लोकसभा चुनाव-2024 : नये घर की तलाश में हैं दलित

नेतरहाट (झारखंड) में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा, ‘राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, जो आदिवासी हैं, को संसद की नई बिल्डिंग के उद्घाटन या राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के लिए आमंत्रित क्यों नहीं किया गया था? पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, जोकि दलित हैं, को भी नई संसद की बिल्डिंग की नींव रखने के समारोह में आमंत्रित क्यों नहीं किया गया था? ...मुझे राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के लिए निमंत्रण मिला था, लेकिन मैं अपमानित होने के डर से वहां नहीं गया, कि वे मेरे जाने के बाद प्रांगण का शुद्धिकरण करते क्योंकि मैं दलित हूं और फिर मुझे मूर्ति के निकट तक भी जाने नहीं देते। आपने उन्हें आमंत्रित इसलिए नहीं किया क्योंकि आपने सोचा कि आप अपवित्र हो जायेंगे।’
मल्लिकार्जुन खड़गे के इस भाषण की व्याख्या अनेक तरह से की जा सकती है। एक, वह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा निरंतर दोहराये जाने वाले आरोप का जवाब दे रहे थे कि विपक्ष ने अयोध्या में राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा में हिस्सा नहीं लिया। दूसरा यह कि जिस तरह मोदी राम मंदिर के नाम पर वोट मांगने का प्रयास कर रहे हैं, उसी तरह मल्लिकार्जुन खड़गे दलितों को रिझाने की कोशिश कर रहे हैं कि भाजपा के साथ जाने पर उन्हें अपमान के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलेगा। लेकिन इनसे भी अधिक महत्वपूर्ण है तीसरा कारण। एक समय था जब ब्राह्मण, दलित व अल्पसंख्यक कांग्रेस के कोर मतदाता हुआ करते थे। समय के साथ यह मतदाता अलग-अलग दिशाओं में चले गये और कांग्रेस कमज़ोर हो गई। 1990 के दशक में उत्तर प्रदेश में दलितों की पहचान वाली राजनीति का बोलबाला हुआ जोकि दलित नेतृत्व वाली राजनीतिक पार्टी के इर्द-गिर्द विकसित हुई। इसका प्रभाव पंजाब सहित पूरी हिंदी पट्टी पर पड़ा। 
अब यह दलित राजनीति सामाजिक न्याय व आर्थिक प्रगति के लिए विस्तृत मांगें रख रही है, विशेषकर गरीब दलितों में। मायावती व उनकी बसपा इन आर्थिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति करने में असफल रही हैं, जिससे उनके विरुद्ध असंतोष है और यही वजह है कि दलित एक नये सियासी घर व नेता की तलाश में हैं। मल्लिकार्जुन खड़गे इसी खालीपन को भरना चाहते हैं। वह कांग्रेस के लिए वही भूमिका निभाने का प्रयास कर रहे हैं, जो 60 व 70 के दशकों में बाबू जगजीवन राम ने कांग्रेस के लिए निभायी थी। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि पिछले कुछ चुनावों के दौरान मायावती के प्रति असंतोष के कारण बसपा की जो पकड़ दलितों पर कमज़ोर पड़ी, उसका सबसे अधिक लाभ भाजपा को हुआ था। 
हिंदुत्व के बैनर तले भाजपा ने दलितों से विकास व सांस्कृतिक मान्यता का वायदा किया। दलितों का एक बड़ा वर्ग, विशेषकर ़गैर-जाटव, हिन्तुत्ववादी हो गया। मल्लिकार्जुन खड़गे इसी वर्ग को खासतौर से संबोधित कर रहे हैं कि भाजपा से उन्हें ‘अपमान’ के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलेगा। लेकिन इस कोशिश में मल्लिकार्जुन खड़गे अकेले नहीं हैं। अनेक अम्बेडकरवादी दलित हैं, जो भाजपा-विरोधी दलित राजनीति में सक्रिय हैं, लेकिन वे एकजुट नहीं हैं, जिसकी वजह से उत्तर भारत में कोई भी दलित नेता व पार्टी कांशीराम जैसा करिश्मा करते प्रतीत नहीं हो रहा है। 
