चुनाव आयोग की स़ाख

चुनाव आयुक्त अरुण गोयल की नियुक्ति के संबंध में उभरे विवाद ने भारतीय चुनाव आयोग की स़ाख पर कई प्रकार के प्रश्न-चिन्ह खड़े कर दिये हैं। चुनाव आयोग 1950 में स्थापित की गई एक संवैधानिक संस्था है जिसका मुख्य कार्य देश भर में कई स्तरों पर चुनावों को सम्पन्न करना एवं उनकी निगरानी करना होता है। भारत विश्व का सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश है इसलिए चुनाव आयोग से यह उम्मीद की जाती रही है कि वह देश में बिना किसी राजनीतिक दबाव अथवा भेदभाव के निष्पक्ष चुनाव करवाये। इस संस्था की ओर से विगत 70 वर्षों में चुनाव प्रक्रिया में अनेक सुधार किये गये हैं। मत-पेटियों से लेकर इसने विद्युत मशीनों तक का स़फर तय कर लिया है। आयोग मतदाताओं के पहचान-पत्र बनाने में बड़ी सीमा तक सफल रहा है। समय-समय पर चुनाव संबंधी सामने आई न्यूनताओं को ठीक करने की ओर भी निरन्तर कदम उठाये जाते रहे हैं।
वर्ष 1990 में मुख्य आयुक्त टी.एन. सेशन ने चुनाव प्रक्रिया में भारी सुधार किये थे। उस समय इनकी भारी चर्चा हुई थी। समय-समय पर चुनाव आयोग की ओर से लिये गये फैसले भी साहसिक रहे हैं परन्तु इसके साथ-साथ इस पर पड़े अनेक प्रकार के दबावों के कारण इसके कई फैसलों की बड़े स्तर पर आलोचना भी होती रही है। इस लम्बे स़फर में मुख्य चुनाव आयुक्त पर चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के संबंध में भी विचार-चर्चा होती रही है परन्तु नियुक्तियों की प्रक्रिया के संबंध में कोई प्रभावशाली एवं पारदर्शी कानून नहीं बनाया जा सका। इसे देखते हुये ही सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयुक्त अरुण गोयल की नियुक्ति के सन्दर्भ में जो टिप्पणियां की हैं, वे अतीव महत्त्वपूर्ण हैं। इस संबंध में कई याचिकाएं भी दायर की गई थीं जिन्हें देखते हुये सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने कहा है कि इस संगठन में ऐसे अधिकारियों की आवश्यकता है जो उचित समय पर प्रधानमंत्री के विरुद्ध भी कार्रवाई कर सकते हों। इसीलिए पीठ ने अरुण गोयल की नियुक्ति के संबंध में फाइल पेश करने के लिए भी कहा है। इसे देखते हुये कुछ विपक्षी पार्टियों ने चुनाव आयोग की चुनाव प्रक्रिया के संबंध में प्रश्न-चिन्ह भी उठाये हैं। इन्हें उचित भी कहा जा सकता है तथा ये समय की मांग भी हैं। 
इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय की ओर से की गई टिप्पणियों को लेकर विपक्षी दलों ने केन्द्र सरकार पर चुनाव आयोग को कमज़ोर करने का आरोप लगाया है। नि:सन्देह इसके लिए ठोस प्रयत्न किये जाने की बड़ी आवश्यकता प्रतीत होती है। विगत अवधि में कई बार यह प्रभाव अवश्य बनता रहा है कि चुनाव आयोग सरकार की इच्छानुसार चुनाव तिथियां निर्धारित करने के फैसले लेता है। कई बार ‘मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट’ अभिप्राय आदर्श चुनाव संहिता के संबंध में भी लिये गये फैसले एक-पक्षीय ही सिद्ध होते रहे हैं। अब यदि सर्वोच्च न्यायालय ने इस चर्चा को आधार बना ही लिया है तो उसे इस संबंध में किसी निर्णायक फैसले पर  पहुंचना चाहिए जोकि आगामी समय में संसद के माध्यम से कोई पुख्ता कानून बनाने में सहायक हो सके। चुनाव प्रक्रिया के संबंध में आज विकसित देशों की ओर से अपनाई गई प्रक्रिया को भी ध्यान में लाना ज़रूरी है। कुछ विकसित देशों से यह प्रभाव मिलता है कि वहां चुनाव काफी सीमा तक पारदर्शी एवं निष्पक्ष होते हैं। आजकल देश में यह अनुभव किया जा रहा है कि सरकारें कुछ विभागों एवं एजेंसियों का अपनी मनमज़र्ी से  इस्तेमाल कर रही हैं। ऐसा कुछ विरोध की आवाज़ को दबाने के लिए भी किया जाता रहा है जिसके संबंध में देश भर से आवाज़ें भी उठती रही हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि संसद की ओर से ऐसा कानून बनाया जाये जिसके माध्यम से चुनाव आयोग के सदस्यों का चुनाव पारदर्शी ढंग से किया जा सके। इसमें न्यायपालिका एवं विपक्षी पार्टियों के प्रतिनिधियों की भी एक सीमा तक उपस्थिति होनी चाहिए। चुनाव आयोग का स्वतंत्र अस्तित्व देश के लोकतंत्र को मजबूत करने में सहायक हो सकता है क्योंकि इसका प्रत्येक पक्ष से दबाव रहित एवं निष्पक्ष होना इस महत्त्वपूर्ण संस्था को और भी मजबूती दे सकता है।
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द