विदेशी विश्वविद्यालयों की आमद क्या उच्च् शिक्षा का स्तर सुधरेगा ?

 

(कल से आगे)
अगला सवाल स्तरीय शिक्षा को मापने पर आधारित है। यू.जी.सी. द्वारा घोषित नामों में क्यू.एस सूची की 500 संस्थाओं के लिए नाम घोषित किये गये हैं। इसके अतिरिक्त वे संस्थाएं जो दर्जाबंदी के क्रियान्वयन में शामिल नहीं हैं परन्तु स्तरीय शिक्षा देती हैं, उन्हें भी कैम्पस खोलने की अनुमति है परन्तु स्तरीय शिक्षा किस आधार पर मापी जाएगी, इस बारे मापदंड निश्चित नहीं किये गये। ऐसे में विशेषज्ञों द्वारा यह आशंका व्यक्त की जा रही है कि भारत में स्तरीय शिक्षा के नाम पर सिर्फ दोयम दर्जे की संस्थाओं का दाखिला होगा, जिनका एकमात्र उद्देश्य विदेशी विश्वविद्यालयों के नाम पर मोटी फीस वसूल करना होगा। एक अन्य मुद्दा विदेशी शैक्षणिक संस्थाओं का भारतीय शैक्षणिक संस्थाओं के साथ मुकाबलेबाज़ी का है। वैसे अंग्रेज़ी की एक कहावत है कि मुकाबलेबाज़ी आपको बेहतर तथा और बेहतर बनाती है। परन्तु भारतीय संस्थाओं का शिकवा है कि मुकाबलेबाज़ी के लिए दोनों पक्षों में समानता के नियम होने ज़रूरी हैं। परन्तु जहां विदेशी विश्वविद्यालयों को अपनी मनमज़र्ी से फीस वसूलने की छूट दी गई है, वहीं भारतीय संस्थाओं पर इस संबंध में कई प्रतिबंध लगाये गये हैं।
सिर्फ नये विकल्प ही काफी नहीं
स्तरीय शिक्षा के क्षेत्र में सिर्फ नये विकल्पों की तलाश ही काफी नहीं है। वर्तमान सिस्टम को सम्भालना भी उतना ही ज़रूरी है। वर्तमान में 45 केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में 6549 रिक्त पद हैं। यह आंकड़े जुलाई, 2022 में शिक्षा मंत्रालय द्वारा उपलब्ध करवाए गए हैं। रिक्त पदों में सबसे ऊपर 900 रिक्त पदों के साथ दिल्ली यूनिवर्सिटी (डी.यू.) पहले स्थान पर है। इसके बाद 622 रिक्त पदों के साथ इलाहाबाद यूनिवर्सिटी दूसरे स्थान पर है। अध्यापकों की कमी के लिए अलग-अलग विश्वविद्यालयों के अपने-अपने कारण हैं, जिनमें बजट की कमी, योग्य उम्मीदवारों का न मिलना तथा दूर-दराज स्थानों पर विश्वविद्यालयों का होना आदि शामिल है।
इस कमी के कारण प्रोफैसरों तथा विद्यार्थियों का अनुपात 100 से 180 तक है। इस कमी को पूरा करने के लिए विश्वविद्यालय एडहाक या पार्ट टाइम फैकल्टी की भर्ती करते हैं। परन्तु कम वेतन तथा नौकरी को लेकर असुरक्षा की भावना के कारण वह विद्यार्थियों को उस जज़्बे से नहीं पढ़ाते, जिसका आखिरकार नुकसान विद्यार्थियों को उठाना पड़ता है। अध्यापकों की कमी की समस्या की ओर पहले भी समय-समय पर ध्यान दिलाया जाता रहा है, उच्च स्तरीय शिक्षा के रास्ते में  आती समस्याओं को दूर करने के लिए मानवीय स्रोतों के विकास संबंधी मंत्रालय (एच.आर.डी.) द्वारा एक टास्क फोर्स का गठन किया गया था। जिसकी 2011 की रिपोर्ट के अनुसार विश्वविद्यालयों में 50 प्रतिशत कम भाव 3 लाख 80 हज़ार अध्यापक हैं, जिनकी कमी टास्क फोर्स के अनुसार आगामी दशक तक 13 लाख तक पहुंचने की आशंका व्यक्त की है। अन्य भी कई समितियों ने स्तरीय शिक्षा के प्रति चर्चा करते हुए कहा था कि यह मामला सिर्फ कम वेतन तक ही सीमित नहीं, अपितु अनुसंधान आधारित फैकल्टी सदस्यों की कमी, साथी प्रोफैसरों के साथ उच्च स्तरीय बातचीत की कमी तथा अकादमिक प्रशासन, जोकि चाहते, न चाहते बुद्धिजीवी वर्ग को निरुत्साहित करते हैं का परिणाम है। 
संक्षिप्त में ये सभी कारण हमें बताते हैं कि अध्यापक पेशे के साथ सिर्फ एक प्रतिभावान तथा व्यापारिक सेवा, जिसे खरीदा एवं बेचा जा सके, की भांति व्यवहार नहीं किया जा सकता। इसलिए ज़रूरी है कि स्तर सुधारने के लिए नए विकल्पों के साथ-साथ मौजूदा प्रबंध की बेहतरी के लिए भी कदम बढ़ाने होंगे, ताकि नासिर काज़मी साहिब का यह शे’अर हमें दोहराना न पड़े-
‘ये सुबह की सफेदियां,
ये दोपहर की ज़रदियां,
अब आइने में देखता हूं,
मैं कहां चला गया।’