बसपा से मोहभंग होने के बाद उत्तर प्रदेश में जो सबसे प्रमुख दलित गुट उभरा, वह चंद्रशेखर आज़ाद की भीम आर्मी है। भीम आर्मी का गठन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर ज़िले में 2015 में हुआ और उसने 2020 में अपना सियासी दल आज़ाद समाज पार्टी के नाम से गठित किया। चंद्रशेखर जाटव हैं, वकील हैं, मानवाधिकारों के लिए संघर्ष करते हैं और अम्बेडकर के भक्त हैं। वह नई दलित राजनीति का प्रोडक्ट हैं। एक गांव में एक स्कूल अध्यापक के घर में जन्म लेने वाले चंद्रशेखर 2016 में उस समय सुर्खियों में आये जब उन्होंने अपने गांव के प्रवेश मार्ग पर यह बोर्ड लगाया- ‘घदखौली के महान चमार आपका स्वागत करते हैं’। 2021 में चंद्रशेखर पर जानलेवा हमला हुआ। दमन का विरोध करने के कारण जाटव युवाओं में वह बहुत पॉपुलर हैं और इस वजह से भी कि वह अम्बेडकर के विचारों को प्रसारित करने के लिए साइकिल यात्राएं निकालते हैं और दलित बच्चों के लिए स्कूल स्थापित करते हैं। उनके आंदोलन में गति है और ‘टाइम मैगज़ीन’ ने उन्हें विश्व के सौ उभरते हुए नेताओं की सूची में शामिल किया है। लेकिन फिलहाल के लिए भीम आर्मी, जिसके अभी दस वर्ष भी पूरे नहीं हुए हैं, पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक ही सीमित है।
भीम आर्मी की तरह ही पूर्वांचल में श्रवण कुमार निराला का अम्बेडकर जन मोर्चा है और बुंदेलखंड में दद्दू प्रसाद की बहुजन मुक्ति पार्टी है। बसपा से अलग हुए नेताओं ने भी अपनी अपनी दो बसपा बनायी हुई हैं, जिनकी उपस्थिति केवल स्थानीय है। जहां तक भाजपा को दलित समर्थन की बात है, तो वह काफी जटिल है क्योंकि वह दलितों पर सवर्णों के तथाकथित अत्याचार से प्रभावित होती है। दलितों की कमज़ोर उप-जातियां हमेशा से ही उन पार्टियों को प्राथमिकता देती आयी हैं जो स्थानीय स्तर पर प्रभावी जातियों से उनके जानोमाल की रक्षा कर सकें या कम से कम रक्षा करने का भ्रम ही फैला सकें। हालांकि भाजपा को सवर्णों की पार्टी माना जाता है लेकिन अनेक दलित अपने पर अत्याचार को सवर्णों से जोड़ते हैं, न कि भाजपा से। आश्चर्य की बात यह है कि जिस तरह भीम आर्मी अत्याचार विरोधी प्रदर्शनों में हिस्सा लेती है, उस तरह बसपा नहीं लेती है; बस कभी-कभी मायावती की तरफ से बयान जारी हो जाता है। बहिन जी का ‘बड़ी नेता’ के रूप में सम्मान अवश्य है, लेकिन जब हाथरस जैसी कोई घटना होती है, तो चंद्रशेखर को ही मदद के लिए पुकारा जाता है। हाथरस में एक दलित लड़की की सामूहिक दुष्कर्म के बाद मौत हो गई थी और फिर प्रशासन ने रात में ही उसका अंतिम संस्कार कर दिया था। 
इस बार इंडिया एलायंस के कारण उत्तर प्रदेश में कांग्रेस व सपा एक साथ आ गये हैं लेकिन मायावती के कारण त्रिकोणीय मुकाबले हो रहे हैं, जिससे शायद भाजपा को ही लाभ हो। यह बात नगीना लोकसभा क्षेत्र में अधिक स्पष्ट थी जोकि आरक्षित सीट है, 21.4 प्रतिशत अनुसूचित जाति मतों के साथ। यहां चंद्रशेखर भी मैदान में थे, जिससे चुनाव चार प्रत्याशियों के बीच हो गया। इस आरक्षित सीट पर 43.04 मुस्लिम मत हैं। नगीना में पहले चरण में मतदान हुआ था। कौन किधर गया है, कहना कठिन है, लेकिन इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि दलितों में संविधान बदलने व आरक्षण खत्म करने का ज़बरदस्त ख़ौफ है। इस डर को ‘इंडिया’ एलायंस के साथ चंद्रशेखर ने भी भुनाने का प्रयास किया है। अगर चंद्रशेखर को सफलता मिलती है, तो उत्तर प्रदेश की दलित राजनीति में ज़बरदस्त मोड़ आ जायेगा; तब शायद दलितों को अपने लिए एक नया सियासी घर भी मिल जाये।
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