जलवायु संकट को लेकर अमीर देशों की उदासीनता ़खतरनाक


जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने के लिए अमीर एवं शक्तिशाली देशों की उदासीनता एवं लापरवाह रवैया एक बार फिर मिस्र के अंतर्राष्ट्रीय जलवायु शिखर सम्मेलन (कॉप-27) में देखने को मिला। दुनिया में जलवायु परिवर्तन की समस्या जितनी गंभीर होती जा रही है, इससे निपटने के गंभीर प्रयासों का उतना ही अभाव महसूस हो रहा है। कॉप-27 में मौसम में अप्रत्याशित बदलाव के कारण गरीब देशों को हुए नुकसान पर चर्चाएं हुईं। इस तरह का नुकसान गरीब देश ही क्यों भुगतते हैं? इस सम्मेलन में इसकी भरपाई के लिए धन मुहैया कराने समेत अन्य अहम मुद्दों को लेकर गतिरोध ने इस कड़वे यथार्थ एवं खौफनाक सच को फिर रेखांकित कर दिया कि अमीर एवं शक्तिशाली देश इस वैश्विक समस्या के प्रति उदासीन हैं। गंभीर से गंभीरतर होते इस संकट को लेकर सम्मेलन के समापन पर ‘नुकसान और क्षति’ कोष स्थापित करने पर सहमति भले ही बन गई, लेकिन यह कोष कब तक बनेगा, कौन इसमें सहयोगी होंगे और किस तरह काम करेगा, यह स्पष्ट नहीं है। सम्मेलन में स्वीकार किया गया कि पिछले सम्मेलन में कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए जो संकल्प किया गया था, वह पूरा नहीं हो सका। इसलिये एक बार फिर सभी 197 देशों ने कार्बन उत्सर्जन में तेज़ी से कमी लाने का संकल्प किया है। कॉप-27 से इसलिए भी काफी उम्मीदें थीं कि जलवायु परिवर्तन से पिछले एक साल में दुनिया में हालात ज्यादा गंभीर हुए हैं, बिगड़े हैं। दरअसल कार्बन उत्सर्जन घटाने एवं जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर अमीर देशों ने जैसा रुख अपनाया हुआ है, वह इस संकट को गहराने वाला है। जलवायु परिवर्तन के घातक प्रभावों ने भारत ही नहीं, पूरी दुनिया की चिंताएं बढ़ा दी हैं। अभी भी नहीं चेते तो यह समस्या हर देश, हर घर एवं हर व्यक्ति के जीवन पर अंधेरा बनकर सामने आयेगी।
भारतीय उप-महाद्वीप और कई यूरोपीय देशों को हाल में भीषण गर्मी तथा बाढ़ की मार झेलनी पड़ी है। भारत में ग्लोबल तापमान के चलते होने वाला विस्थापन अनुमान से कहीं अधिक है। मौसम का मिजाज़ बदलने के साथ देश के अलग-अलग हिस्सों में प्राथमिक आपदाओं की तीव्रता आई हुई है। दिल्ली-एनसीआर और इसके पड़ोसी राज्यों में वायु प्रदूषण की समस्या भी जलवायु परिवर्तन से जुड़ी है। भारत में जलवायु परिवर्तन पर इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फार एनवायरमेंट एंड डिवेल्पमेंट की पूर्व में जारी की गई रिपोर्ट में कहा गया था कि बाढ़-सूखे के चलते फसलों की तबाही और चक्रवातों के कारण मछली पालन में गिरावट आ रही है। देश के भीतर भू-स्खलन से अनेक लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। भू-स्खलन उत्तराखंड एवं हिमाचल जैसे दो राज्यों तक सीमित नहीं बल्कि केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, सिक्किम और पश्चिम बंगाल की पहाड़ियों में भी भारी वर्षा, बाढ़ और भूस्खलन के चलते लोगों की जानें गई हैं। 
कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए दुनिया भर में कोयले का इस्तेमाल घटाने पर ज़ोर दिया जा रहा है, जबकि युद्ध ने कोयले का इस्तेमाल कई गुना बढ़ा दिया है। एक बड़ा सवाल उठना लाज़िमी है कि शून्य कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य आखिर हासिल कैसे होगा? पर्यावरण के बिगड़ते मिजाज़ एवं जलवायु परिवर्तन के घातक परिणामों ने जीवन को जटिल बना दिया है। गौरतलब है कि जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने के लिए विकसित देशों को गरीब मुल्कों की मदद करनी थी। इसके लिए 2009 में एक समझौता भी हुआ था, जिसके तहत अमीर देशों को हर साल सौ अरब डालर विकासशील देशों को देने थे परन्तु विकसित देश इससे पीछे हट गए। इससे कार्बन उत्सर्जन कम करने की मुहिम को भारी आघात लगा। इसलिए अब समय आ गया है जब विकसित देश इस बात को समझें कि यदि वे विकासशील देशों को मदद नहीं देंगे तो कैसे ये देश अपने यहां ऊर्जा संबंधी नए विकल्पों पर काम शुरू कर पाएंगे। 
