विश्व कप की चमक के पीछे का अंधेरा


इन दिनों कतर देश में चल रहे फीफा फुटबॉल विश्व कप की चर्चा गली-गली में है। कुछ लाख की आबादी वाले इस देश को आयोजन करने का अधिकार कैसे मिला इस पर भी काफी चर्चा हो रही है। सवाल उठाया जा रहा है कि आयोजन के लिए अधिक मत पाने के लिए सीधी या अमूर्त ढंग से कहीं रिश्वत से काम तो नहीं लिया गया। दूसरा सवाल यह भी है कि आयोजन के लिए विश्व स्तर के निर्माण, सड़कें, परिवहन, बड़ी होटल इंडस्ट्री के लिए जो अरबों डॉलर की राशि खर्च की गई है उससे कहीं कतर देश किसी आर्थिक संकट को तो नहीं झेलने वाला?
फुटबॉल विश्व कप की तैयारी कतर सरकार के लिए इतनी भी आसान नहीं थी। फुटबॉल मैच खेले जाने के लिए हाइटेक स्टेडियम और आधारभूत ढांचा तैयार करने के लिए हज़ारों श्रमिकों की ज़रूरत थी। यह सुविधा कतर देश के पास नहीं थी। लिहाज़ा विदेश से श्रमिकों को इस काम के लिए बुलाना अनिवार्य हो गया था। हज़ारों प्रवासी भारतीय श्रमिकों को काम पर रखा गया। अब मानवाधिकार समूह इक्विंडम के अनुसार इन भारतीय श्रमिकों और अन्य प्रवासी एशियाई श्रमिकों को अमानवीय स्थितियों में काम करना पड़ा है। द गार्जियन में छपी रिपोर्ट में बताया गया है कि इक्ंिवडम का निष्कर्ष है कि कतर स्टेडियम के लिए काम करने वाले मज़दूर, प्रतिकूल परिस्थितियों में रहे हैं। इस रिपोर्ट को तैयार करने के लिए जिन मज़दूरों से बात की गई, उनमें से कई श्रमिकों ने शोषण का सामना किया और वे भय तथा अपराध के माहौल में काम करते रहे हैं। उनके साथ भेदभाव राष्ट्रीयता के स्तर पर हुआ, कार्यस्थल पर हिंसा का सामना करना पड़ा, अपशब्द सुनने पड़े और मानसिक स्तर पर प्रताड़ित होना पड़ा। एक श्रमिक के लिए यह सब कुछ निंदनीय ही कहा जा सकता है। इक्ंिवडम का यह आरोप भी है कि स्टेडियम का निर्माण करने वाली कम्पनियां निरीक्षण से बचती रही हैं। लुसैल स्टेडियम के लिए काम कर चुके एक नेपाली श्रमिक ने इन्हें बताया कि जब फीफा समूह निरीक्षण के लिए आने वाला था तब मज़दूरों को उनके कैंप में भेज दिया गया था। ताकि कोई मज़दूर शिकायत करने का अवसर ही न पा सके। कम्पनी ने यहां तक जांचा कि कोई साइट पर छिपकर तो नहीं बैठा हुआ। मज़दूर ने बताया कि जो कोई छुपा हुआ पाया गया उसे या तो घर वापिस भेज दिया गया या उसका वेतन काट लिया गया। इक्ंिवडम के एग्जीक्यूटिव डायरैक्टर मुस्तफा कादरी का कहना है कि जिन मज़दूरों ने स्टेडियम बनाये हैं, उनका पैसा चोरी हो गया और उनकी ज़िन्दगी बर्बाद कर दी गई। फीफा इससे मुंह नहीं फेर सकता और उन्हें इसकी भरपाई के लिए पैसा देना चाहिए।  
यू.ए.ई. की जनसंख्या एक करोड़ है। इसमें मात्र 15 लाख ही अमीरात के निवासी हैं। शेष पूरी जनसंख्या में प्रवासी ही  हैं। यहां तीस लाख भारतीय हैं। कुछ समय पहले ही भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तीन करोड़ प्रवासी भारतीयों की शक्ति को पहचान दी थी। लगभग पचास लाख भारतीय मूल के प्रवासी अमरीका और ब्रिटेन में ही हैं। जिनमें से कुछ उच्च पदों पर दायित्व निभा रहे हैं। विगत दिनों जब बाली में जी-20 शिखर सम्मेलन आयोजित हुआ था, मोदी ने एक शाम भारतीय प्रवासियों के सम्बोधन के लिए रखी थी। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि भारत के तीन करोड़ प्रवासी कभी किसी मुद्दे पर एक स्वर होकर बोलते हैं? यदि ये तीन करोड़ भारतीय एक साथ, एक स्वर में विदेशों में भारतीयों के साथ हो रहे भेदभाव पर अपनी आवाज़ उठायें तो वह काफी सशक्त आवाज़ बन कर उभर सकती है।
कतर में महीने भर से अधिक समय में भारतीय श्रमिकों को जिस तकलीफ, भेदभाव का सामना करना पड़ा है। होने वाले मैचों में खिलाड़ियों के उत्साह, गोल होने पर दर्शकों की बजती तालियों और जोश भरी आवाज़ों के बीच एशियाई श्रमिकों की पीड़ा कहीं भी उभर कर नहीं आएगी। बड़े-बड़े होटलों में लुत्फ उठाते पत्रकार, खेल प्रेमी भी चकाचौंध में श्रमिकों के उदगार पढ़ न पाएंगे।