नैतिक मूल्यों का अवसान

भारत एक बड़ा लोकतांत्रिक देश है। किसी भी लोकतंत्र में सदाचार तथा नैतिक मूल्यों का स्वस्थ होना प्रशासनिक प्रणाली के स्वस्थ होने की निशानी कही जा सकती है। भारतीय संविधान में बार-बार ऐसा उल्लेख किया गया है। हमारे संविधान निर्माताओं की भी ऐसी ही अपेक्षा थी। वर्ष 1951-52 में लोकसभा के हुए चुनावों में नैतिक मूल्यों को ही मुख्य रखा गया था। उस समय पार्टी छोड़ने या दूसरी पार्टी में शामिल होने को अच्छा नहीं समझा जाता था। राजनीतिक पार्टियां भी इस पक्ष से पूरी तरह सचेत थीं। उम्मीद तो यह भी की जाती थी कि आगामी समय में ऐसी भावनाएं और मज़बूत होंगी परन्तु समय व्यतीत होने से लगातार इन में अवसान आता गया। इसमें राजनीतिक पार्टियों का भी बड़ा हाथ माना जाता है। यही कारण है कि आज भी अधिकतर पार्टियों द्वारा खड़े किये जाते कई उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि साफ-स्वच्छ नहीं होती, अपितु उन पर समय-समय पर अनेक आरोप भी लगते रहे होते हैं। 
आज भी बड़ी संख्या में पार्टियों द्वारा खड़े किये गये बहुत-से उम्मीदवार द़ागी पृष्ठभूमि वाले होते हैं। यहां तक कि उन पर कई अपराधों के अन्तर्गत मुकद्दमे भी चलते रहे या चल रहे होते हैं। यह भी देखने में आया है कि कई सज़ा प्राप्त व्यक्ति भी राजनीति में चमकते सितारे बन जाते हैं। अक्सर यह कहा जाता है कि जिस प्रकार के लोग होंगे, सरकार उसी प्रकार की बनेगी। यदि किसी भी सरकार में प्रतिबद्धता की कमी वाले व्यक्ति शामिल होंगे तो वे उसकी नीतियों को भी नकारात्मक ढंग से ही प्रभावित करेंगे। आज सभी तरह के राजनीतिज्ञों द्वारा अपने स्वार्थों के लिए पार्टियां बदलने के सिलसिले को भी इसी सन्दर्भ में देखा जा सकता है। 
अब हो रहे लोकसभा चुनावों में देश भर में सैकड़ों ही ऐसे उम्मीदवार मिल जाएंगे जिन्होंने अवसरवादिता की भावनाओं के अधीन पाला बदला है। बेहद दुख की बात यह है कि ऐसा कुछ करने में आज बड़ी राजनीतिक पार्टियां भी शामिल हैं जो दल-बदली को प्रोत्साहित कर रही हैं। किसी भी पार्टी को अपने जीते हुए उम्मीदवार को सम्भालने के लिए विशेष यत्न करने पड़ते हैं। यहां तक कि पार्टी से संबंधित मैनेजर उन्हें दूरवर्ती स्थानों पर ले जाते हैं, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि आज राजनीति में अविश्वास तथा अवसरवादिता का दौर-दौरा है। इन चुनावों के दौरान पंजाब में भी अब तक अनेक बार तथा बार-बार ऐसा कुछ देखने को मिल रहा है। टिकटों की दौड़ में पीछे रह गए व्यक्ति अपनी पार्टी बदलने में देर नहीं लगाते। 
प्रदेश में भिन्न-भिन्न पार्टियों द्वारा इन चुनावों में खड़े किये गए उम्मीदवारों में ऐसे राजनीतिज्ञों की भरमार दिखाई देती है। यहीं बस नहीं, दशकों से अपनी पार्टी के साथ जुड़े होने के बावजूद जब ये दूसरी पार्टी का दामन थामते हैं तो अपनी पहली पार्टी की बखिया उधेड़ने में ज़रा भी देर नहीं करते। इससे भी अधिक निराश करने वाली बात यह है कि बड़ी पार्टियां दल-बदली करने वाले व्यक्ति को पूरी तरह सम्मानित ही नहीं करतीं,  अपितु उनको तुरंत उम्मीदवार बनाने की घोषणा भी कर दी जाती है। 
हम समझते हैं कि आज की राजनीति बारे आम जन की धारणा भी पहले से बदल चुकी है। वे रातो-रात दल-बदली करने वाले उम्मीदवार को नकारते नहीं हैं, अपितु उसको सत्ता की कुर्सी पर बिठाने में देर नहीं लगाते। जब ऐसा कुछ बड़ी तथा राष्ट्रीय पार्टियों में होता दिखाई देता है, जब ये पार्टियां ऐसे किरदार वाले व्यक्तियों को सिर पर बिठा लेती हैं, तो इस क्षेत्र में नैतिक गिरावट जहां मन को ठेस पहुंचाने वाली होती है, वहीं प्रदेश तथा देश में बनने वाली सरकार की प्रतिबद्धता तथा नैतिकता पर भी प्रश्न चिन्ह खड़े कर देती है। उत्पन्न हो रहे ऐसे अविश्वास तथा अनैतिकता में देश के भविष्य बारे सोच कर निराशा उत्पन्न होना स्वाभाविक है। 
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द