वैज्ञानिक और पर्यावरणविद चेतावनी दे रहे हैं कि आने वाले दशकों में वैश्विक तापमान और बढ़ेगा। इसलिए अगर दुनिया अब भी नहीं सतर्क होगी तो 21वीं सदी को भयानक आपदाओं से कोई नहीं बचा पाएगा। अमीर देश कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्य विकासशील और गरीब देशों पर थोपने लगे हैं। अमरीका, चीन और ब्रिटेन जैसे देश भी कोयले से चलने वाले बिजली घरों को बंद नहीं कर पा रहे। भारत के साथ पाकिस्तान और अफगानिस्तान सहित 11 ऐसे देश हैं जो जलवायु परिवर्तन के लिहाज से चिंताजनक श्रेणी में हैं। ये ऐसे देश हैं, जो जलवायु परिवर्तन के कारण सामने आने वाली पर्यावरणीय और सामाजिक चुनौतियों से निपटने की क्षमता के लिहाज से खासे कमज़ोर हैं। आने वाले समय में विश्व तापमान की दशा तय करने में चीन और भारत की अहम भूमिका रहने वाली है। आखिर चीन दुनिया का सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक देश है। भारत भी चीन के साथ इसलिए जुड़ जाता है क्योंकि इन दोनों ही देशों में उत्सर्जन की मात्रा साल-दर-साल बढ़ रही है। हालांकि यह भी कोई छुपा तथ्य नहीं है कि भारत जैसे देशों के लिए उत्सर्जन कम करना आसान नहीं है। इसके लिए जिम्मेदार सबसे बड़ा कारक कोयले का बहुतायत में इस्तेमाल है, जिसे रातोरात कम करना संभव नहीं क्योंकि इसके सारे विकल्प अपेक्षाकृत महंगे पड़ते हैं।  
पर्यावरण के निरन्तर बदलते स्वरूप ने नि:संदेह बढ़ते दुष्परिणामों पर सोचने पर मजबूर किया है। औद्योगिक गैसों के लगातार बढ़ते उत्सर्जन और वन आवरण में तेज़ी से हो रही कमी के कारण ओज़ोन गैस की परत का क्षरण हो रहा है। इस अस्वाभाविक बदलाव का प्रभाव वैश्विक स्तर पर हो रहे जलवायु परिवर्तनों के रूप में दिखलाई पड़ता है। वर्तमान समय में पर्यावरण के समक्ष तरह-तरह की चुनौतियां गंभीर चिन्ता का विषय बनी हुई हैं। ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से ग्लेशियर तेजी से पिघल कर समुद्र का जलस्तर तीव्रगति से बढ़ा रहे हैं जिससे समुद्र किनारे बसे अनेक नगरों एवं महानगरों के डूबने का खतरा मंडराने लगा है। दुनिया ग्लोबल वार्मिंग, असंतुलित पर्यावरण, जलवायु संकट एवं बढ़ते कार्बन उत्सर्जन जैसी चिंताओं से रू-ब-रू है। 
जलवायु परिवर्तन के मोर्चे पर धरती की हालत ‘मज़र् बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की’ वाली है। इसीलिए कॉप-27 में संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरस को कहना पड़ा कि हमारी पृथ्वी एक तरह से जलवायु अराजकता की तरफ  बढ़ रही है। उन्होंने यह चेतावनी भी दी कि इन्सानी सभ्यता के सामने अब सिर्फ  ‘सहयोग करने या खत्म हो जाने’ का विकल्प बचा है। सार्वभौमिक तापमान में लगातार होती इस वृद्धि के कारण विश्व के पर्यावरण पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है। उससे मुक्ति पाने के लिये जागना होगा, संवेदनशील होना होगा एवं विश्व के शक्तिसम्पन्न राष्ट्रों को सहयोग के लिये कमर कसनी होगी, तभी हम जलवायु परिवर्तन के संकट से निपट सकेंगे अन्यथा यह विश्व मानवता के प्रति बड़ा अपराध होगा, उसके विनाश का कारण बनेगा।