विदेशी विश्वविद्यालयों की आमद क्या उच्च् शिक्षा का स्तर सुधरेगा ?

 

‘विद्या विचारी तां परउपकारी।।’
गुरवाणी में दर्ज है ये पंक्तियां हमें विद्या के वास्तविक उपलब्धि, उसके महत्व की ओर ध्यान दिलाती हैं कि यदि शिक्षा को सही ढंग से विचार लिया जाए तो उसकी पूर्णता सार्थक हो जाती है, परन्तु भारत में वर्तमान समय में शिक्षा, विशेष तौर पर उच्च शिक्षा ‘बेचारी’ बनी दिखाई देती है। बेचारगी का आलम यह है कि देश में 1000 से अधिक विश्वविद्यालय तथा 42 हज़ार से अधिक कालेज होते हुए भी कुल दाखिला दर 27 प्रतिशत है, जो कि विश्व के सबसे निचले अनुपातों में एक है। सरकार द्वारा नई शिक्षा नीति में उच्च स्तरीय शिक्षा पर काफी ज़ोर दिया गया है। शिक्षा नीति में निर्धारित लक्ष्यों में मौजूदा दाखिला दर को 2030 तक 50 प्रतिशत करना शामिल है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हाल ही में विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में कैम्पस खोलने की अनुमति देने की घोषणा की गई है। 
इस संबंध में 5 जनवरी को यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन (यूजीसी) द्वारा घोषित किये गए नामों के साथ आक्सफोर्ड, हार्वर्ड तथा येल जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के भारत में आने के दावे किये जा रहे हैं और साथ ही विदेशों में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए जाने वाले बच्चों की संख्या में कमी आने सहित अन्य कई लाभों तथा सम्भावित नुकसान की गिनती-मिनती शुरू हो गई है, परन्तु इस गिनती-मिनती से पहले भारत में मौजूदा उच्च शिक्षा प्रबंध को नज़दीक से देखना होगा। 
दरपेश समस्याएं
पहली, विश्व की उच्च स्तरीय संस्थाओं के लिए जारी की जाती क्यू-एस रैंकिंग 2023 के अनुसार पहले 100 शीर्ष शिक्षा संस्थानों में भारत की कोई भी संस्था शामिल नहीं है। पहली 200 शिक्षण संस्थाओं में सिर्फ 3 संस्थाएं भारत की हैं। क्यू-एस द्वारा जारी दर्जाबंदी की कुल 1500 संस्थाओं में से भारत की कुल 41 संस्थाएं हैं। 
दूसरी, कंस्लटिंग फर्म  रैडसील द्वारा हाल ही में आई एक रिपोर्ट में दिये गए अनुमानों के अनुसार भारतीय विद्यार्थियों की विदेशों में खर्च की मौजूदा सीमा वार्षिक 28 अरब अमरीकी डालर से बढ़ कर वर्ष 2024 में 80 अरब अमरीकी डालर हो जाएगी। रिपोर्ट के अनुसार 2016 में 13 लाख भारतीय उच्च शिक्षा के लिए बाहर जाने का विकल्प चुन रहे थे, जो 2024 में बढ़ कर 18 लाख होने का सम्भावना है। 
तीसरी, भारत की उच्च शिक्षा के ऐसे हालात के कारण जो प्रतिभावान तथा बहुत योग्य अध्यापक हैं, वे भारत में पढ़ाने की बजाय विदेशों में पढ़ाने को प्राथमिकता देते हैं। अंग्रेज़ी में ‘ब्रेन ड्रेन’ कही जाती इस समस्या के कारण उच्च शिक्षा के अवसान का सिलसिला निरन्तर जारी है। 
उक्त हालात भारत में स्तरीय उच्च शिक्षा तथा विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए यहां उचित माहौल की ओर संकेत करते हैं। परन्तु विदेशी विश्वविद्यालयों के भारत में प्रवेश का यह कोई पहला प्रयास नहीं है। इसलिए पहला प्रयास 1995 में किया गया था। 1995 में इस संबंध में पहले विधेयक पेश किया गया था अंत में इस विधेयक को रद्द करना पड़ा। 
इसके बाद 2005-06 में यह मामला सिर्फ मंत्रिमंडल तक पहुंच सका। जबकि 2010 में इस संबंध में विदेशी शिक्षा संस्थाओं बारे एफ.ई.आई. विधेयक का प्रारूप संसद में पेश किया गया। परन्तु 2014 से सरकार बदलने के साथ यह मामला लटका ही रह गया। इतनी लम्बी अवधि से यह मामला लटकने के पीछे विपक्षी पार्टियों का विरोध था, जिनमें वामपंथी पार्टियों के अतिरिक्त भाजपा तथा आर.एस.एस. आदि भी शामिल थीं। आर.एस.एस. का तर्क था कि विदेशी विश्वविद्यालयों के भारत आने से देशी विश्वविद्यालयों पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। मिली-जुली सरकार की पेचीदगियों के कारण संप्रग सरकार इस विधेयक पर आगे न बढ़ सकी। परन्तु बहुमत वाली भाजपा सरकार जो किसी समय इस कवायद के खिलाफ थी, ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 की धारणा में ही यह संकेत दे दिया था कि शिक्षा का स्तर सुधारने के लिए भारत विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए मार्ग प्रशस्त करेगा। 
शिक्षा के स्तर की बात
अब ज्वलंत सवाल यह है कि क्या तीन दशकों से लटकते इस मामले पर आखिरकार लगी सरकारी मुहर तथा विदेशी विश्वविद्यालयों के भारत में प्रवेश के लिए उचित माहौल, क्या ये दोनों मिल कर स्तरीय उच्च शिक्षा के रास्ते में आने वाली बाधाओं को दूर कर सकेंगी या कुछ अन्य कदम भी उठाने अभी शेष हैं?
इस रास्त पर सबसे पहला सवाल यह उठता है कि, क्या शीर्ष विश्वविद्यालय भारत आने में दिलचस्पी दिखाएंगे? कोई भी पूंजीपति, पूंजी लगाने से पहले उससे मिलने वाले लाभ के बारे विचार करता है। हालांकि फीस को लेकर यू.जी.सी. ने खुले मन से कहा है कि विदेशी विश्वविद्यालय अपने अनुसार फीस निर्धारित कर सकते हैं, परन्तु विदेशी विश्वविद्यालयों को कैम्पस स्वयं स्थापित करना होगा। जबकि कई देशों में उन्हें आधारभूत ढांचा भी उपलब्ध किया जाता है। इस संबंध में उन्हें भारत बनाम किसी भी दूसरे देश में पूंजी लगाने का हिसाब-किताब तो दुरुस्त करना ही पड़ेगा। इसके अतिरिक्त वहां के अध्यापक, अनुसंधानकर्ता, अनुसंधान केन्द्रों सहित अन्य सभी प्रबंधों का इंतज़ाम देखना होगा। जिसके बाद लाभ के सौदे के आधार पर ही फैसला लिया जाएगा। 
(शेष कल)