आज भी जारी है पशु-पक्षियों पर क्रूरता

 

जहां समूचा विश्व कम्प्यूटरीकृत युग व वैज्ञानिक अवधारणा की ओर उत्तरोतर अग्रसर है, वहीं अधिकांश देशों में पशुओं से मानव आज भी बेगार ले रहा है। मूक व निसहाय पशु-पक्षी मानव की क्रूरता के आगे विवश हैं। मानव द्वारा किये जा रहे अत्याचार वे चुपचाप सहते हैं। बोझा ढोने वाले पशुओं खच्चर, घोड़े, बैल, भैंसा, ऊंट आदि को मानव जहां अपने हितों में लिए उपयोग में ला ही रहा है, वहीं अपने मनोरंजन के लिए वह हाथी, बतख, बिल्ली, खरगोश एवं विभिन्न पक्षियों को बंधक बनाये हुए है। जहां सर्कस इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, वहीं व्यासायिक दृष्टि से भी मानव ने पशु-पक्षियों से उनका प्राकृतिक जीवन छीन लिया है। भेड़, बकरी, गाय, भैंस, सूअर मानव के जुल्मों के सबसे ज्यादा शिकार हैं।
पशु श्रम का प्रयोग किया जाना कोई बुराई नहीं है लेकिन अनावश्यक श्रम लेना तो अत्याचार ही माना जाएगा। सामाजिक न्याय मंत्रालय ने पशुओं के प्रति क्रूरता निवारण अधिनियम लागू किया, लेकिन आज भी देश में पशु-पक्षियों के प्रति क्रूरता का सिलसिला जारी है। गांवों में ही नहीं, शहरों में भी पशुओं से सोलह-सोलह घंटे काम लिया जाता है।
गांवों में पशुओं की देखरेख व उपचार हेतु ग्रामीणों में फिर भी संवेदनाएं है लेकिन शहरों में पर्याप्त सुविधाओं के बावजूद पशु उचित चिकित्सा के अभाव में दम तोड़ देते हैं। अधिकांश पशुओं से बोझा ढोने का काम कराया जाता है। बोझा ढोने वाले पशुओं की अनुमानित संख्या लगभग 41 करोड़ है। कृषि कार्यों के लिए भी पशुओं का प्रयोग आज भी बदस्तूर जारी है।
एक अनुमान के अनुसार समस्त कृषि योग्य भूमि तक आधुनिक उपकरणों की पहुंच में आधी सदी से अधिक समय लग जाएगा यानी अभी कम से कम पचास साल तक पशुओं से श्रम लिया जाता रहेगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि उसके श्रम के एवज में इन्सान उन्हें कोई कीमत नहीं देता लेकिन कम से कम उम्मीद की जानी चाहिए कि मानव पशुओं की उचित देखभाल करे। संतुलित खुराक व रख-रखाव की व्यवस्था तो करे। आज भी देश में लगभग एक करोड़ बैलगाड़ियां हैं। इन बैलगाड़ियों से ही लगभग 20 करोड़ टन सामन ढोया जा रहा है। बैलगाड़ियां ढोने वाले पशुओं की गर्दन, तांगा जोतने वाले घोड़े के शरीर पर घाव बन जाते हैं। पशुओं में पैदल परिवहन के दौरान चाबुक या डंडा-लाठी का उपयोग निवारण अधिनियम 1960 के तहत प्रतिबन्धित कर दिया गया है। अधिनियम में गाय, भैंस, घोड़े, खच्चर आदि के द्वारा तय की गई अधिकतम दूरी, विश्राम की अवधि तक तय कर दी है किंतु आज भी उचित निगरानी के अभाव में इन मूक प्राणियों के हितों को अनदेखा किया जा रहा है।
अब समय आ गया है कि मानव निजी स्वार्थों को त्याग कर नैतिकता के आधार पर बहुपयोगी पशु-पक्षियों के जीने के अधिकार का दमन न करे। प्राकृतिक अवस्था में जीने वाले पशु-पक्षियों को बंदी बनाकर जीने को विवश न किया जाए। प्राकृतिक पर्यावरण संतुलन में इन प्राणियों की महत्वपूर्ण भूमिका है। लुप्त हो रहे वन्य प्राणियों की जानकारी मिलने पर भी यदि मानव आज नहीं जागेगा तो कल तक बहुत देर हो जाएगी। (युवराज)