युवाओं को दें फैसले लेने का अधिकार

असर युवा वर्ग पर, उस पीढ़ी द्वारा जो अपने को अनुभवी, परिपव और समझदार कहती है, गैर-ज़िमेदार, एक सीमा से अधिक महत्वाकांक्षी और सब कुछ पल भर में पा लेने का आरोप लगाया जाता है। अब योंकि नियम बनाने और अपनी मर्ज़ी से निर्णय लेने की शति उसके पास नहीं है तो वह सब होता है, जो युवाओं के लिए हानिकारक है और उन्हें निराश करने के लिए काफी है। निराशा का बढ़ता रूझान परिवार हो या आपका कार्यक्षेत्र यानी जहां नौकरी या व्यापार करते हैं, वहां यदि यह महसूस होने लगे कि हमारी बात तो सुनी ही नहीं जाती तो फिर वातावरण सहज नहीं रहता, बोझिल बन जाता है। ऐसे में यही विकल्प बचता है कि या तो जो है और जो चल रहा है, उसे स्वीकार कर लो या छोड़छाड़ कर दूसरे रास्ते तलाश करो। मतलब यह कि जो आप हैं, वह नहीं रहते या मज़बूर कर दिये जाते हैं कि न रहें। इससे हीनभावना और निराशा का जन्म होता है। समय के साथ यह एक संस्कृति हो जाती है कि अपनी ज़ुबान बंद रखने में ही भलाई है। अपनी बात पर दृढ़ रहने की कीमत चुकानी पड़ती है और यह हरेक के बस की बात नहीं होती योंकि परिवार और समाज के बंधनों को तोड़ना आसान नहीं होता। नये वर्ग और समीकरण इस परिस्थिति में युवा वर्ग दो भागों में बंट जाता है, एक कि मेरी ज़ुबान बंद रहेगी, दूसरा मेरे साथ ज़बरदस्ती करने की कोशिश मत करना। विडबना यह है कि परिणाम दोनों स्थितियों में नकारात्मक ही निकलते हैं। एक में आपकी प्रतिभा की कद्र नहीं होती और दूसरे में अपनी बात की अहमीयत सिद्ध करने के लिए एक ऐसी लड़ाई लड़नी पड़ जाती है जिसमें यह नहीं पता होता कि किसके खिलाफ लड़ रहे हैं और उससे भी बढ़कर यह कि यों लड़ रहे हैं? ऐसे में अगर आप महिला हैं तब तो मुश्किलें और भी ज़्यादा हो जाती हैं, योंकि नियम या कानून-कायदे बनाने वाले ज़्यादातर पुरुष होते हैं और वही उनका पालन करवाने वाले होते हैं। परिणामस्वरूप ऐसे में तीन वर्ग बन जाते हैं-पहला अपने को सर्वश्रेष्ठ और सभी गुणों से सपन्न मानने वाला, दूसरा साधारण यानी आम व्यति और तीसरा दास, जिसकी कोई आवाज़ नहीं होती। इनका मूल्य भी इसी आधार पर तय होता है। पहले वर्ग का व्यति सबसे अधिक, दूसरा उससे आधा और तीसरा चौथाई से भी कम पाता है। पुरुष हो या महिला उनका आकलन इसी आधार पर होता है। उदाहरण के लिए यदि कोई तथाकथित माननीय किसी साधारण व्यति के साथ अन्याय, ज़ोर-ज़बरदस्ती, अमानवीय व्यवहार या दुष्कर्म करता है तो उसकी सज़ा कम होती है या होती ही नहीं और यदि किसी दास की श्रेणी में आने वाले के साथ करता है तब तो उसकी न तो सुनवाई होती है और न ही दुहाई दी जा सकती है। इसके विपरीत यदि यह स्थिति उलट हो अर्थात् साधारण या दास वर्ग का व्यति किसी माननीय के साथ वही हरकत करता है जो उसके साथ पहले वर्ग के व्यति ने की थी, तो उस पर दण्ड, सज़ा और उसकी प्रताड़ना सब कुछ लागू हो जाता है। यह ठीक वैसा ही है कि समर्थ, सपन्न और गणमान्य व्यति कुछ भी कहे, करे तो वह नियम माना जाए और कोई साधारण या दास करे तो वह उसका भाग्य जैसे कि पति अपनी पत्नी के अतिरित किसी अन्य से संबंध बनाए तो वह मर्दानगी और यदि पत्नी यही करे तो वह सज़ा की हकदार। निर्णय लेने का अधिकार मूल बात यह है कि यदि समानता की रक्षा करनी है तो निर्णय लेने, नियम और कानून-कायदे बनाने का काम तीनों वर्गों को समिलित रूप से करना होगा। यदि ऐसा नहीं होता तब सपूर्ण समाज को मिलने वाले लाभ कभी समान या एक बराबर नहीं हो सकते। एक वर्ग अपने लिए बहुत कुछ रख लेता है और शेष दोनों वर्गों के लिए जो बचता है वह ऊँट के मुँह में ज़ीरे के समान होता है। आज जो यह देखने को मिलता है कि एक वर्ग की सपिा कुछ ही समय में दुगुनी-चौगुनी हो रही है और बाकी की हालत दयनीय होती जा रही है तो उसका कारण यही है कि समान अधिकार और एक जैसी न्याय व्यवस्था की बात केवल कागज़ों में कही जाती है, व्यवहार में इसके विपरीत होता है। युवा वर्ग को यही बात खलती है कि उसके सपनों और उसके अंदर कुछ नया करने की क्षमता और उसकी ऊर्जा का इस्तेमाल करने का ठेका उस वर्ग ने ले रखा है, जो अपनी परपरागत, दकियानूसी और संकीर्ण सोच से बाहर निकलना ही नहीं चाहता। यही कारण है कि अपने पैरों में बेड़ियां डाले जाने और पंख काट दिये जाने से पहले वह किसी दूसरे देश में उड़ान भर लेता है और जो ऐसा नहीं कर पाते, वे जीवन भर निराशा, कुंठा और असमंजस के भंवर में गोते खाते रहते हैं। युवाओं को अपनी संस्कृति स्वयं बनाने दीजिए। उनके काम करने के तरीकों का फैसला उन पर छोड़ दीजिए। यदि वे अपनी गलतियों तथा कमज़ोरियों के कारण हुए नुकसान के भी वे स्वयं ही ज़िमेदार हैं तो फिर डर किस बात का?