‘हम हैं, दुनिया का सबसे युवा देश’

 

अपने देश से पक्षियों की तरह उड़ान भर किसी दूसरे देश के आंगन में उतर सकने का सपना आज जन-जन के मन पर इतना हावी हो गया है कि उनके कानों में देश भक्ति के चाहे जितने तराने गूंजते रहें या उन्हें सरहदों पर सब ज़ीरो तापमान में अपने देश के चाहे जितने वीर सैनिकों की कहानियां सुना दो, उनके मन में कुछ नहीं सरकता। वे उनकी स्मृति को प्रणाम तो अवश्य कर देंगे, श्रद्धा पुष्प भी चढ़ा देंगे, लेकिन उनका गंतव्य वहीं रहता है किसी डॉलर करंसी के देश की ओर उड़ान भर लेना। अब देश भक्ति और राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत हो जाना उन्हें अपनी सेवानिवृत्ति के बाद का काम लगता है, जब वे अपनी जेबें डॉलर से भरकर इस देश में वापिस आ जाएंगे और अपने लिए किसी आलीशान घर का निर्माण करके उसमें रहने लगेंगे। ऐसे प्रवासी भारतीयों की संख्या बढ़ने लगी हैं। सरकार इनकी सुविधा के लिए नये कायदे कानून बना रही है। उन्हें कह रही है ‘तुम्हें तुम्हारी धरा की सौगंध, लौट आओ, इसके दामन में’ यहां रहकर इसकी सेवा का कुछ जुगाड़ कर लो। जिस धरती पर जन्म लिया, उसके प्रति भी तुम्हारा कुछ कर्त्तव्य है। यह धरा तेरी मां है, इसके दूध का कज़र् नहीं चुकाओगे क्या?
लेकिन ऐसी बातें उन्हें वे फिल्मी संवाद लगते हैं जो वह फुर्सत के समय सुनना चाहते हैं। बहुत अभिमान करते हो न, देश के यौवन का। अपने आस-पास के सब देश तो बूढ़ों के देश बन गये। परिवार नियोजन के नाम पर हमारे यहां गूंजता रहा हम दो, हमारे दो। लेकिन वह भी उस नौकरी पेशा या मध्यवर्ग ने अपनाया जिनकी लुटिया महंगाई ने डुबो दी थी या जिन्हें रियायती रोटियां भी भरपेट नहीं लगती थी। शेष भारत तो बढ़ चढ़ कर प्रजनन क्रिया में लीन रहा। चौराहों पर बढ़ते भिखारियों की संख्या क्यों लगाये यह नारा? उनकी तो जितनी संख्या अधिक होगी, उतने ही उनमें दानपात्र अधिक बंटेंगे। वह हर शाम अघिक पैसे इकट्ठे कर के ला सकेंगे। घर में किराये की चौका बास न करने वाली महिलाएं परिवार नियोजन क्यों करें? जितने अधिक बच्चे पैदा करेगी, उतने ही अधिक घरों में काम करने वाले बाल श्रमिक अधिक हो जायेंगे। अधिक दिहाड़ी कमायेंगे, अधिक पैसे घर ले आयेंगे। उनके घर के मर्दों को फुर्सत मिलेगी, दारू का पव्वा जमा कर घरवालियों को पीटने की। नई-नई गालियों का शब्द कोष घड़ने की।
नेता जी भी चिन्तित नहीं। जितनी इस वर्ग की संख्या बढ़ेगी, उतना ही उनके वोटों का गट्ठर एक साथ खरीदने में आसानी रहेगी। तो लीजिए परिवार नियोजन के नारों के बीच अपने देश की आबादी इतनी बढ़ गई कि दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाले देश को पछाड़ने लगी है। अपने देश के आस-पास के पड़ोसी देश तो बूढ़े देश कहलाने लगे। हम एक हमारा एक का नारा छोड़ जहां अब दो नहीं तीन चार बच्चे पैदा करने का नारा लगने लगा है। 
देखो न भारत की अधिकांश आबादी ने इसे माना नहीं और अपने देश का यौवन डॉलरों और पाऊंडों की तलाश में कौड़ियों के भाव बिकने लगा। आप जितनी चाहो रोज़गार परक नई शिक्षा नीति की घोषणा कर लो, चलने तो यहां आइलैट्स अकादमियां ही हैं। नौजवान यहां ज्ञानार्जन के लिए महान ग्रंथों की तलाश नहीं करते। अपने दिव्यचक्षु खुलवाने के लिए समर्थ गुरुओं की तलाश नहीं करते बल्कि गुरु वह जो इच्छित वीज़ा दिलवाने के लिए अपेक्षित बैंड दिलवा दे। बैंड न मिलें तो किसी न किसी अवैध तरीके से समुद्र पार के किसी देश पहुंचा दे। इस देश के युवा श्रम का बिक्री बाज़ार तो उन समर्थ देशों में है जो उसकी कम लागत की वज़ह से बाहें फैलाकर उसे अपने यहां बुला रहा है। आज अपनी नागरिकता त्याग उन देशों की नागरिकता पाने की होड़ लगी है। कहीं वह मिल जाए तो जैसे उन्हें कारुं का खज़ाना मिल गया। मगर यूं ही चलता रहा तो इन सबका महा निष्क्रमण हो जायेगा। विदेशी धरती की ओर, और यहां शेष रह जाएगा, उनके कमाये डॉलरों का इंतज़ार करते बूढ़ों का देश या बाकी रह जाएंगी उनके द्वारा बनाई गई अपने पैतृक गांवों में भांय-भांय करती खाली कोठियां और उनके एक कोने में सुस्ताते हुए वे बूढ़े जो कभी उनके अभिभावक थे, आज उनकी यादों की धरोहर के चौकीदार।
जो चले गये वे कभी लौटकर नहीं आते। आते हैं तो इन बूढ़ों की मौत पर सांत्वना भरे पत्र। भरे पूरे परिवार थे, एक दूसरे के सुख-दुख में साथ जीने मरने की कसमें खाने वाले परिवार। अब वह साथ, वह अपनापन तो विदेशी धरती के चमकते डॉलरों की ललक ने छीन लिया और अब यहां बाकी रह गये, हर माह उनकी मनी ट्रांसफर की इंतज़ार करते कांखते कहराते बूढ़े।
देखो, सामाजिक परिवेश कितनी जल्दी बदल गया। जो यौवन यहां छूट गया, वह चौराहों पर जमा है भिखारी ब्रिगेडों का एक मानद सदस्य बन कर या अनुकम्पा डिपुओं की लम्बी कतार का एक अदना हिस्सा बन कर। जो भाग्यवान विदेशों की उड़ान भर गये वे तो विदा हुए अपने बूढ़ों को अपनी विदेशी कमाई से बने प्रासादों का चौकीदार बनाकर। देश में आज भी आगे बढ़ते रहो की हांक गूंजती है लेकिन बकाया बूढ़ों में से इनका जवाब निरंतर धीमा होता जा रहा है।