तबके के मजदूर कैसा नारकीय जीवन गुजारते हैं, इसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है मगर इसको अपनी नियति मान कर पूरी मेहनत से अपने मालिकों के यहां काम करने वाले मजदूरों के प्रति मालिकों के मन में जरा भी सहानुभूति के भाव नहीं रहते हैं। उनसे 12-12 घंटे लगातार काम करवाया जाता है। घंटों धूप में खड़े रहकर बड़ी बड़ी कोठियां बनाने वाले मजदूरों को एक छप्पर तक नसीब नहीं हो पाता है।
हमारे देश में आज सबसे ज्यादा कोई प्रताड़ित व उपेक्षित है तो वो मजदूर वर्ग है। मजदूरों की सुनने वाला देश में कोई नहीं है। कारखानों में काम करने वाले मजदूराें पर हर वक्त इस बात की तलवार लटकती रहती है कि न जाने कब मालिक उनकी छंटनी कर काम से हटा दे। कारखानों में कार्यरत मजदूरों से निर्धारित समय से अधिक काम लिया जाता है। विरोध करने पर काम से हटाने की धमकी दी जाती है। मजबूरी में मजदूर कारखाने के मालिक की शर्तों पर काम करने को विवश होता है। कारखानों में श्रम विभाग के मापदण्डाें के अनुसार किसी भी तरह की कोई सुविधायें नहीं दी जाती हैं।
कई कारखानों में तो मजदूरों से खतरनाक काम करवाया जाता है जिस कारण उनको कई प्रकार की बीमारियां लग जाती हैं। कारखानों में मजदूरों को पर्याप्त चिकित्सा सुविधा, पीने का साफ पानी, विश्राम की सुविधा तक उपलब्ध नहीं करवायी जाती। मालिकों द्वारा निरंतर मजदूरों का शोषण किया जाता है। मजदूरों के हितों की रक्षा के लिये बनी मजदूर यूनियनों को भी मजदूरों की बजाय मालिकों की ज्यादा चिंता रहती है। हालांकि कुछ मजदूर यूनियनें अपना फर्ज निभाती हैं मगर उनकी संख्या कम है। हमारे देश में मजदूरों की स्थिति सबसे भयावह होती जा रही है। देश का मजदूर दिन प्रतिदिन और अधिक गरीब होता जा रहा है। दिन रात रोजी-रोटी के जुगाड़ में जद्दोजहद करने वाले मजदूर को दो जून की रोटी मिल जाए तो मानो सब कुछ मिल गया। 
देश में सभी राजनीतिक दलों ने अपने यहां मजदूर संगठन बना रखे हैं। सभी दल दावा करते हैं कि उनका दल मजदूरों के भले के लिये काम करता है मगर ये सिर्फ कहने सुनने में ही अच्छा लगता है। हकीकत इससे कहीं उलट है। (युवराज)