पहली बार आहत होने पर ही संभलें


एक समय तक यही मान्य रहा कि भारत, पाकिस्तान बांग्लादेश, श्रीलंका जैसे देशों में ही एक स्त्री को दोयम दर्जे का नागरिक समझा जाता है और अधिकांश स्त्रियों को जीवन में एक दो बार (या इससे भी ज्यादा) पुरुष द्वारा स्त्री को शारीरिक प्रताड़ना झेलनी पड़ी है। परन्तु विदेश में खासकर विकसित माने जाने वाले देशों में भी पति द्वारा पत्नी पर शारीरिक हमले अक्सर हुए हैं जिसे उन्होंने अपमानित होकर झेला है, वे या तो चुप रह गई हैं या घुटती रही हैं। सिर्फ कुछ महिलाओं ने ही इसका ज़ोरदार खंडन किया और रिश्ता तोड़कर बाहर आ गयी हैं।
दूसरे विश्व युद्ध के 15 साल बाद तक अमरीका में आम तौर पर स्त्रियां अपनी स्वतंत्रता के व्यापक अर्थ को नहीं समझती थीं। उन महिलाओं के पति दूसरे कमरे में बैठे राजनीति और दुनियादारी की बातचीत में मशगूल रहते थे। उन महिलाओं के लिए लिखे गये शब्दों या महिलाओं के बीच होने वाली बातचीत में इस्तेमाल होने वाले शब्दों में अपने बच्चों की परेशानियां, उनकी पढाई, पति को खुश रखने के तरीके और फर्नीचर मेजपोश ही शामिल रहते थे। यह बहस का मुद्दा ही नहीं था कि महिलाएं पुरुषों से कमतर हैं या बढ़कर वे बस उनसे अलग थीं... इसीलिए जब सीमोन दे बुआ नाम की फ्रांसीसी महिला ने ‘द सैकंड़ सैक्स’ नाम की किताब लिखी तो एक अमरीकी समीक्षक ने यह टिप्पणी की। वह जानती ही नहीं कि ज़िंदगी किसे कहते हैं? संभव है कि वह फ्रांसीसी महिलाओं की बात कर रही है। ‘स्त्री समस्या’ नाम की कोई चीज़ अमरीका में नहीं है। भारत में लड़कियों के लिए शिक्षा का द्वार खुला तो उन्होंने शिक्षा के माध्यम से प्रगति की सीढ़ियां चढ़ना शुरू किया। वे हर क्षेत्र में गयीं। प्रतिभा के बल पर अपनी जगह बनाई परन्तु घरेलू हिंसा आज तक हमारे समाज की बड़ी विडम्बना बनी रही है।
कुछ दिन पहले हमने फिल्म ‘थप्पड़’ के माध्यम से अच्छी तरह जान लिया कि वैवाहिक जीवन के पहले तमाचे से ही एब्यूज की शुरूआत हो जाती है और किसी भी सूरत में इसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। अनुपमा गुलाटी का केस याद करवाया जाता है। पति उनके साफ्टवेयर इंजीनियर थे। जिसने अनुपमा को जोर का थप्पड़ मार दिया था और पड़ते ही वह बेहोश हो गयी थी। इसके बाद राजेश ने एक तकिये से उसका दम घोंट दिया था और क्रूरता की मिसाल पेश करते हुए उनकी देह को 72 टुकड़ों में काट दिया। नि:संदेह यह पहली ऐसी वारदात नहीं थी, जो पहली बार घटी हो। श्रद्धा वालकर का केस नया है। इस जैसी लड़कियां जो लम्बे समय तक यह सब झेल रही होती हैं। जब वह अपने अंधकारमय भविष्य को पहचान कर अपने सो काल्ड जीवन साथी को छोड़कर आगे बढ़ जाती हैं, तब कम से कम जीवन तो संभला रहता है, जो सदा अनमोल है, परन्तु एक तमाचा खाकर लौट कर आना जीवन को मुश्किल में डाल देता है। इन दो मामलों में घरेलू हिंसा मौजूद है। जब आदमी मानवता के सभी तकाजे भूल जाता है और हमलावर बना रहता है। उसके भीतर की हैवानियत फिर सर उठा सकती है और विनाश लीला तक पहुंच सकती है।
जहां तक स्त्रियों का सवाल है- एक स्त्री के संबंध में ऐसी छवि क्यों रहती है कि वह कमजोर, जड़ और नकारात्मक है। उसकी सोच को पिछड़ी हुई मान लिया जाता है, उसे अनुभवहीन, मंदबुद्धि या कम अकल समझा जाता है। कुछ लोग तो योग्य महिला अधिकारी के अधीन काम करने में अपना अपमान महसूस करते हैं और यह आधारहीन कुंठा उनके काम को भी प्रभावित करती हैं। 
स्त्री को चुपचाप स्वीकार नहीं करना चाहिए। माता-पिता, भाई भाभी या सहेली के साथ खुलकर बात करनी चाहिए। लड़के-लड़कियां अपनी तकलीफ घुटकर रह जाते हैं अपने अकेलेपन में। यह भी काफी कष्टदायक है कि हम अपनी घोर तकलीफ में अकेले रह जायें। इस संबंध में समाज में खुलेपन का रवैया बेहतर ही होगा।